साल भर अपने घर-परिवार से दूर रोजी-रोटी, करियर और पढ़ाई के चक्कर में बाहर रहने वाले बिहार, यूपी और झारखंड के लोग छठ के मौके पर अपने घर पहुंचना चाहते हैं. लोग चार-पांच महीने पहले से टिकट लेने के जुगत में लग जाते हैं लेकिन लाख मसक्कत के बाद भी उन्हें टिकट नहीं मिल पाता है.
स्टूडेंट और मजदूर वर्ग के लोग जनरल और स्लीपर बोगियों में निर्जीव सामानों की तरह ठूस कर सफर करने को विवश हैं. वहीं मजबूरी में लोग आरक्षित कोच में भी जबरदस्ती चढ़ जाते हैं जिससे ना केवल उन्हें, बल्कि आरक्षित टिकट लेकर ट्रेन में सफर कर रहे लोगों को भी परेशानी उठानी पड़ती है.
चार महीने पहले से शुरू हो जाती है वेटिंग
कई बार तो लोगों को साल भर इंतजार करने के बाद भी त्योहार पर टिकट नहीं मिल पाता है. महीनों पहले टिकट लेने के बाद भी टिकट कन्फर्म नहीं होने के कारण लोगों को ज्यादा पैसे खर्च करने पड़ते हैं.
पटना की रहने वाली आकृति गुप्ता गुजरात के उपलेटा शहर में कार्यरत हैं. आकृति बैंक ऑफ इंडिया में काम करती हैं. साल में एक बार दीपावली और छठ के मौके पर आकृति अपने घर पटना आती हैं. आकृति को अपने घर आने-जाने के सफर में लगभग 20 हजार रूपए खर्च करने पड़ते हैं.
आकृति बताती हैं “दीपावली और छठ ही ऐसा मौका है जब सब लोग एक जगह मिल पाते हैं. इस बार मैंने पटना आने के लिए जून में ही ब्रह्मपुत्र एक्सप्रेस में टिकट लिया था. उस समय उसमें 37 वेटिंग था. मुझे लगा था, नवंबर तक में टिकट कन्फर्म हो जाएगा. लेकिन आने वाले दिन तक टिकट कन्फर्म नहीं हो सका. फिर इधर-उधर पता करने के बाद एक स्पेशल ट्रेन में सीट खाली होने की जानकारी मिली. उसमें टिकट लेने के बाद मैं पटना पहुंच सकी.”
एक सप्ताह की छुट्टी में आकृति का दो दिन सफर में ही निकल जाता है. लेकिन इस बीच अगर ट्रेन तय समय पर नहीं पहुंची तो और अतिरिक्त समय चला जाता है. वहीं छठ के तुरंत बाद वापस लौटने का टिकट मंहगा होने के कारण आकृति को दुखी मन से पर्व के बीच में ही वापस लौटना पड़ता है.
आकृति की ही तरह नोएडा में काम करने वाली साक्षी गुप्ता को भी छठ में घर आने के लिए काफी मशक्कत करना पड़ा. महीनों पहले टिकट काटने के बाद भी लंबी वेटिंग के कारण उनका टिकट कन्फर्म नहीं हो सका. अंतिम समय में त्योहार के लिए चलाई गयी स्पेशल ट्रेन में टिकट मिलने के बाद साक्षी अपने घर पहुंच सकी है. हालांकि ट्रेन लेट होने के कारण साढ़े 11 घंटे का सफ़र 24 घंटे का हो गया.
साक्षी बताती हैं “गति-शक्ति स्पेशल ट्रेन में मुझे टिकट मिला था. नई दिल्ली से ट्रेन रात में 11:45 में खुली थी जिसे अगले दिन 3:50 में पटना पहुंच जाना था लेकिन ट्रेन 7 घंटे लेट हो गयी. मैं अगले दिन रात के 12:30 बजे अपने घर पहुंच पायी. इस दौरान ट्रेन में वाशरूम (शौचालय) जाने में बहुत दिक्कत हुआ क्योंकि वह बहुत गंदा था, उसे एक बार भी साफ़ नहीं किया गया था.”
बड़ी कंपनी, फैक्ट्री और अच्छे कॉलेज की कमी पलायन का कारण
दी प्रिंट में छपी रिपोर्ट के अनुसार बिहार में 1947 से पहले 33 चीनी मिले हुआ करती थी. जो 2022 तक घटकर 10 रह गयी हैं. इनमें भी सारी निजी स्वामित्व में संचालित हो रही हैं. कभी बिहार के साथ-साथ यूपी, झारखंड और बंगाल के लोगों को रोजगार देने वाला यह राज्य अब प्रवासी मजदूरों का राज्य बन गया है.
पटना जिला अंतर्गत फतुहा क्षेत्र कभी औद्योगिक क्षेत्र में गिना जाता था. यहां एक समय में 500 से ज्यादा फैक्ट्रियां काम करती थीं. साल 1968 में यहां फैक्ट्रियों के निर्माण के लिए 600 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया गया था. इन फैक्ट्रियों में बर्तन, कपड़े, ट्रैक्टर के कल पुर्जे, राईस मील समेत कई छोटे-बड़े सामानों के फैक्ट्री लगाई गयी थी. साल 1985 तक बढ़ते अपराध और सरकार की अनदेखी के कारण फैक्ट्रियां बंद होने लगी. साल 2018 आते-आते यहां मात्र 15 फैक्ट्री ही कार्यरत अवस्था में थी.
इतनी बड़ी संख्या में फैक्ट्री का बंद होना बड़ी संख्या में मजदूरों के पलायन का कारण बना. दिल्ली, मुंबई, सूरत समेत अन्य औद्योगिक शहरों में जाकर कमाने वाले बिहारी मजदूर अब वहीं के होकर रह गये हैं. त्योहारों पर किसी तरह धक्का-मुक्की खाकर एक बार अपने घर पहुंच जाना ही उनकी शायद उनकी नियति हैं.
साल 2011 के जनगणना के आंकड़े बताते हैं साल 2001 से 2011 के बीच 93 लाख बिहारियों ने अपने राज्य को छोड़कर दूसरे राज्यों में पलायन किया था. देश की पलायन करने वाली कुल आबादी का 13% केवल बिहार से है जो पूरे भारत में उत्तर प्रदेश के बाद सबसे ज़्यादा है.
श्रम एवं रोज़गार मंत्रालय, भारत सरकार के वेबसाइट पर उपलब्ध आंकड़े के अनुसार देश में 28.51 करोड़ मज़दूर निबंधित हैं. भारत में उत्तरप्रदेश के बाद बिहार दूसरा सबसे ज़्यादा मज़दूरों वाला राज्य है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार बिहार में 2.85 करोड़ मज़दूर निबंधित हैं.
ट्रेन में स्लीपर कोच हुए कम, गति भी हुई धीमी
छठ पर्व समाप्त होने के बाद लोग अब जल्द से जल्द काम पर लौटना चाह रहे हैं. जिनकी टिकट कन्फर्म है वो तो किसी तरह ट्रेन में सवार हो जा रहे हैं. लेकिन जिनकी टिकट कन्फर्म नहीं है वो टिकट की जुगत में परेशान हैं. यह हाल तब है जब पूर्व मध्य रेलवे अपने क्षेत्र में 80 से अधिक पूजा स्पेशल ट्रेनों का परिचालन कर रही है. इसके बावजूद 10 दिसंबर तक हावड़ा, दिल्ली, मुंबई, गुजरात, अमृतसर और कोटा जाने वाली ट्रेनों में लंबी वेटिंग हैं.
रेलवे द्वारा जारी प्रेस रिलीज़ में बताया गया है कि 283 स्पेशल ट्रेन चलाई जा रही है. ये ट्रेन अप-डाउन मिलाकर चार हजार से ज्यादा फेरे मारने वाली हैं. लेकिन इसके बावजूद समय पर कन्फर्म टिकट ना मिलने की समस्या, जनरल बोगियों में मौजूद भीड़, यात्रियों कि कोच में दाखिल होने की जद्दोजहद रेलवे की विफलता को दर्शाता है.
टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी रिपोर्ट के अनुसार साल 2022 में 47.6 किलोमीटर/घंटा के रफ्तार से चलने वाली पैसेंजर ट्रेन की रफ्तार कम होकर इस साल 42.3 किलोमीटर/घंटा हो गयी है. वहीं उत्तर रेलवे जोन में चलने वाली पैसेंजेर ट्रेन के औसत रफ्तार में 4.9 किलोमीटर/घंटा की कमी आई है.
वहीं काफी संख्या में पैसेंजेर ट्रेनों को रद्द किया जा रहा है. G20 बैठक के दौरान उत्तर रेलवे ने 207 पैसेंजेर ट्रेन को रद्द किया था. इधर 14 नवंबर को पंजाब के सरहिंद रेलवे स्टेशन से बिहार के सहरसा आने वाली पूजा स्पेशल ट्रेन को अचानक रद्द कर दी गया. इससे पहले सितम्बर में भी यूपी, बिहार, पंजाब, कोलकाता जाने वाली 18 ट्रेन रद्द की गयी थीं.
सरकार पैसेंजेर ट्रेनों की कमियां दूर करने के बजाए वंदे भारत ट्रेन और बुलेट ट्रेन के सपने दिखाकर उनकी मूलभूत सुविधाओं से दूर कर रही है. ऐसी मारामारी की एक वजह है ट्रेन में स्लीपर कोच को कम करना.
इंदौर-पटना एक्सप्रेस (19313) में साल 2016 में 11 स्लीपर कोच हुआ करती थी. लेकिन अब ये संख्या घट कर 8 हो गयी है. वैसे ही तमिलनाडु एक्सप्रेस (12622) में साल 2012 में 11 कोच हुआ करती थी. लेकिन अब वो 5 हो गयी है. मंगलोर एक्सप्रेस (12133) में भी 12 कोच से घट कर सिर्फ 7 कोच रह गए हैं.