केंद्र और राज्य में सरकार बनती बिगड़ती हैं. भावी सरकार अपने चुनावी भाषण में रोजगार और शिक्षा को बड़ा मुद्दा बनाती है, खासकर बिहार जैसे विकासशील और पिछड़े राज्य में. बिहार में अशिक्षा, रोजगार ना मिलने का एक बहुत बड़ा कारक रही है. राज्य में शिक्षा के स्तर को सुधारने के लिए मुख्यमंत्री ने शिक्षा विभाग के अपर मुख्य सचिव को ठीकरा थमा दिया है और खुद आने वाले दिनों के चुनाव के लिए वादों को दोहराने की तैयारी में लग गए.
बिहार बजट 2023-24 में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 40,450 करोड़ रुपए शिक्षा पर खर्च करने के लिए रखे थे. 2022-23 में बिहार का शिक्षा बजट 39,191 करोड़ रुपए था. मुख्यमंत्री के सात निश्चय योजना में से एक प्रमुख योजना राज्य में शिक्षा के स्तर को सुधारना भी है. केंद्र सरकार का दावा है कि देश में शिक्षा व्यवस्था अब सुधरती हुई दिख रही है, लेकिन एक सर्वे के अनुसार जो पहले से पढ़े-लिखे यानि हायर लिटरेसी वाले राज्य थे उनमें और लिटरेसी बढ़ रही है. वहीं जो कम पढ़े-लिखे राज्य हैं उनमें लिटरेसी रेट काफी धीमे बढ़ता हुआ देखा जा रहा है. इन स्लो लिटरेसी रेट वाले राज्यों में बिहार भी शामिल है.
साक्षरता दर में पिछड़ता बिहार
बीते साल 13 मार्च को लोकसभा में देश के लिटरेसी पर पूछे गए सवाल के जवाब में केंद्रीय शिक्षा राज्य मंत्री अन्नपूर्णा देवी ने आंकड़ों को पेश किया. आंकड़ों के अनुसार सबसे कम लिटरेसी रेट वाले टॉप तीन राज्यों में बिहार सबसे पहले आता है. बिहार में 61.8% सबसे कम साक्षरता दर है. बिहार के बाद 65.3% साक्षरता दर के साथ अरुणाचल प्रदेश भारत में दूसरे नंबर पर है और 66.1% साक्षरता दर के साथ राजस्थान तीसरे नंबर पर आता है.
बात करें सबसे अधिक साक्षरता दर वाले राज्य की तो केरल 94% साक्षरता के साथ सबसे शीर्ष पर है. पेश किए गए आंकड़ों के अनुसार ग्रामीण भारत में साक्षरता दर 67.77% है और शहरी भारत में साक्षरता दर 84.11% है.
बिहार के समस्तीपुर जिले में विकास के तमाम जुमले धरे के धरे रह जाते है. समस्तीपुर के मोरवां और ताजपुर प्रखंड में ना तो लोगों के पास रोजगार है और ना ही शिक्षा. शिक्षा का मंदिर भी इस प्रखंड में बच्चों से 3-4 किलोमीटर दूर है कि वह चाहते हुए भी उतनी दूर पढने नहीं जा पाते हैं. इन प्रखंडो में कई ऐसे बच्चे हैं जो स्कूल दूर रहने के कारण स्कूल नहीं जाते हैं.
आज भी स्कूल में दलितों के साथ जातिगत भेदभाव
समस्तीपुर के इन प्रखंडों में सामजिक असुरक्षा है. स्कूल ना जाने वाले ज्यादातर बच्चे महादलित परिवार से आते हैं. इन परिवारों से स्कूल जाने वाले कुछ बच्चों में यह डर रहता है कि उन्हें रास्ते में ऊंची जाति के लोग या असामाजिक तत्वों के ताने सुनने मिलेंगे. मोरवा प्रखंड के रजका रामपुर गांव के मितिश कुमार की उम्र 12 साल है. मितिश की आंखों में आईएएस बनने का सपना है. लेकिन मितिश सामाजिक दांचे की वजह से स्कूल नहीं जा पाता.
बिहार दलित विकास अभियान समिति के निदेशक सह सामाजिक कार्यकर्ता धर्मेन्द्र कुमार बताते है कि "यहां के स्कूलों में अगर शिक्षक पहुंच भी जाएं तो भी शिक्षा बच्चों तक नहीं पहुंच पाएगी. ऐसा इसलिए क्योंकि गांव में कई लोग अपने बेटों को आजीविका का सहारा मानते हैं और बेटियों को स्कूल भेजने में असुरक्षित महसूस करते हैं."
स्कूल दूर होने की वजह से ड्राप आउट रेट बढ़ा
14 साल के सहनोज कुमार मोरवा प्रखंड में अपने दिव्यांग पिता के साथ रहते हैं स्कूल उनके घर से 2 किलोमीटर दूर है. सहनोज पहले स्कूल जाया करते थे. लेकिन उनके साथ थे स्कूल में भेदभाव हुआ, जिससे उन्होंने स्कूल जाना बंद कर दिया.
2 अक्टूबर 2023 को बिहार में जारी हुए जातीय सर्वेक्षण की रिपोर्ट के अनुसार राज्य के लगभग 33% लोग कभी स्कूल नहीं गए हैं. वहीं 22.67% लोगों ने कक्षा 1 से 5वीं तक ही शिक्षा हासिल की है. जातीय सर्वेक्षण की रिपोर्ट बताती है, राज्य के 67.90% लोगों ने ही स्कूली शिक्षा प्राप्त की है. वहीं स्कूली शिक्षा से आगे ग्रेजुएशन तक की पढ़ाई करने वाले लोगों की संख्या मात्र 7% है.
आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट बताती है कि राज्य की लगभग 66% आबादी महीने में मात्र छह हजार रूपए ही कमा पाती है. छह से 10 हजार रूपए कमाने वाले परिवारों की संख्या 29.61% है. यह आबादी शहरों और गांवों दोनों को जोड़कर पेश की गई थी.
दलित विकास अभियान के धर्मेन्द्र बताते हैं,"आंगनबाड़ी केन्द्रों की यह सुविधा अभी के समय में समस्तीपुर के प्रखंडों में खत्म होने की कगार पर पहुंच गई है. यहां के प्रखंडों में महादलित परिवारों को सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक रूप से बहिष्कृत किया गया है. कई लोगों के पास अपनी जमीन नहीं है. गांव में जमींदारों का बड़ा दबदबा रहा है, जिसकी वजह से गांव के महादलित परिवार अपनी बातों को रखने से भी हिचकते हैं."
दलितों को आंगनबाड़ी केंद्र में आने से रोकते हैं सामंती
इलाके में प्राथमिक और उत्त्क्रमित माध्यमिक स्कूल गांव से काफी दूर सामंतवादियों के इलाके में बनाए/बसाए गए है, जिसके कारण दलित लोगों के बच्चे उस इलाके में जाने से बचते है. मोरवा प्रखंड में राय टोली, बनुआ, मोरवा गछनी, चिनौली जैसे गांवों में कई टोलो में आज भी आंगनबाड़ी केंद्र नहीं बनाए गए हैं. जिन कुछ गिने-चुने घरों में आंगनबाड़ी दिखते है वह बस दिखावे के है. इन केन्द्रों को सामंतवादी परिवारों के घरों में बनाया गया है, जिसमें दलितों को आने की अनुमति नहीं है.
8 नवंबर 2001 को सुप्रीम कोर्ट की एक आदेश के अनुसार देश के प्रत्येक बस्ती में आंगनबाड़ी केंद्र को स्थापित करने के लिए कहा गया था. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के आदेश को दरकिनार कर आज भी देश की आधी से अधिक बस्तियों में आंगनबाड़ी केंद्र मौजूद नहीं है और जहां बनाए गए हैं वहां भी बस खानापूर्ति की जाती है.
माहवारी के दौरान लड़कियों की छूटी पढ़ाई
आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में लड़कियों को स्कूल जाने से रोका जाता है, कई बार इसकी वजह माहवारी रही है. गांव के लोग सोचते है कि माहवारी आना लड़कियों के शादी कराने की उम्र की एक पहचान है. अभी के समय में लड़कियों के माहवारी आने की उम्र 12 से 14 साल तक है, जिसका मतलब लड़कियों को नाबालिग उम्र में स्कूल छोड़वा कर माहवारी आने के बाद शादी करा दी जाती है.
राजका रामपुर गांव की बबीता देवी चौथी क्लास तक पढ़ी हैं. बबीता बताती है कि उन्हें आगे पढ़ने का मन भी था. लेकिन उनकी शादी हो जाने के कारण यह मौका नही मिल पाया. इसी गांव की खुशबू पहले स्कूल जाती थी. लेकिन स्कूल में माहवारी शुरू होने के बाद उन्हें स्कूल से दूर घर आने में परेशानी होने लगी. माहवारी और स्कूल की दूरी के कारण उनके परिवार ने खुशबू को स्कूल जाने से मना कर दिया.
9 सितंबर 2023 को टाइम्स आफ इंडिया में छपी रिपोर्ट के अनुसार भारत की 97,070 लड़कियों पर शोध किया गया जिसमें यह पाया गया की 10 से 19 साल तक की एक चौथाई लड़की महावारी के दौरान स्कूल नहीं जाती है. स्कूल न जाने का कारण लड़कियों में कई बार दर को भी देखा गया है स्कूल जाने वाली लड़कियों को यह डर रहता है कि उनकी यूनिफॉर्म में धब्बे ना लग जाए.
स्कूल में अच्छे और साफ शौचालय की व्यवस्था भी नहीं होती. गांव के स्कूलों में खासकर शौचालय, पानी और सेनेटरी नैपकिन की समस्या देखी गई है. जिसकी वजह से लड़कियों को माहवारी के दौरान या फिर माहवारी शुरू होने के बाद स्कूल जाना छोड़ देती हैं.
जन जागरण शक्ति संगठन की तरफ से कराए गए सर्वे में बिहार के मात्र दो जिलों में कराए गए सर्वे के अनुसार केवल 8% प्राथमिक विद्यालयों में अच्छी जलापूर्ति मौजूद थी. एक समय पर जो बिहार में नालंदा विश्वविद्यालय और विक्रमशिला विश्वविद्यालय जैसे बड़े शिक्षण संस्थान हुआ करते थे. राज्य में पढ़ने के लिए देश-विदेश से बच्चे पढ़ने के लिए आया करते थे, उस बिहार की इस स्थिति के लिए आखिर अब ज़िम्मेदारी कौन लेगा, केंद्र, राज्य या समाज?