बिहार में चल रहा भूमि सर्वेक्षण एक समाप्त होती लेखन शैली को चर्चा में लाकर खड़ा कर देगा यह किसी ने नहीं सोचा था. शायद सरकार ने भी नहीं. कभी राज्य के प्रशासनिक और व्यक्तिगत दस्तावेज़ों को लिखने के लिए देवनागरी से ज़्यादा कैथी लिपि का प्रयोग होता था. कैथी लिपि में ही न्यायालयों के दस्तावेज़ तैयार होते थे. आज़ादी से पूर्व 1880 के दशक में अंग्रेज़ी हुकूमत ने कैथी लिपि को बिहार के अदालतों की आधिकारिक लिपि के रूप में मान्यता दी थी.
लेकिन धीरे-धीरे इसका प्रचलन समाप्त होता गया और आज स्थिति यह हो गयी कि इसे लिखने और समझने वाले लोग नहीं मिल रहे हैं. 1880 के पूर्व जमीन संबंधी कागज़ात जैसे- खतियान, रसीद, बंदोबस्त आदि इसी लिपि में लिखे होने के कारण भूमि सर्वे में समस्या उत्पन्न हो गई है. इसी कारण सरकार ने सर्वे में लगे अमीनों को कैथी पढ़ने की ट्रेनिंग देने का फ़ैसला लिया है.
राज्य में ऐसे कई पुराने दस्तावेज़ हैं, जो कैथी लिपि में ही लिखे हैं. फिर इसके संरक्षण और विकास के लिए कभी कोई प्रयास क्यों नहीं किया गया? ख़ासकर उस विभाग में जहां रोज़ाना ज़मीन से जुड़े पुराने दस्तावेज़ों को पढ़कर विवाद को सुलझाना पड़ता है?
कैथी: जो बिहार की अपनी भाषा थी
कैथी लिपि का जन्म ब्राह्मी लिपि से हुआ था. यह बिहार की अपनी लिपि थी, जिसका साम्राज्य लगभग 800 से 900 वर्षों तक रहा. बिहार में बोली जाने वाली लगभग सभी बोलियां जैसे मगही, मैथिली, भोजपुरी, वज्जिका, अंगिका, उर्दू सभी इसी लिपि में लिखी जाती थी. बिहार के बाहर उत्तर प्रदेश के बनारस, बुंदेलखंड, नागपुरी क्षेत्रों में भी इसका विस्तार था.
इतिहास कहता है कि कैथी, देवनागरी लिपि से भी पहले आम लोगों की लेखन शैली रही थी. मुग़ल शासन के दौरान शासकीय कार्यों में फ़ारसी के साथ-साथ कैथी का व्यापक प्रयोग होता था. इसके प्रमाण शेरशाह सूरी द्वारा छपवाई मोहरों पर देखने को मिलती है, जिसमें कैथी लिपि में लिखे शब्द अंकित किये गए थे. साल 1540 में शेरशाह सूरी ने इसे अरबी से साथ-साथ कैथी में भी दस्तावेज़ लिखने के आदेश दिए थे.
वहीं ब्रिटिश शासनकाल में भी इसकी महत्ता बनी रही. आयरिश और औपनिवेशिक अधिकारी जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने पहली बार आधिकारिक तौर पर कैथी लिपि का दस्तावेज़ीकरण किया था. उन्होंने 1881 में 'ए हैंडबुक टू दी कैथी कैरेक्टर' नामक किताब में कैथी स्क्रिप्ट का दस्तावेज़ीकरण किया.
समाज में कैथी की आवश्यकता और लोकप्रियता का आलम यह था कि दोबारा 10 साल बाद 1891 में इस किताब को प्रकाशित किया गया.
इस किताब में कैथी की महत्ता को बताते हुए ग्रियर्सन लिखते हैं कि "अदालतों में कैथी इतनी आम थी कि यूरोपियन अधिकारियों को स्थानीय अधिकारियों की मदद के बिना काम करना मुश्किल था. वहीं वैसे भारतीय अधिकारी जिन्हें केवल देवनागरी का ज्ञान था उन्हें भी कैथी समझने के लिए स्थानीय अधिकारियों की मदद लेनी पड़ती थी."
अंग्रेज़ों के समय के दस्तावेज़ों में कैथी का इस्तेमाल
1870 से 90 के दशकों में ब्रिटिश शासन द्वारा हुए सर्वेक्षणों से पता चलता है कि औपनिवेशिक बिहार में 80 फ़ीसदी से अधिक अदालती दस्तावेज़ कैथी में ही लिखे जाते थे. साल 1880 में बंगाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर रहे सर एश्ले ईडन ने कैथी लिपि को सरकारी कामकाज के लिपि का दर्जा दिया था. हालांकि इसके एक साल बाद 1881 में आदालतों से कैथी लिपि को हटाकर देवनागरी को सरकारी कामकाज की लिपि बना दिया गया. लेकिन कैथी के प्रचलन और निर्बाध लिखावट ने पुनः 1882 में इसे न्यायालयों की अधिकारिक लिपि बना दिया.
समस्तीपुर के रहने वाले ध्रुव कुमार पूर्वोत्तर रेलवे महाविद्यालय में मनोविज्ञान विषय के प्रोफेसर हैं और लंबे समय से कैथी लिपि के संरक्षण के लिए काम कर रहे हैं. कैथी के इतिहास नामक लेख में उन्होंने लिखा है “1884 में ब्रिटिश सरकार ने बिहार परिमंडल ने आदेश पत्र जारी किया था जिसके अनुसार प्राथमिक विद्यालयों में वैसे पुस्तकों का चयन नहीं किया जाएगा जो कैथी लिपि न लिखी हो. 1854 में प्राथमिक विद्यालयों में देवनागरी के मुकाबले तीन गुना ज्यादा से ज्यादा किताबें कैथी में लिखी थीं.”
कैथी ना केवल बिहार बल्कि बंगाल के न्यायालयों की अधिकारिक लिपि बन गई थी. सरकारी गजट भी इसी लिपि में प्रकाशित किए जाते थे. कैथी ना केवल पढ़े-लिखे संभ्रांत लोगों की लिपि थी बल्कि, कम पढ़े लिखे लोग भी अपनी बात साझा करने के लिए इसका उपयोग करते थे. आम जन भी इसी लिपि में अपनी शब्दों को कागज पर उतारते थे.
कैथी कैसे बनी आम जन की भाषा?
कैथी की लोकप्रियता का कारण इसका जन सुलभ होना माना जा सकता है. क्योंकि इस लिपि में अपने विचार लिखने में त्रुटी होने का भय बिल्कुल नहीं था. क्योंकि देवनागरी लिपि की तरह इसमें मात्रा, चंद्रबिंदु, हलंत और शब्द मिलाने और शीर्ष मिलाने जैसे नियम नहीं थे. बल्कि केवल शब्दों को चिन्हों के माध्यम से कागज़ पर लिखा जाता था. इसके अलावा अल्पविराम, पूर्णविराम और शब्दों के बीच दूरी रखने जैसे नीयम भी इसमें उपयोग नहीं किए जाते हैं. जिसके कारण इसे लिखने में कम समय लगता है और यही इसकी ख़ासियत भी थी.
प्रो. ध्रुव कुमार इस नियम को लेकर कहते हैं कि “कैथी का उद्भव पांचवी शताब्दी में हुआ था. उस समय कागज़ और कलम जैसी सुविधा नहीं थी. लोग ताम्रपत्र, कपड़े और पत्तों पर लिखा करते थे. बार-बार स्याही में कलम डुबाकर निकालना पड़ता था. शायद इसी कारण शीर्ष मिलाने और पूर्णविराम देने जैसे नियम नहीं रखे गये ताकि कम स्थान में ज़्यादा सूचनाएं लिखी जा सके.”
वर्तमान समय से उदहारण लिया जाये, तो यह लिपि एक तरह से 'शॉर्टहैंड' विधा थी. जिसमें कम समय और स्थान में संपूर्ण बातें लिखी जाती हैं. यहीं कारण था कि राज दरबारों में काम करने वाले लिपिक, अदालतों में कार्य करने वाले कर्मचारी जिन्हें तीव्र गति से काम करने होते थे, इस लिपि का प्रयोग दस्तावेज़ तैयार करने और हिसाब लिखने में करते थे.
दस्तावेज़ों के अलावा सांस्कृतिक महत्त्व भी
वाणिज्यिक दस्तावेज़, पत्राचार और व्यक्तिगत पत्र के अलावा में इस लिपि में साहित्यिक और धार्मिक लेख भी लिखे जाते थे. ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाएं अपनी क्षेत्रीय बोली के गीत जो शादी-विवाह, पूजा पाठ या अन्य मांगलिक कार्यों में गाए जाते थे, इसी लिपि में लिखकर रखती थीं. भोजपुरी के शेक्सपियर माने जाने वाले भिखारी ठाकुर भी अपनी रचनाएं कैथी लिपि में ही लिखते थे.
कैथी एक धरोहर नामक डॉक्यूमेंट्री में ध्रुव कुमार अपनी दादी द्वारा कैथी लिपि में लिखे गये लोकगीतों की चर्चा करते हुए बताते हैं “1992 में मेरी दादी की मृत्यु हुई थी वो 108 वर्ष की थी. उनकी मृत्यु के बाद हमें उनके बक्से से कुछ सामान मिले जिसमें एक डायरी भी थी. जो लगभग 125 वर्ष पुरानी थी. उसमें उन्होंने कैथी लिपि में वज्जिका क्षेत्र में गाए जाने वाले लोकगीत लिखे थे. उन गीतों को पढ़ने के लिए मैंने कैथी सीखना शुरू किया."
कैथी और हिंदी में श्रेष्ठता की जंग
कैथी लिपि हिंदी से पहले जनमानस और प्रशासन की लिपि बन चुकी थी. लोग इसी लिपि में लिखने पढ़ने के अभ्यस्त हो चुके थे. लेकिन हिंदी जानने और समझने वाले लोग इससे नाराज़ थें. उन्हें लगता था कि इससे उनका स्थान समाज और प्रशासन में उच्च पदों पर नहीं हो सकता है.
भैरभ दास कहते हैं “कैथी और हिंदी के बीच शुरू में जो झगड़ा था उसमें लोगों को यह समझ नहीं आ रहा था कि विरोध किस बात का है. क्योंकि कुछ अक्षरों को छोड़ दें तो हिंदी और कैथी के लगभग अक्षर एक समान थे. इसलिए लोगों को दोनों एक समान लगते थे. लेकिन बाद के दिनों में हिंदी में जटिलताएं बढ़ती गयी. लोगों ने उसे 'संस्कृत हिंदी' के रूप में बढ़ावा देना शुरू किया.”
भैरभ दास हिंदी के ऊपर जातीयता के प्रभाव की चर्चा करते हुए कहते हैं “बनारस के ब्राहमण समुदाय के लोग हिंदी को, ख़ास तौर से संस्कृत हिंदी को, एक विशिष्ट लिपि के रूप में पूरे भारत में रखने के लिए तत्पर थे. कैथी उनके लिए कम पढ़े-लिखे लोगों की लिपि थी उससे वो हिंदी को अलग करना चाहते थे.”
उस दौरान हिंदी को बढ़ावा देने में काशी स्थित देवनागरी प्रचारणी सभा ने अहम भूमिका निभाई थी. इसकी स्थापना बाबू श्यामसुंदर दास ने 1893 में किया था.
19वीं सदी के मध्य तक स्कूली शिक्षा में कैथी का प्रचलन बना रहा. वहीं धर्मशास्त्रों की शिक्षा नागरी लिपि में दी जाती रही. बाद के समयों में अभिजात वर्ग (elite class) में शामिल होने की चाह में हिंदी का प्रभाव बढ़ता गया और कैथी को लोगों ने भुला दिया.
सोशल मीडिया के युग में बड़ी हो रही आज की युवा पीढ़ी हिंदी, उर्दू, तमिल, मलयालम, कन्नड़ या किसी भी भाषा में अपनी भावनाएं लिखने के लिए रोमन लिपि का उपयोग कर रही है. सत्ता में बैठे अधिकारी भी किसी एक भाषा या लिपि को लोगों पर थोपने की साजिश करते रहते हैं जिससे एक काल के बाद अन्य भाषाओं और लिपियों का अंत हो जाता है.
क्या कैथी को बचाया जा सकता है?
कैथी को लुप्त होने से बचाया जा सकता है क्योंकि समाज में अभी भी इस लिपि के जानकार लोग हैं, जो इसे पढ़ना और लिखना जानते हैं. सरकार ऐसे लोगों को प्रशिक्षक के तौर पर नियुक्त कर नई पीढ़ी को शिक्षित कर सकती हैं. विद्यालय या विश्वविद्यालयों में इससे संबंधित कोर्स चलाए जा सकते हैं. इसके अलावा ऐतिहासिक पांडुलिपियों और पुस्तकों को संरक्षित कर उसपर शोध कार्य किये जा सकते हैं.
सरकारी प्रयासों से अलग पहले ही कुछ संस्थान और युवा इस लिपि को आधुनिक रूपों में सहेजने में लगे हैं. पटना स्थित निफ्ट संस्थान के कुछ कलाकार कैथी के अक्षरों का प्रयोग डिजाइन बनाने में किया हैं. इसके अलावा एस्थेटिक टेक्सटाइल प्रिंट्स, कैलेंडर कला और पेटिंग बनाने में भी कैथी का उपयोग किया जा रहा है.
कैथी को यूनिकोड में परिवर्तित किया जा चुका है जिसके कारण अब कैथी लिपि का उपयोग अलग-अलग कंप्यूटर एप्लीकेशंस द्वारा किया जा सकता है. कैथी के अलावा अन्य भारतीय लिपियों के संग्रहण और डिजिटलाइजेशन के लिए भी Linguistic Data Consortium for Indian Languages जैसे प्रयास कार्य कर रहे हैं.
यूनेस्को के अनुसार “जब एक लिपि विलुप्त होती है, तो उसके साथ-साथ एक पूरी संस्कृति विलुप्त हो जाती है, एक पूरा इतिहास विलुप्त हो जाता है.”