सुप्रीम कोर्ट के जाति वर्गीकरण फ़ैसला बदल देगा बिहार की राजनीति

सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों को संवैधानिक रूप से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के अंदर सब-कैटेगरी बनाने का अधिकार दे दिया है. फ़ैसले में कहा गया कि इससे आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक रूप से ज़्यादा पिछड़ी जातियों को आगे बढ़ने का अवसर मिलेगा.

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पल्लवी कुमारी
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देश में आरक्षण के ऊपर नई बहस शुरू हो गयी है. सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की बेंच ने गुरुवार, एक अगस्त को ‘पंजाब राज्य बनाम दविंदर सिंह’ मामले में अपना फ़ैसला सुनाया है. सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों को संवैधानिक रूप से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के अंदर सब-कैटेगरी बनाने का अधिकार दे दिया है.

फ़ैसले में कहा गया कि इससे पिछड़ी जातियों के भीतर जो आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक रूप से ज़्यादा पिछड़ी जातियां हैं, उनको आगे बढ़ने का अवसर मिलेगा.

सात न्यायधीशों की पीठ जिसमें चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस मनोज मिश्रा, जस्टिस सतीश चंद्र, जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस बेला त्रिवेदी शामिल थें. सात जजों की बेंच ने छह-एक के बहुमत से फ़ैसले पर मुहर लगायी है. जबकि जस्टिस बेला त्रिवेदी राज्यों को एससी-एसटी के अंदर सब-कटैगरी बनाने का अधिकार देने से असहमत थीं.

क्या था जस्टिस बेला त्रिवेदी का पक्ष?

लाइव लॉ में छपी रिपोर्ट के अनुसार जस्टिस बेला त्रिवेदी ने अपनी टिप्पणी में लिखा “सबसे कमज़ोर जातियों के लिए आरक्षण प्रदान करने की आड़ में राज्य को अधिसूचना में कोई बदलाव करने की अनुमति नहीं दी जा सकती. और ना ही उसे अनुच्छेद 341(1) के तहत प्रकाशित ऐसी अधिसूचना के साथ अप्रत्यक्ष रूप से छेड़छाड़ करने की इजाज़त दी जा सकती है.”

अब यहां सवाल उठता है कि अनुच्छेद 341 क्या है? दरअसल इस अनुच्छेद के तहत भारत के राष्ट्रपति को राज्य के राज्पालों के परामर्श से जातियों, नस्लों या जनजातियों को अनुसूचित जाति के रूप में अधिसूचित करने की शक्ति दी गयी है.

लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार “ईवी चिन्नैया मामले में कोर्ट ने माना था कि एक बार जब जाति को अनुच्छेद 341(1) के तहत राष्ट्रपति सूची में डाल दिया जाता है, तो वह एक समरूप वर्ग बन जाता है. और उस जाति का अब कोई और विभाजन नहीं हो सकता है.”

हालांकि एक अगस्त को आये फ़ैसले ने साल 2004 में ईवी चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया है.

फ़ैसले के बाद क्या रहा राजनैतिक पार्टियों का पक्ष?

सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर अलग-अलग राजनीतिक पार्टियां अपना मत रख रहीं हैं. तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन और हम (HAM) पार्टी के मुखिया जीतनराम मांझी ने इस फ़ैसले को अनुसूचित जातियों के लिए लाभकारी बताया है. एमके स्टालिन ने इसे डीएमके के द्रविड़ मॉडल की जीत बताया.

बिहार में नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव, बसपा प्रमुख मायावती और एनडीए के घटक दल लोजपा(रा) प्रमुख चिराग पासवान ने इसे विभाजनकारी बताया. 

नेताओं के अलावा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से आने वाले छात्र भी सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से असहमत नज़र आ रहे हैं. छात्रों का कहना है कि अनुसूचित जातियों के भीतर सभी जातियां किसी न किसी तरह से पीड़ित और समाजिक भेदभाव का शिकार हैं. सरकार किस आधार पर कह सकती है कि उक्त जातियां समाज में बराबरी का अधिकार प्राप्त कर चुकी है.

दलित अधिकारों के लिए काम करने वाले राजीव कुमार राज्यों को वर्गीकरण का अधिकार देने के फ़ैसले का विरोध करते हैं और कहते हैं “बिहार में लोहार जाति और लोहारा जनजाति है. इंग्लिश में लोहारा के आगे ‘ए’ अक्षर जुड़ा हुआ था लेकिन हिंदी में ‘लोहारा’ ना लिखकर ‘लोहार’ ही लिखा जाता था. जिससे लोहारा जनजाति के लोगों को समस्या होती थी. इसलिए ‘र’ के आगे ‘आकार’ की मात्रा लगाने के लिए सरकार को संसद में बिल लाना पड़ा था. जब शब्द बदलाव का छोटा सा दिखने वाला काम संसद के माध्यम से होता है तो कैटोगरी बनाने का अधिकार केवल राज्य के ऊपर नहीं छोड़ा जा सकता.” 

राज्य को अधिकार देने से क्या इसका राजनैतिक फ़ायदा उठाया जा सकता है?

इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने ओबीसी में क्रीमीलेयर का प्रावधान किया था. उस समय अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति में भी क्रीमीलेयर लागू करने का प्रश्न उठा. लेकिन जजों ने कहा चूंकि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति संविधान के अनुच्छेद 341 और 342 के तहत आते हैं, इसलिए इसमें बदलाव केवल संसद कर सकती है.

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राजीव कुमार कहते हैं “हम अनुसूचित जाति में वर्गीकरण का स्वागत करते हैं लेकिन यह केवल संसद के माध्यम से होना चाहिए. क्योंकि कुछ जातियां जैसे मेहतर, मुसहर, हलखोर जैसी सफ़ाई के काम में लगी हुई जातियों के बच्चे नौकरी में नहीं हैं. इसलिए वर्गीकरण इन्हें आगे आने का अवसर देगा. लेकिन इसमें क्रीमीलेयर लागू नहीं होना चाहिए. क्योंकि दलितों को आरक्षण छुआछूत के आधार पर मिला था ना की आर्थिक आधार पर.” 

राजीव यहां राजनीतिक लाभ या द्वेष की भावना से होने वाले नुकसान की भी चर्चा करते हैं. वो बताते हैं “बिहार में जब दलित-महादलित दो वर्ग बनाए गए थे, तब रामविलास पासवान से राजनीतिक मतभेद के कारण पासवान जाति को महादलित वर्ग से बाहर रखा गया था. इसलिए ऐसे अधिकार राज्य सरकार की राजनीतिक लालसा का हथियार बन सकती है.”

बिहार में 22 जातियां अनुसूचित जाति में आती हैं. साल 2005 में सत्ता संभालने के बाद नीतीश कुमार ने अनुसूचित जातियों में पिछड़ेपन को दूर करने का प्रयास शुरू किया. इसी क्रम में साल 2007 में महादलित आयोग का गठन किया. आयोग की सिफ़ारिश पर इनका वर्गीकरण करते हुए चार जातियों को दलित में और 18 को महादलित कैटेगरी में डाल दिया.

इसके बाद महादलित समुदाय की जातियों को विभिन्न योजनाओं जैसे- शिक्षा के लिए अलग से एजुकेशन लोन, छात्रवृत्ति और रहने के लिए आवास जैसी सुविधाएं उपलब्ध कराई गई. हालांकि आगे चलकर सरकार ने शेष चार जातियों धोबी, पासी, चमार और पासवान को भी महादलित में शामिल कर दिया. इस तरह बिहार में दलित जाति ही अब महादलित कहलाने लगी है.

भेदभाव का सामना

एससी-एसटी समुदाय को जो आरक्षण दिया गया था, वह सामाजिक समानता, ख़ासकर छुआछूत की भावना को मिटाने के लिए ही दिया गया है. आजादी के 70 सालों बाद भी इस सामाजिक बुराई का लोगों को सामना करना पर रहा है. ऐसे में एससी-एसटी आरक्षण में क्रीमी लेयर और वर्गीकरण जैसे नियम को लागू करना शायद जल्दबाजी हो.

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औरंगाबाद जिले के ओबरा ब्लॉक के क्लेन गांव के रहने वाले सुधीर कुमार पटना लॉ कॉलेज के छात्र हैं. सुप्रीम कोर्ट के फैसले से असहमति जताते हुए कहते हैं “यह निर्णय संविधान के विरूद्ध है. संविधान में एससी-एसटी समाज को जो आरक्षण मिला था, वह सामाजिक भेदभाव, छुआछूत, जातीय उत्पीड़न के आधार पर मिला था. लेकिन माननीय सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा है कि अब एससी-एसटी में आर्थिक आधार पर क्रीमी लेयर लाकर आरक्षण दिया जाए."

शशिपाल बिहार के दरभंगा जिले में रहते हैं. सरकारी परीक्षाओं की तैयारी करते हैं. दलित समुदाय से आने वाले शशिपाल को रहने के लिए कमरा भी काफ़ी मुश्किल से मिलता है. शशिपाल कहते हैं “मैं दरभंगा में रहता हूं. अगर आज भी कहीं किराए पर कमरा लेने जाता हूं तो वहां जाति पूछा जाता है. दलित समाज का नाम सुनकर भेदभाव और छुआछूत का सामना करना पड़ता है. पिछले साल गांव के ही एक दोस्त के घर पूजा में गया था. लेकिन वहां भेदभाव हुआ क्योंकि हम दलित समाज थे.”

दलितों के हितों के लिए काम करने वाली समिति, आरक्षण बढ़ाओ संविधान बचाओं संघर्ष समिति के बिहार के संयोजक अमर आज़ाद फ़ैसले को एससी समुदाय की सामाजिक एकता को तोड़ने की साजिश बताते हैं.

अमर आजाद कहते हैं “यूपी में एक आईपीएस अधिकारी को सवर्ण गांव से बारात निकालने नहीं दिया गया. क्योंकि वह दलित समाज से आता था. उसके पास शैक्षणिक और आर्थिक दोनों संपन्नता थी. लेकिन फिर भी उसके साथ भेदभाव हुआ. तो सरकार किस आधार पर वर्गीकरण करेगी? बिहार में तो लगभग 14 साल पहले वर्गीकरण का फार्मूला अपनाया गया था. लेकिन इसका क्या लाभ हुआ. विकास मित्र जैसे पद जिनपर नियुक्ति क आधार केवल दसवीं पास होना है, उस पर भी एससी समुदाय के लोगों को नौकरी नहीं मिल पा रही है.” 

जातिगत जनगणना के बाद बिहार सरकार ने बढ़ाया था आरक्षण

बीते वर्ष बिहार सरकार ने राज्य में जातीय जनगणना की रिपोर्ट पेश की थी. रिपोर्ट के अनुसार राज्य में सबसे ज़्यादा 36 फ़ीसदी आबादी अत्यंत पिछड़ा वर्ग से आने वाले लोगों की थी. वहीं पिछड़ा वर्ग 27 फ़ीसदी, अनुसूचित जाति 19 फ़ीसदी और अनुसूचित जनजाति 1.68 फ़ीसदी थी. बिहार सरकार ने आबादी के हिसाब से आरक्षण का दायरा बढ़ाने का वादा किया था. इसी क्रम में ही साल 2023 में इन समुदायों को मिलने वाले आरक्षण में बढ़ोतरी के लिए संशोधन बिल पास किया गया. 

बिहार सरकार ने अनुसूचित जातियों के आरक्षण का दायरा बढ़ाकर 20 फ़ीसदी, अत्यंत पिछड़ा वर्ग को 25 फ़ीसदी, पिछड़ा वर्ग को 18 फ़ीसदी और अनुसूचित जनजातियों को 2 फ़ीसदी आरक्षण दिया था. हालांकि मामला हाईकोर्ट में जाने के बाद इस पर रोक लगा दी गयी है.

ऐसे में यह देखना होगा कि राज्य सरकार सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को राज्य में किस तरह से लागू करती है.

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