शोध गंगा पोर्टल होने के बावजूद, पीएचडी थीसिस अपलोड करने में पिछड़ रहा है बिहार

सेंट्रल यूनिवर्सिटी की मांग करने वाले पटना यूनिवर्सिटी शोधगंगा पोर्टल पर मात्र 304 थीसिस अपलोड किये गये हैं. बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर बिहार विश्वविद्यालय, 9,675 और ललित नारायण मिथिला यूनिवर्सिटी, दरभंगा ने 6,857 थीसिस अपलोड किए गए हैं. 

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PATNA UNIVERSITY

पटना विश्वविद्यालय : पीएचडी थीसिस अपलोड

शोध के क्षेत्र में नकल रोकने के लिए यूजीसी ने डिजिटल प्लेटफार्म ‘शोधगंगा’ बनाया है. इस डिजिटल प्लेटफार्म पर सभी विश्वविद्यालयों को अपने यहां जमा होने वाले शोधपत्र अपलोड करने है.

शोधार्थियों द्वारा जमा किये जाने वाले थीसिस और शोध प्रबंध की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए साल 2016 में यूजीसी ने विश्वविद्यालयों को ऑनलाइन थीसिस अपलोड करने का नियम बनाया है. यूजीसी गाइडलाइन के अनुसार यूनिवर्सिटी में शोधकर्ताओं को थीसिस और शोध प्रबंध को हार्डकॉपी के साथ-साथ इलेक्ट्रॉनिक या ऑनलाइन रूप में जमा करना अनिवार्य कर दिया है. इससे शोध (थीसिस) के दोहराव, नकल या अनदेखे कारकों के कारण मिलने वाले खराब परिणाम की गंभीर समस्या पर काबू पाया जा सकता है. इसके साथ ही, इससे देश के आलावा अन्य देशों के शैक्षणिक समुदाय के लिए भारतीय थीसिस और शोध प्रबंधों को पढ़ना आसान हो जाता है.

यूजीसी ने इसकी जिम्मेदारी INFLIBNET केंद्र को सौंपी है. INFLIBNET ने सुलभ भारतीय इलेक्ट्रॉनिक थीसिस एवं शोध प्रबंध (Shodhganga) नामक प्लेटफार्म बनाया है.

बिहार के लगभग 18 हज़ार थीसिस ऑनलाइन उपलब्ध

शोधगंगा पोर्टल (Shodh Ganga portal) पर अबतक देश के 739 यूनिवर्सिटियों द्वारा 4.98 लाख थीसिस अपलोड किये गये है. जिसमें बिहार के विश्वविद्यालयों द्वारा मात्र 18 हजार थीसिस ही अपलोड हुए हैं. जबकि बिहार के 34 विश्वविद्यालयों द्वारा ‘शोधगंगा’ पोर्टल के साथ एमओयू (MoU) साइन किया गया है.

34 विश्वविद्यालयों में से कुछ गिने-चुने विश्वविद्यालय ही पोर्टल पर थीसिस अपलोड कर रहे हैं. सेंट्रल यूनिवर्सिटी की मांग करने वाले पटना यूनिवर्सिटी ने साल 2018 में शोधगंगा प्लेटफार्म पर रजिस्ट्रेशन किया था. अबतक पटना विश्वविद्यालय(patna university) द्वारा शोधगंगा पोर्टल पर मात्र 304 थीसिस ही अपलोड किये गये हैं.

वहीं मगध यूनिवर्सिटी से 15, बिहार कृषि विश्वविद्यालय से 89, बीएनएमयू मधेपुरा से 5, केएसडीएसयू दरभंगा से 3, जेपीयू छपरा से 3, वीकेएसयू आरा से 1 और टीएमबीयू से 266 थीसिस अपलोड हुए हैं. हालांकि शोधगंगा पर थीसिस अपलोड करने वाले टॉप 10 यूनिवर्सिटी में बिहार ने भी अपना जगह बनाया है. बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर बिहार विश्वविद्यालय, 9,675 थीसिस के साथ इस सूचि में सातवें स्थान पर हैं. इसके अलावा ललित नारायण मिथिला यूनिवर्सिटी, दरभंगा ने 6,857 पीएचडी थीसिस(PhD thesis) अपलोड किए गए हैं. 

वर्ष 2022 में शोधगंगा पर अपलोड हुए थीसिस के आकड़े

बिहार की रहने वाली शीमा फातिमा नरसी मोनजी स्कूल ऑफ़ आर्किटेक्चर, मुंबई में प्रोफेसर हैं. उन्होंने 'शहरी पटना' के ऊपर अपनी थीसिस पूरी की है. बिहार के विश्वविद्यालयों के थीसिस अपलोड करने में पीछे रहने के कारणों पर शीमा फातिमा कहती हैं “इसके कई कारण हो सकते है लेकिन सबसे मुख्य कारण नकल पकड़े जाने का डर है. बहुत बार नियमों का पालन नहीं करने वाले लोगों को भी डिग्री मिल जाती है. लेकिन जैसे ही थीसिस ऑनलाइन अपलोड होगा तो यह पब्लिक डोमेन में आ जाता है. मैं मुंबई में बैठकर भी पढ़ सकती हूं की पटना यूनिवर्सिटी में कैसा शोध हो रहा है. ऐसे में बहुत संभावना है कि अगर आपके थीसिस की क्वालिटी खराब है, आपने कॉपी- पेस्ट (नकल ) किया है या आपने प्रोटोकॉल (नियमों) का पालन नहीं किया है तो इसपर सवाल खड़े हो जाए.”

वहीं गाइड शिक्षकों में शैक्षणिक गिरावट के कारण शोध पर पड़ने वले प्रभाव शीमा फातिमा कहती हैं, “अच्छा थीसिस कराने के लिए गाइड को इस लायक होना चाहिए कि वो स्टूडेंट को बता सके कि आप ये किताबें पढ़ों और ये किताबे वो नहीं होंगी जो मैंने अपने पीएचडी के वक्त पढ़ीं थी. जब कोई बच्चा थीसिस जमा करता है तो उसपर सुपरवाइजर के साइन होते है जो इसकी जिम्मेवारी लेता है कि इस बच्चे ने मेरे गाइडडेंस (निर्देशन) में थीसिस पूरा किया है. ऐसे में अगर थीसिस की क्वालिटी अच्छी नहीं होगी तो गाइड पर भी सवाल उठेंगे. इससे बचने के लिए भी यूनिवर्सिटी थीसिस ऑनलाइन अपलोड नहीं करती है.”

हालांकि पटना यूनिवर्सिटी में जियोग्राफी के गेस्ट टीचर मनीष कुमार नकल की बात से इंकार करते हुए कहते हैं “जहां तक नकल की बात है तो इसकी जांच थीसिस जमा करने से पहले ही हो जाता है. यूजीसी के गाइडलाइन के अनुसार 10% तक प्लैगरिज्म (नकल) की अनुमति है. थीसिस अपलोड करने में पिछड़ने का मुख्य कारण संसाधनों की कमी है. दरअसल, विश्वविद्यालयों में एडमिनिस्ट्रेशन की कमी है जिसपर ध्यान देने की जरुरत है.” 

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पीएचडी की गुणवत्ता में गिरावट 

राज्य में शिक्षा की गुणवत्ता का गिरता स्तर पीएचडी में भी नज़र आता है. विश्वविद्यालयों में शिक्षकों और संसाधनों की कमी के कारण राज्य में शोधार्थियों की संख्या कम होती जा रही है. वहीं छात्र इसका दूसरा कारण शोध में लगने वाले समय और लागत को भी मानते हैं.

खगड़िया के रहने वाले कर्मवीर कुमार ने, इस साल जय प्रकाश नारायण यूनिवर्सिटी, छपरा में पीएचडी में नामांकन लिया है. पीएचडी करने के दौरान होने वाले ख़र्च पर बात करते हुए कर्मवीर बताते हैं “पीएचडी करने के दौरान 1 लाख से ज़्यादा ख़र्च आता है. जिस छात्र नें यूजीसी द्वारा आयोजीत नेट जेआरएफ की परीक्षा पास कर पीएचडी में नामांकन लिया है उसे तो कोई परेशानी नहीं होती है क्योंकि उन्हें स्कॉलरशिप मिलता है. लेकिन विश्वविद्यालयों द्वारा आयोजित पीएचडी प्रवेश परीक्षा पास कर नामांकन लेने वाले छात्रों को कोई स्कॉलरशिप नहीं मिलता है. हालांकि बिहार सरकार ने कुछ समय पहले नेट पास कर पीएचडी में नामांकन लेने वाले छात्र को तीन साल तक 10 हजार रूपए देने का नियम बनाया है लेकिन अबतक इसका फ़ायदा छात्रों को नहीं मिला है.” 

आगे कर्मवीर गाइड टीचर द्वारा छात्रों से भेदभाव करने के मुद्दे को उठाते हैं और कहते हैं, “पीएचडी कितने समय में पूरा होगा इसका एक पहलु गाइड पर भी निर्भर करता है. गाइड कई बार रिसर्च अप्रूव करने या साइन करने के लिए छात्रों को परेशान करते हैं.” 

पीएचडी में छात्रों की कम होती संख्या का एक कारण नौकरी की कम होती संभावनाओं को भी दिया जा सकता है. मुकेश कुमार कहते हैं  “पीएचडी करने वाले छात्रों की संख्या में गिरावट का कारण नौकरी की कम होती संभावना है. प्रोफेसर के पद पर वैकेंसी ना के बराबर आती हैं. इसलिए कई बार पीएचडी करने के दौरान नौकरी लग जाने पर छात्र पीएचडी छोड़ देते हैं. क्योंकि पीएचडी करने के बाद नौकरी मिलेगी, इसकी कोई गारंटी नहीं है.”

यूनिवर्सिटी की छवि हुई धूमिल 

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उच्च शिक्षा में रिसर्च या शोध बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखता है. शोध के स्तर और उसके नतीजों से ही किसी भी विश्वविद्यालय की पहचान बनती है. लेकिन बिहार में स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक की शिक्षा में व्याप्त अराजकता उत्कृष्ट शोध को बढ़ावा नहीं देता है. गुणवत्ता विहीन शोध का प्रभाव विश्वविद्यालयों पर पड़ता है. कभी शिक्षा और ज्ञान-विज्ञान का केंद्र रहा बिहार आज शोध में पिछड़ गया है.

शोध के गिरते स्तर का यूनिवर्सिटी के शाख पर पड़ने वाले प्रभाव पर बात करते हुए प्रोफेसर शीमा फातिमा कहती हैं, “रिसर्च किसी भी समाज का आईना है. हम क्या नया सोच रहे हैं, यह हमारे रिसर्च से ही पता चलता है. यही बात यूनिवर्सिटी पर भी लागू होती है. समय और टेक्नोलॉजी अपग्रेड के साथ यूनिवर्सिटी के रिसर्च डिपार्टमेंट के कोर्स, रिसर्च लैब, रिसर्च टेकनिक और रिसर्च अप्रोच में कितना बदलाव आया है इसपर यूनिवर्सिटी की रेप्युटेशन (शाख) निर्भर करती है.” 

जब यूनिवर्सिटी 70-80 के दशक की सूचना पर आधारित थीसिस पेपर पब्लिक डोमेन में डालेंगे तो उसपर सवाल उठेंगे. स्टूडेंट एक बार जरुर सोचेगा कि मैं ऐसे जगह पढ़ने क्यों जाऊं जहां, सिलेबस और लैब अपग्रेड नहीं है. जहां गाइड इस लायक नहीं है जो उन्हें नई चीजें बता सके.

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