जातिगत जनगणना: जिसकी जितनी आबादी क्या उसके पास उतनी भूमि है?

बिहार में जातिगत जनगणना की रिपोर्ट जारी की गई है. इस रिपोर्ट के बाद से एक बहस जारी है. बिहार में जिसकी जितनी आबादी है क्या उसके पास भूमि का अधिकार मौजूद है?

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पल्लवी कुमारी
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जातिगत जनगणना: जिसकी जितनी आबादी क्या उसके पास उतनी भूमि है?

बिहार जातिगत जनगणना की रिपोर्ट जारी करते डेवलपमेंट कमिश्नर विवेक कुमार सिंह

बिहार सरकार ने जातिगत आधारित जनगणना का परिणाम जारी कर दिया है. इस जनगणना के आधार पर जो आंकड़े सामने आये हैं, उसमें सवर्णों (भूमिहार, ब्राह्मण, कायस्थ और राजपूत) की आबादी 15.52% है. जबकि पिछड़ी जातियों की आबादी 63% है. इसमें अत्यंत पिछड़ा वर्ग की आबादी सबसे ज़्यादा 36.01% है जबकि ओबीसी की 27.12% है. ओबीसी में भी सबसे बड़ी संख्या यादवों (14.26%) की है. दलितों की आबादी 19.65% है.

इस रिपोर्ट के सामने आने से दो दिन पहले यानी 30 सितंबर को उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने मीडिया से कहा, “आज के संदर्भ में देखें तो चंद लोग देश चला रहे हैं. देश की संपत्ति बेच रहे हैं. चंद लोगों के पास ज्यादातर जमीन है. यही लैंड 'लॉर्ड' हैं. जिनकी आबादी ज्यादा है उसके पास जमीन है ही नहीं.”

तेजस्वी के इस बयान से अब जातियों के बीच जमीन में हिस्सेदारी की बात उठने लगी है. वहीं इस बयान से राज्य में भूमि पर किसकी कितनी हिसेदारी है इसकी रिपोर्ट जारी किये जाने के कयास भी लगाए जा रहे हैं.

इससे पहले साल 2006 में राज्य सरकार ने भूमि सुधार के लिए आयोग का गठन किया था. लेकिन सरकार ने कभी इसे लागू नहीं किया.

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‘भूमि सुधार’ के लिए किया गया था आयोग का गठन

बिहार में साल 2006 में डी बंदोपाध्याय की अध्यक्षता में ‘भूमि सुधार आयोग’ का गठन किया गया था. आयोग को राज्य में भूमि हदबंदी (सीमा निर्धारण) के प्रभावी उपाय, जमीन का सर्वेक्षण, जमीन का मालिकाना हक और बटाईदारी के अधिकार पर सर्वेक्षण करने और सुझाव देने का काम दिया गया था.

आयोग ने 2008 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी. लेकिन इस रिपोर्ट को आज तक ना जनता के सामने रखा गया और ना ही इसमें सुझाए गये उपायों को अमल में लाया गया. 

बीबीसी के रिपोर्ट के अनुसार इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि 1990 के दशक में राज्य मे भूमिहीनता की दर चिंताजनक हद तक बढ़ी थी. आयोग के अनुसार साल 1993-1994 में राज्य में 67% ग्रामीण भूमिहीन थे. यह आंकड़ा 1999-2000 तक बढ़कर 75% हो गया था. इस दौरान भूमि संपन्न समूहों में गरीबी घटी जबकि भूमिहीन समूहों की गरीबी 51% से बढ़कर 56% हो गई.

आयोग द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार बिहार के कुल 18 लाख एकड़ तक फैली अतिरिक्त जमीनें हैं. ये जमीनें या तो सरकारी नियंत्रण में है या भूदान समिति के नियंत्रण में, जिसे बांटा नहीं जा सका है. ऐसी जमीन या तो सामुदायिक नियंत्रण में हैं या कुछ अन्य लोगों के कब्जे में. आयोग ने इन ज़मीनों को भूमिहीनों में बांटने की सिफ़ारिश की है.

वहीं आयोग ने भूमिहीन बटाईदारों के हितों की रक्षा के लिए एक अलग बटाईदारी कानून बनाने की भी सिफ़ारिश  की थी.

कृषि आश्रित 0.1% लोगों का भूमि पर अधिकार

साल 2018-19 में NSSO (National Sample Survey Organisation) ने कृषि और बिना कृषि पर आधारित परिवारों के आंकड़े जारी किये थे. इन आंकड़ों के अनुसार बिहार में 44.4% आबादी कृषि पर आश्रित है. जबकि 55.6% आबादी गैर कृषि पर आश्रित है. कृषि आधारित परिवारों में ओबीसी की हिस्सेदारी 62.6%, एसटी 18.2%, अन्य 16.6% जबकि एसटी 2.5% हैं.

NSSO की रिपोर्ट के अनुसार बिहार में कृषि आश्रित परिवारों के पास 10 हेक्टेयर से ज्यादा भूमि का स्वामित्व मात्र 0.1% परिवार के पास है.

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बिहार 'होमस्ट्रीट कानून' लागू करने वाला पहला राज्य

भूमिहीन दलितों के लिए काम करने वाले अशोक प्रियदर्शी कहते हैं “दलित भूमिहीन हैं क्योंकि कानून कहती है, एक एकड़ से कम भूमि वाले परिवार को लैंडलेस कहा जाता है. वहीं यहां ऐसे परिवार भी हैं जिनके पास भूमि नहीं है. उनको जमीन देने का कानून है जिसे होमस्ट्रीट कानून कहा जाता है. बिहार पहला राज्य है जहां होमस्ट्रीट कानून लागू किया गया था.

इस कानून के तहत अगर कोई दलित परिवार किसी जमींदार के जमीन पर खेती कर रहा है या रह रहा है तो उसे जमीन का अधिकार दिया जाता है. इस कानून के तहत बिहार में 17 लाख लोगों को जमीन का पर्चा दिया गया था. 1 लाख 70 हजार लोगों को चंपारण में जमीन का पर्चा दिया गया था. लेकिन इनमें से अधिकांश लोगों को जमीन पर कब्जा नहीं मिल सका है.

शंकराचार्य मठ भूमि पर दलितों का संघर्ष

दलितों के पास जमीन नहीं है लेकिन जमीन की लड़ाई में दलित आगे हैं. जमींदार जो खत्म हुए हैं उनकी जमीन दलितों ने लिया है. इसका उदाहरण बोधगया शंकराचार्य मठ की जमीन से भी मिलता है. वहां कई एकड़ जमीन पर मठ का कब्ज़ा था जिसे बाद में दलितों ने हटा दिया और खेती करने लगे. बाद में सरकार ने वहां 30 हज़ार लोगों को जमीन का पेपर दिया था.

1979 में ‘संघर्षवाहिनी’ ने शंकराचार्य मठ खेती में करने से रोका था. उसके बाद सरकार ने कमिटी बनाई और रिपोर्ट में कहा कि इनके पास 9 हज़ार एकड़ फालतू जमीन है. उस समय जिन लोगों ने जमीन जोत (खेती) लिया था उन्हें जमीन दिया गया. उसी आंदोलन के समय से महिलाओं को प्रॉपर्टी राइट मिलने लगा था.

हालांकि जमीन के कारण जो संपदा बनती है वो अधिकार दलितों के पास नहीं है. क्योंकि ये जमीने इन्हें अधिग्रहण के द्वारा मिला है. जमीन के कागज़ात इनके नाम पर हैं पर उसे बेचने का अधिकार नहीं. वे उससे संपत्ति नहीं बना सकते.

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