कागजों तक सिमटा 'शिक्षा का अधिकार' कानून, सुविधाविहीन स्कूलों में पढ़ने को मजबूर बच्चे

सोशल जूरिस्ट टीम के सदस्यों ने पूर्वी व पश्चिमी चंपारण के 27 स्कूलों का सर्वे किया. सर्वे के दौरान उन्होंने पाया कि यहां बच्चे छोटे और खतरनाक भवनों में बैठकर पढ़ाई कर रहे हैं.

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पल्लवी कुमारी
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'शिक्षा का अधिकार' कानून

कागजों तक सिमटा 'शिक्षा का अधिकार' कानून

बिहार में सरकारी स्कूलों की स्थिति, कितनी बदहाल है इसे बताने की जरुरत नहीं है. आप राजधानी पटना के ही यारपुर, योगीपुर और कंकड़बाग के क्षेत्रों में स्थित सरकारी स्कूलों में व्यापत शिक्षकों की कमी, बच्चों के अनुपात में कम कमरे, गंदे शौचालय और पीने के साफ पानी की कमी प्रत्यक्ष रूप से देख सकते हैं. वहीं अगस्त 2023, को जन जागरण शक्ति संगठन द्वारा जारी सिमांचल के दो क्षेत्रों कटिहार और अररिया जिले के 11 प्रखंडों में स्थित 81 स्कूलों का सर्वे किया था. इस सर्वे रिपोर्ट को “बच्चे कहां है” नाम से जारी किया गया था.

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सर्वे रिपोर्ट में स्कूल की बदहाल स्थिति को उजागर करते हुए नामांकन के अपेक्षा बच्चों की कम उपस्थिति को भी जाहिर किया था. सर्वे में शामिल प्राथमिक, उच्च प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों में बुनियादी सुविधाओं की काफी कमी है. यहां भवन, शौचालय, बेंच-डेस्क, इलेक्ट्रिसिटी, खेल के मैदान, लाइब्रेरी की व्यवस्था मौजूद नहीं थी. रिपोर्ट से यह पता चला कि सर्वे में शामिल 90 फीसदी स्कूलों में खेल के मैदान, लाइब्रेरी और चाहरदीवारी मौजूद नहीं है. सर्वे में शामिल प्राथमिक स्कूलों में बच्चों की उपस्थिति मात्र 23% जबकि उच्च प्राथमिक विद्यालयों में यह आंकड़ा 20% ही था.

कटिहार और अररिया की तरह ही पूर्वी व पश्चिमी चंपारण के स्कूलों में व्याप्त असुविधाओं को दूर नहीं किए जाने के कारण  राज्य सरकार के खिलाफ साल 2022 में जनहित याचिका(PIL) दाखिल किया था. PIL दाखिल करने वाली कमिटी ने दोनों जिलों के 27 स्कूलों का निरीक्षण साल 2022 में किया था. जिसमें 22 स्कूल पूर्वी चंपारण और पांच स्कूल पश्चिमी चंपारण के थे. निरीक्षण करने वाली टीम में दिल्ली हाईकोर्ट के वकील अशोक अग्रवाल और सामाजिक कार्यकर्त्ता मोहन पासवान और उनकी टीम शामिल थी.

स्कूलों में नहीं है बुनियादी सुविधा

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शिक्षा का अधिकार कानून के तहत 6 से 14 साल के बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा दिए जाने का प्रावधान किया गया है. साथ ही इसके तहत सभी स्कूलों में बच्चों को सीखने के लिए प्रभावकारी वातावरण बनाने का भी नियम बनाया गया है. जिसके लिए सबसे पहले बुनियादी ढांचें का होना आवश्यक है. इस तरह से स्कूल में लड़कों और लड़कियों के लिए अलग-अलग शौचालय, पीने के लिए स्वच्छ पानी, स्कूल कैंपस में स्वच्छता जैसे मुद्दों पर पर्याप्त ध्यान के जरिए पूरे स्कूल के वातावरण को बच्चों के विकास के लिए सहायक बनाने को सुनिश्चित करना है.

मीड डे मील खाते बच्चे

साथ ही प्राथमिक स्तर पर प्रत्येक 60 बच्चों पर दो प्रशिक्षित शिक्षक उपलब्ध होने आवशयक है. शिक्षकों की संख्या बच्चों की संख्या के आधार पर होनी चाहिए ना कि ग्रेड के आधार पर. साथ ही शिक्षक नियमों जैसे- शिक्षकों को नियमित और सही समय पर स्कूल आना, पाठ्यक्रम के निर्देशों को पूरा करना, बच्चों में नवीन क्रियाओं एवं नवीन विचारों को उत्पन्न करने जैसे प्रयास आदि का पालन होना भी आवश्यक है. 

जनहित याचिका दाखिल करने से पहले अशोक अग्रवाल और मोहन पासवान ने पूर्वी व पश्चिमी चंपारण के स्कूलों का सर्वे किया. सर्वे के दौरान उन्होंने पाया कि यहां बच्चे छोटे और खतरनाक भवनों में बैठकर पढ़ाई कर रहे हैं. वहां शिक्षकों समेत शौचालय, बेंच-डेस्क, इलेक्ट्रिसिटी, खेल के मैदान और लाइब्रेरी की भारी कमी है. वहीं मीड डे मील के तहत दिया जाने वाला भोजन बच्चों को काफी अशोभनीय और अस्वच्छ ढ़ंग से दिया जा रहा है.

पूर्वी चंपारण के पकड़ीदयाल ब्लॉक के पूर्वी अजगरवा में स्थित उत्क्रमित मध्य विद्यालय में 300 बच्चे नामांकित हैं. इन बच्चों को पढ़ाने  के लिया यहां केवल तीन शिक्षक मौजूद हैं. सर्वे के दौरान टीम ने पाया कि छात्रों को बैठने के लिए यहां केवल एक कमरा मौजूद जिसमें बेंच-डेस्क मौजूद नहीं हैं. बच्चे बाहर मैदान में अपने घर से लाए हुए बोरियों पर बैठते हैं. स्कूल में चाहरदीवारी भी मौजूद नहीं है. वहीं भवन के नजदीक तालाब मौजूद होने के कारण, किसी तरह की घटना होने की संभावना बनी रहती है. टीम ने यह भी पाया कि यहां ना तो पीने का साफ पानी मौजूद हैं और ना ही शौचालय में पानी की व्यवस्था मौजूद है.

मुजफ्फरपुर के हरदी प्राथमिक विद्यालय में चाहरदीवारी नहीं होने के कारण चौथी कक्षा में पढ़ने वाली सुरभी को बाइकसवार ने धक्का मार दिया था. लंच के समय जब बच्चे स्कूल में खेल रहे थे तभी स्कूल से लगी सड़क से जाते हुए एक बाइकसवार ने सुरभी को धक्का मार दिया. इस हादसे के बाद स्कूल प्रिंसिपल ने शिक्षा विभाग को बाउंड्री करने के लिए पत्र भी लिखा था. लेकिन नवंबर 2023 तक इस मामले में कोई करवाई नहीं हुई थी.

यही स्थिति पूर्वी चंपारण के 22 और पश्चिमी चंपारण के बगहा और अहरौलिया ब्लॉक के पांच स्कूलों में पाई गयी. 

सुप्रीम कोर्ट से उम्मीदें

PIL पर सुनवाई के दौरान राज्य सरकार के वकील ने कोर्ट को बताया कि सुनवाई के दौरान राज्य सरकार ने इन स्कूलों में बेहतरी के लिए काम किया है. जिसके बाद 19 जनवरी 2024, को पटना हाईकोर्ट ने इस PIL याचिका को रद्द कर दिया. जिसके बाद अशोक अग्रवाल ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है.

अशोक अग्रवाल सुप्रीम कोर्ट पर भरोसा जताते हुए कहते हैं “पटना हाईकोर्ट ने इस मामले को इस आधार पर रद्द कर दिया कि सरकार स्कूल में सुधार लाने का प्रयास कर रही है. जबकि ग्राउंड पर ऐसा नहीं है. इसी कारण हम लोग इस मुद्दे को लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंचे हैं. सुप्रीम कोर्ट ने PIL को एडमिट कर नोटिस जारी किया है. यह देश का पहला ऐसा केस होगा जिसमें स्कूल में बुनियादी सुविधाओं में सुधार के लिए आवाज उठाई गयी है. आने वाले दिनों में सुप्रीम कोर्ट का स्कूल में बुनियादी सुविधाओं को लेकर दिया गया फैसला ना केवल बिहार के लिए बल्कि पूरे देश के लिए एक मिसाल साबित होगा.”

सुविधाविहीन स्कूल में पढ़ते बच्चे

चौथी-पांचवी कक्षा के बच्चों को नहीं मिली किताबें

सुनवाई के दौरान भी याचिकाकर्ता टीम के सदस्य, वकील अशोक अग्रवाल और मोहन पासवान ने दुबारा इन स्कूलों का निरीक्षण किया. लेकिन विभाग के दावे के विपरीत इन स्कूलों में कोई सुधार नहीं पाया गया. इसी दौरान निरीक्षण टीम ने मुजफ्फरपुर के नौ स्कूलों का भी सर्वे किया. अक्टूबर 2023, में किये गए इस निरीक्षण के दौरान पाया गया कि चौथी और पांचवीं कक्षा के बच्चों को 2023-24 सत्र की किताब नहीं दी गयी है. जबकि सत्र खत्म होने में केवल चार महीने ही बचे थे.

दरअसल, बिहार सरकार पहली से आठवी कक्षा के स्कूली छात्रों को मुफ्त किताबें देने की योजना चलाती है. 2018 से पहले, कक्षा 1 से लेकर 8 तक के बच्चों को स्कूल में ही किताबें उपलब्ध कराने का निर्णय लिया था. लेकिन इस व्यवस्था में बच्चों को सत्र प्रारंभ होने के महीनों बाद तक किताबे नहीं मिल पाती थीं. इस समस्या को दूर करने के उद्देश्य से साल 2018 में बिहार सरकार ने छात्रों को किताब देने के बजाय राशि देने का निर्णय लिया. लेकिन यह योजना भी विफल हो गयी. अब सरकार वापस किताबें देने की योजना लेकर आई है.

सोशल जूरिस्ट समूह के सदस्य और दिल्ली हाईकोर्ट के वकील अशोक अग्रवाल बिहार के सरकारी स्कूल की बदहाली पर कहते हैं “यह काफी शर्मनाक बात है कि बिहार सरकार आजादी के 76 सालों बाद भी सरकारी स्कूलों में बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराने में विफल रही है. जबकि शिक्षा का अधिकार कानून ना केवल मुफ्त शिक्षा, बल्कि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की बात करता है. कई स्कूलों ने विभाग को रिपोर्ट किया है कि उनके स्कूल में पीने का पानी नहीं है. किसी स्कूल में मात्र एक हैंडपंप है. कहीं शौचालय है तो उसमें पानी की व्यवस्था नहीं है. ऐसे में उस शौचालय का इस्तेमाल कैसे होगा.”

जर्जर हालत में स्कूल के भवन

अशोक अग्रवाल कहते हैं कि “क्योंकि यह बच्चे गरीब परिवारों के हैं, यह बच्चे दलित, आदिवासी और पिछड़े परिवारों से आते हैं इसलिए सरकार उन्हें बिना किसी सुविधा के, मिट्टी पर बैठाएगी.”

2020 से छात्राओं को नहीं मिला सैनिटरी नैपकिन

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के द्वारा माहवारी के दिनों में स्कूल से बच्चियों का ड्रॉपआउट रोकने के उद्देश्य से ‘मुख्यमंत्री किशोरी स्वास्थ्य योजना’ की शुरुआत की गयी थी. इस योजना का आरंभ साल 2015 में हुआ था. योजना के तहत छठी से 12वीं कक्षा की छात्राओं को सैनिटरी पैड खरीदने के लिए साल में 300 रूपए दिए जाते हैं. योजना की शुरुआत में 150 रूपए दिए जाते थे जिसे बढ़ाकर अब 300 रूपए कर दिया गया है.

सरकारी आंकड़ों के अनुसार सरकारी स्कूल में पढ़ने वाली 40 लाख छात्राओं को इसका लाभ मिल रहा है. लेकिन सर्वे के दौरान मुजफ्फरपुर के सरकारी स्कूल में पढ़ने वाली छात्राओं ने बताया कि उन्होंने तीन सालों से योजना का लाभ नहीं मिला है. छठी से 12वीं कक्षा में पढ़ने वाली छात्राओं को सेनेटरी नैपकिन भी नहीं बांटे गये हैं. निरीक्षण करने वाली टीम को पता चला कि छात्राओं को साल 2016 से 2019 तक तो सैनिटरी नैपकिन मिले हैं लेकिन साल 2020 से इस योजना का लाभ बच्चियों को नहीं मिला है.

निरीक्षण के दौरान पाया गया कि स्कूल में नामांकित बच्चों का 50 फीसदी बच्चे अनुपस्थित थे. यू-डाइस रिपोर्ट के अनुसार साल 2014-15 में माध्यमिक स्तर पर कुल बच्चों का 25.33%, साल 2015-16 में 25.90% और 2016-17 में 39.73% बच्चों ने स्कूल छोड़ा है. हालांकि साल 2019-20 के आंकड़ों के अनुसार बिहार में ड्राप आउट की संख्या कम होकर 21.4% पर पहुंची है. लड़कियों के माध्यमिक क्लास में ड्राप आउट की संख्या अभी भी चिंताजनक है. साल 2019-20 के आंकड़ों के अनुसार 22.7% लड़कियां 10वीं के बाद स्कूल छोड़ देती हैं. निरीक्षण के बाद तैयार की गयी रिपोर्ट बिहार सरकार के मुख्य सचिव और शिक्षा विभाग के सचिव को भी भेजा गया है.

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