लोकसभा चुनाव 2024 समाप्त हो चुका है. लोकसभा चुनाव के नतीजों ( Loksabha Election Result) में NDA की बहुमत के बाद नरेंद्र मोदी ने लगातार तीसरी बार पीएम पद की सपथ लेकर पंडित नेहरु के रिकॉर्ड की बराबरी कर ली है. साथ ही पीएम मोदी 3.0 में सपथ लेने वाले मत्रियों की भी सूचि जारी हो चुकी हैं. अगर इस लिस्ट को थोड़े गौर से देखा जाएगा तो उससे हम, किस राज्य से कितने मंत्री बने, किस समुदाय जैसे धर्म, जाति और लिंग का पता कर सकते हैं.
मंत्री परिषद की सूचि जारी होते ही दो बिंदुओं पर सबसे ज्यादा चर्चा हुई जिसमें पहला था- चुनावी मैदान में महिलाओं की स्थिति. हालांकि इस मुद्दे पर टिकट वितरण और मतगणना के दौरान भी सवाल उठे थे? वहीं दूसरा मुद्दा मुस्लिम मंत्रियों को मंत्री परिषद में शामिल करने का रहा.
महिलाओं और अल्पसंख्यक समुदाय को संसद, मंत्री परिषद या चुनाव मैदान में टिकट देने की बात तो गाहे-बगाहे होती रहती हैं. लेकिन इन सबके बीच जिस मुद्दे की चर्चा ना के बराबर होती है वह है, ट्रांसजेंडर समुदाय (Transgender Community) का चुनावी प्रक्रिया में महत्व. समाज के आखिरी छोड़ पर खड़े इस समुदाय के वोट की चिंता न तो सरकार को हैं और ना ही विपक्ष में बैठे राजनीतिक पार्टियों को.
चुनाव आयोग के अनुसार 2024 के लोकसभा चुनाव में ट्रांसजेंडर मतदाताओं की संख्या 48,044 थी. शायद वोट प्रतिशत (Trangender Vote) कम होने के कारण राजनीतिक पार्टियां उनके लिए वादे और योजनाएं बनाने में उत्साह नहीं दिखाती हैं. और ना ही उनके समुदाय से आने वाले लोगों को चुनावी मैदान में टिकट देती हैं.
साल 2019 के लोकसभा चुनाव में 8,049 प्रत्याशी मैदान में थे जिनमें 7,320 पुरुष और 724 महिलाएं थीं. उस समय ट्रांसजेंडर समुदाय से 5 लोगों ने चुनाव लड़ा था. वहीं 543 सीटों पर हुए 2024 के लोकसभा चुनाव में 8,360 उम्मीदवार मैदान में खड़े थे, जिनमें महिला प्रत्याशियों की संख्या 797 थी.
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) के रिपोर्ट के अनुसार ट्रांसजेंडर समुदाय से मात्र तीन लोगों ने चुनाव में हिस्सा लिया. वह भी किसी राजनीतिक पार्टी के चुनावी चिन्ह पर नहीं बल्कि निर्दलीय.
47 वर्ष बाद मिला वोट देने का अधिकार
15 अगस्त 2024 को आजादी के 77 वर्ष पुरे हो जायेंगे. लेकिन आज भी महिला, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और ट्रांसजेंडर समुदाय शिक्षा और समानता के अधिकार से वंचित हैं. वहीं ट्रांसजेंडर के मामले में यह समस्या और विकत हो जाती है. आजादी के 47 वर्ष बाद साल 1994 में किन्नरों को पहली बार मतदान देने का अधिकार चुनाव आयोग ने दिया था. इस अधिकार के छह साल बाद साल 2000 में शहडोल (मध्यप्रदेश) के सोहागपुर से पहली किन्नर (Transgender Candidate) शबनम मौसी विधायक बनी थी. शबनम ने कांग्रेस और बीजेपी के प्रत्याशियों को हराकर यह जीत हासिल की थी.
हालांकि इसके बाद अबतक किसी किन्नर को विधनासभा जाने का मौका नहीं मिला है. वहीं मतदान का अधिकार मिलने के बाद भी किन्नरों को मतदान पत्र बनवाने और अपने मताधिकार का प्रयोग करने में भी समस्याएं कम नहीं हुईं हैं.
चुनाव आयोग ने साल 2009 में पहली बार वोटर कार्ड में तीसरे लिंग के कॉलम को जगह दी थी. वहीं साल 2014 में नालसा अधिनियम के तहत सुप्रीम कोर्ट ने तीसरे लिंग को मान्यता दी थी. साथ ही इसपर टिप्पणी करते हुए न्यायमूर्ति के.एस. राधाकृष्णन ने कहा था “ट्रांसजेंडरों को तीसरे लिंग के रूप में मान्यता देना, सामाजिक या चिकित्सीय मुद्दा नहीं है, बल्कि मानवाधिकार का मुद्दा है.”
साल 2019 में ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम पारित किया गया. जिसके तहत शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, पहचान और माता-पिता की संपत्ति में उन्हें बराबरी का अधिकार संवैधानिक अधिकार दिया गया.
लेकिन कानूनी अधिकार से इतर जमीनी स्तर पर समुदाय की समस्याएं आज भी कम नहीं हुई हैं. चुनाव में मतदान करने की समस्या के साथ ही किन्नर समुदाय चुनाव में बतौर प्रत्याशी चुनाव में भागीदारी करने में भी काफी पीछे हैं. इसका प्रत्यक्ष उदहारण हाल में समाप्त हुआ लोकसभा चुनाव है.
कौन थे ये उम्मीदवार
2024 के चुनाव में तीन ट्रांसजेंडर प्रत्याशियों ने दिल्ली, दमोह (MP) और झारखंड से अपनी उम्मीदवारी पेश की थी. वाराणसी लोकसभा सीट से किन्नर महामंडलेश्वर हिमांगी सखी ने चुनाव लड़ने की घोषणा की थी. लेकिन इनमें से किसी को भी सफलता नहीं मिली.
दक्षिण दिल्ली से लोकसभा चुनाव लड़ने वाले राजन कुमार खुद को ट्रांसवीमेन बताते हैं. राजन कुमार ने दक्षिण दिल्ली से अपनी उम्मीदवारी पेश की थी. जहां इन्हें मात्र 325 वोट मिले. लेकिन इसके बाद भी राजन कुमार उत्साहित हैं. मीडिया में दिए बयान में उन्होने कहा था- उनके क्षेत्र में केवल 22 ट्रांसजेंडर मतदाता हैं. ऐसे में 300 से ज्यादा वोट मिलना बताता है कि जनता उनके नेतृत्व को स्वीकार कर रही है.
मध्यप्रदेश के दमोह से चुनाव लड़ने वाली दुर्गा मौसी को 1,124 मत मिलें.
वही झारखंड के धनबाद से चुनाव लड़ने वाली सुनैना किन्नर को 3,462 वोट मिलें. जियोलॉजी से ग्रेजुएट सुनैना किन्नर ने बीबीसी को बताया था कि नामांकन दाखिल करने के बाद से ही उन्हें लगातार धमकियां मिल रही थी. उनका कहना था कि धमकी देने वाले कह रहे थे “आप मांगने खाने वाली हो, आशीर्वाद देने वाली हो इसलिए वही काम करों."
ऐसे में यह प्रश्न उठता है जब संविधान और सरकार तीसरे लिंग को मान्यता देते हुए उन्हें शिक्षा, रोजगार, न्याय और सम्मानित जीवन जीने का कानूनी अधिकार देती है, तो समाज को प्रतिनिधित्व देते समय उनकी उम्मीदवारी पर प्रश्न कैसे उठायें जा सकते हैं?
ट्रांसजेंडर समुदाय की राजनीतिक भागीदारी बढ़ाये जाने और महिलाओं, अल्पसंख्यकों और एससी-एसटी समुदायों की भांति चुनाव में उनके लिए सीटें आरक्षित किये जाने के सवाल पर गरिमा गृह की संचालिका रेशमा प्रसाद कहती हैं “इस तरह की मांग करना शायद अभी जल्दबाजी होगी. क्योंकि जब आप समुदाय के शैक्षणिक पृष्ठभूमि को देखेंगे तो वह आज भी काफी पीछे हैं. मेरा मानना है पॉलिसी मेकर को इतनी समझ होनी चाहिए जिससे वह अपने समुदाय के भले के लिए पॉलिसी बना सके. यह केवल मैं कम्युनिटी के लिए नहीं बल्कि माइनॉरिटी, SC-ST और महिलाओं के लिए भी कह रहीं हूं.”
रेशमा आगे कहतीं हैं “अभी महिला आरक्षित सीटों पर जीती महिलाओं के पद का उपयोग कौन करता हैं. इनके लिए कुछ संबोधन काफी प्रचलन में हैं, जैसे- मुखियापति, पार्षद-पति. ऐसे में मेरा कहना हैं सीटें आरक्षित किये जाने की मांग करने से पहले, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के लिए जो संवैधानिक अधिकार दिए गए हैं उनका पालन किया जाये. समुदाय के बच्चे और युवा शिक्षित बनें.”