बिहार में भूमि सर्वेक्षण में तेज़ी लाने की कवायद एक बार फिर शुरू हो गयी है. तीन जुलाई को भूमि सर्वेक्षण के काम में तेजी लाने के लिए 9,888 लोगों कों कॉन्ट्रैक्ट पर बहाल किया गया है. नियुक्ति पत्र वितरण समारोह में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भूमि एवं राजस्व मंत्री डॉ दिलीप कुमार जायसवाल और अपर मुख्य सचिव की ओर देखते हुआ कि “मैं हाथ जोड़ता हूं, कहिए तो पैर भी छू लूं. लेकिन जमीन सर्वे का काम जुलाई 2025 से पहले पूरा कर लें.” मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस दौरान मंत्रियों और अधिकारियों से सर्वे का निरीक्षण करते रहने का भी आग्रह किया.
बिहार में भूमि सर्वेक्षण, बिहार विशेष सर्वेक्षण बंदोबस्त नियमावली 2012 के तहत किया जा रहा है. बिहार सरकार ने साल 2013 में पहली बार भूमि सर्वेक्षण कराए जाने की शुरुआत की थी. छह सालों तक यह प्रक्रिया काफ़ी धीमी गति से चली. इसी बीच 2019 में आए कोरोना महामारी ने इसकी रफ़्तार को और धीमा कर दिया.
बिहार सरकार ने दोबारा साल 2020 में सर्वेक्षण शुरू करवाने का फैसला लिया. इसके तहत पहले चरण में 20 जिलों के 896 गांवों में सर्वेक्षण का काम दिसम्बर 2023 तक पूरा किया जा चुका है. वहीं इन जिलों के बाकी बचे गांव और 18 जिलों के अंदर आने वाले गांव का सर्वेक्षण जनवरी 2024 से शुरू किया गया. इसे विधानसभा चुनाव से पहले पूरा किए जाने का लक्ष्य रखा गया है.
सर्वेक्षण की गति धीमी का सीधा असर आम जनता पर
धीमी गति से चल रहे सर्वेक्षण पर कोरोना महामारी के अलावा विभाग का तर्क रहा कि कर्मचारियों की कमी है. जिसके बाद साल 2023 में 10 हजार कर्मचारियों के लिए नियुक्ति निकाला गया जो जुलाई 2024 में भरा जा सका. हालांकि मानवबल की कमी के अलावा मौजूदा व्यवस्था की धीमी कार्यशैली भी इसकी ज़िम्मेदार हैं.
दरअसल, सर्वेक्षण के दौरान भूमि मालिक को अपने ज़मीन के कागज़ात समेत, दाखिल-खारिज रसीद, मालगुज़ारी रसीद, वंशावली जैसे- कई कागज़ात जमा करने होते हैं. इनमें से कोई कागज़ात नहीं होने पर भूमि पर उनका दावा खारिज किया जा सकता या उसे पेंडिंग में डाल दिया जाता है.
कागज़ नहीं होने की स्थिति में भूमि मालिकों को जल्द-से-जल्द सभी कागज़ात ब्लॉक या सर्किल ऑफिस से निकलवाने होते हैं. यहीं पर ‘समय और पैसे’ का खेल शुरू हो जाता है.
सुपौल जिले के गोठ बरुआरी पंचायत के कजरा गांव के रहने वाले कौशल कुमार सिंह सरकारी कार्यालयों की कार्यशैली से परेशान हैं. उनका कहना है कि “बिहार के लोग यह मान चुके हैं कि बिहार में ज़मीन से संबंधित काम बिना पैसा खर्च किए नहीं हो सकता है.”
कौशल कुमार के क्षेत्र में सर्वेक्षण शुरू नहीं हुआ है. लेकिन उन्हें पता हैं कि किन-किन कागज़ातों की ज़रूरत है. उनके परिवार ने हाल के दिनों में ही कुछ ज़मीन ख़रीदी है जिसके दाखिल-खारिज की रसीद, वो सर्वेक्षण शुरू होने से पहले ले लेना चाहते हैं.
कौशल बताते हैं "यहां हर कागज़ का रेट तय है, कर्मचारी खुलेआम कहते हैं जहां जाना है जाओ. हज़ार रुपया दो, नहीं दोगे काम नहीं होगा. परेशान लोग पैसा देने को मजबूर हो जाते हैं.”
भूमि सर्वेक्षण में लग रहे अधिक समय पर कौशले कहते हैं “सर्वे करने जो लोग आ रहे हैं. उनको पूरा डॉक्यूमेंट नहीं मिल पा रहा है. जिसके कारण वो उस जमीन वाद को पेंडिंग में डालकर आगे बढ़ जा रहे हैं. ऐसे में अंत में अगर 70 फ़ीसदी पेंडिंग कागज़ातों के साथ सर्वे पूरा कर दिया जाता है तो असल मायने में यह पेंडिग ही रहेगा.”
अधिकारी-कर्मचारी की सांठ-गांठ
भूमि संबंधित मामलों में बढ़ रहे भ्रष्टाचार और विवाद को देखते हुए भूमि सर्वेक्षण कराने की बात नीतीश कुमार करते रहे हैं. बिहार में खेती में उपयोग होने वाली जमीनों का पहला सर्वेक्षण बिहार काश्तकारी अधिनियम 1885 के तहत हुआ था, जिसे कैडस्ट्रल सर्वेक्षण कहा जाता है.
इसके बाद बिहार काश्तकारी अधिनियम 1885 में ही बदलाव कर बिहार सर्वे और सेटलमेंट मैनुअल 1959 बनाया गया. लेकिन इस अधिनियम में सर्वेक्षण प्रक्रिया जटिल होने के कारण ज़्यादातर हिस्सों में सर्वेक्षण नहीं हो पाया. जिसके बाद सीएम नीतीश कुमार के कार्यकाल में बिहार विशेष सर्वेक्षण बंदोबस्त नियमावली 2012 लाया गया. उद्देश्य रखा गया, सर्वेक्षण के बाद भूमि संबंधित झगड़ों का निपटारा होगा. लेकिन विभागीय अधिकारीयों और कर्मचारियों की कार्यशैली इस समस्या का समाधान निकालते नज़र नहीं आते हैं.
अधिकारी चाहें तो भूमि से संबंधित मामले समय पर निपटाए जा सकते हैं. लेकिन एक दिन में पूरा होने वाला काम, महीनों तक खींचा जाता है. जिसके कारण लोगों को बार-बार कार्यालय का चक्कर लगाना पड़ता है.
कागज़ात की कमी बता कर पैसे ऐंठने का काम
कजरा गांव के ही रहने वाले 58 वर्षीय भूपेंद्र कुमार सिंह भूमि सर्वेक्षण की खबर से परेशान हैं. भूपेंद्र सिंह को चिंता है कि कहीं किसी कागज़ात में कमी का हवाला देकर उन्हें परेशान ना किया जाए. भूपेंद्र कुमार कहते हैं “हमारे पंचायत में सर्वे शुरू नहीं हुआ. लेकिन आसपास के पंचायतों में चल रहा है. उनसे जानकारी मिलते रहता है कि कागज़ के नाम पर किसानों से खर्चा-पानी लिया जाता है. दूसरी बात कागज़ात जमा करने के लिए जो कैम्प लगाया जाता है वो या तो पंचायत से दूर या किसी दबंग व्यक्ति के घर पर बनाया जाता है. इससे भी लोगों को परेशानी होती है.”
सर्वेक्षण में जमा किये जाने वाले कागजों को प्राप्त करने में होने वाली परेशानी पर बात करते हुए भूपेंद्र कुमार कहते हैं “पहले के ज़माने में गांव में ज़मीन बदलैन (ज़मीन की अदला-बदली) आम बात थी. हमारे दादा-परदादा अपने गोतिया (आस पड़ोस के लोग) से मौखिक तौर पर ज़मीन बदल लेते थे. कुछ लोग हैं जिन्होंने सादे कागज़ पर करारनामा लिखकर अंगूठा लगाया हुआ है. लेकिन कई लोग यह भी नहीं किये हैं. ऐसे ज़मीन के कागज़ात अधिकारिक तौर पर उनके नाम पर नहीं है. ऐसे लोग अगर समय पर कागज़ जमा नहीं कर पाए तो डर है कि ऐसी जमीने सरकार की हो जाएगी.”
कोसी तटबंध के अंदर नियम का विरोध
सुपौल जिले में 556 गांव हैं जिनमें दिसम्बर 2023 तक मात्र 45 गांवों में सर्वेक्षण का काम पूरा हो सका है. यह कोसी नदी के किनारे बसा है.कुछ गांव तटबंध के भीतर हैं जबकि कुछ गांव बाहर. कोसी तटबंध के अंदर आने वाले किसान भूमि सर्वेक्षण के नियमों का विरोध करते आए हैं.
न्यूज़लॉड्री में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार अप्रैल 2021 में सुपौल के सहायक बंदोबस्त अधिकारी ने आरटीआई के जवाब में बताया था कि अगर वर्तमान समय में किसानों की ज़मीन के ऊपर नदी बह रही है तो वह ज़मीन राज्य सरकार की हो जाएगी. साथ ही कैडस्ट्रल सर्वे में जमीन का जो हिस्सा नदी में था, अगर वह अब जमीन मे बदल चुका है और किसान उस पर खेती कर रहे हैं. तो वह ज़मीन भी बिहार सरकार की होगी.
किसानों ने इन नियमों का विरोध किया था. और सरकार से मांग की थी कि कोसी नदी का चरित्र अलग है इसलिए तटबंध के अंदर सर्वेक्षण का नियम अलग होना चाहिए.