नालंदा जिले के बरगांव गांव की रहने वाली ख़ुशी कुमारी (16 वर्षीय) अपनी हमउम्र लड़कियों के मुकाबले काफ़ी कमज़ोर नज़र आती है. मां की मौत के बाद ख़ुशी के ऊपर अपने तीन भाई-बहनों की ज़िम्मेदारी है. मज़दूरी कर खुशी के पिता किसी तरह अपने बच्चों का पेट तो भर रहे हैं लेकिन बच्चों के लिए पोषण का इंतजाम करना उनके लिए मुश्किल है.
ख़ुशी के बाकी भाई-बहन स्कूल में मिलने वाले मिड डे मील में फल, अंडा, दूध जैसे पोषक खाद्य सामग्रियों का सेवन करते हैं लेकिन खुशी को यह सब नहीं मिलता है. क्योंकि वह स्कूल नहीं जाती है. मां की मौत के बाद ख़ुशी की पढ़ाई छूट गयी है.
अपनी दुबले कद-काठी को लेकर ख़ुशी कहती है, “कोटा (राशन) से अनाज मिलता है. वही खाते हैं. घर में बस (केवल) मेहमान (अतिथि) के लिए घी-दूध आता है. पापा फल भी नहीं लाते हैं.”
पौष्टिक आहार से वंचित ख़ुशी को यह जानकारी नहीं है कि स्कूल नहीं जाने वाली किशोरियों को सरकार आंगनबाड़ी केंद्रों पर पौष्टिक आहार उपलब्ध करा रही है.
समेकित बाल विकास परियोजना (आईसीडीएस) के तहत 14 से 18 वर्ष कि किशोरियों को किशोरी बालिका योजना (सबला) के तहत पोषक आहार उपलब्ध कराया जाता है. इस योजना में उन बच्चियों को शामिल किया जाना है जो किसी कारणवश स्कूल नहीं जाती हैं.
बिहार के 13 जिलों- पटना, गया, अररिया, औरंगाबाद, बांका, नवादा, बेगूसराय, जमुई, कटिहार, खगड़िया, पूर्णिया, मुजफ्फरपुर और सीतामढ़ी में वर्ष 2023 में यह योजना शुरू की गयी है.
आईसीडीएस ने जिलावार कुपोषित किशोरियों की पहचान कर उन्हें योजना से जोड़ने का काम शुरू किया है. 13 जिलों से अब तक 1,78,053 कुपोषित किशोरियों की पहचान की गयी है जिनमें एक लाख 71 हजार किशोरियों का आधार सत्यापन किया जा चुका है.
सूखा राशन और स्वास्थ्य शिक्षा
वर्तमान में राज्य में 46 हज़ार बच्चियां योजना से जुड़ी हैं. जिन्हें प्रत्येक माह 25 दिनों के हिसाब से सूखा राशन दिया जाता है. इसके अलावा आयरन और फोलिक एसिड की गोली, स्वास्थ्य जांच, स्वास्थ्य शिक्षा, माहवारी प्रबंधन और निजी स्वास्थ्य का ध्यान रखने संबंधी जानकारी उपलब्ध कराई जाती है. ये कहना है आईसीडीएस बिहार के निदेशक कौशल कुमार का.
वहीं आंगनबाड़ी सेविकाएं योजना संचालन की अपनी समस्याएं बताती हैं.
गया जिले के नवडीहा पंचायत की आंगनबाड़ी सेविका मनोरमा देवी योजना के संचालन को लेकर बताती हैं “एक हज़ार की आबादी पर एक सेविका होती हैं. हम लोग घर-घर जाकर योजनाओं की जानकरी देने का प्रयास करते हैं. अभी मेरे सेंटर पर 19 लड़कियां हैं जो किशोरी बालिका योजना से जुड़ी हैं. इसमें स्कूल नहीं जाने वाली और 10वीं पास कर चुकीं लड़कियां भी हैं.”
कॉलेज जाने वाली लड़कियों को जोड़े जाने को लेकर मनोरमा कहती हैं “10वीं पास करने वाली लड़कियों के लिए कॉलेज में पोषण से जुड़ी कोई योजना नहीं है. इसलिए हमलोग उन्हें भी इसमें जोड़ देते हैं.”
मनोरमा कुमारी बताती हैं कि सूखे राशन के तौर पर लड़कियों को महीने में सावा दो किलो चावल और दाल दिया जाता है. इसके अलावे 250-300 ग्राम सोयाबीन दिया जाता है. इसके अलावे सप्ताह में एक आयरन की गोली दी जाती है.
यहां मौसमी फल और दूध दिए जाने की बात से आंगनबाड़ी सेविका इंकार करती हैं. उनका कहना है दूध और फल केवल छोटे बच्चों को दिया जाता है. ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या केवल चावल दाल से किशोरियों को समुचित पोषण मिल सकेगा?
योजना के तहत किशोरियों को जीवन यापन के लिए कौशल विकास का प्रशिक्षण भी दिया जाना है. लेकिन सेविका कहती है अभी उन्हें इसतरह की कोई जानकारी नहीं है की बच्चियों को ट्रेनिंग के लिए कहीं भेजना है और ना ही उनके सेंटर पर ऐसी कोई सुविधा है.
किशोरियों के स्वास्थ्य की जांच के नाम पर भी केवल खानापूर्ति की जा रही है. ऐसा इसलिए क्योंकि सेविका स्वयं कहती हैं कि बच्चों के लिए शिविर लगाया जाता है. अगर किसी किशोरी को जांच करवानी होती है तो वह भी करवा सकती है.
वहीं योजना के संचालन में आधार कार्ड सेविकाओं के लिए समस्या बना हुआ है.
चुहाबार पंचायत की आंगनबाड़ी सेविका सपना रानी किशोरियों को योजना से जोड़ने में आने वाली परेशानी को लेकर बताती हैं “अब सारी योजनायें आधार से जोड़ दी गयी हैं. लेकिन परिवार आधार देने से पहले सौ सवाल करते हैं. 14 से 18 साल की लड़कियों के मामले में आधार मांगने पर और ज्यादा समस्या आती है.”
योजना संचालन को लेकर सपना बताती हैं “किसी भी योजना से लोग तभी जुड़ते हैं जब उससे उन्हें कुछ मिलता है. मेरे सेंटर पर लंबे समय से किशोरी बालिका योजना में लड़कियों को कुछ नहीं दिया जा रहा है. पहले आटा और चावल दिया जाता था. अभी छोटे बच्चों को ड्रेस का पैसा भी नहीं मिल रहा है. ऐसे में लोग जुड़ने से इंकार करते हैं.”
सेविकाओं से बात करने से एक बात सामने आती है कि एक ही जिले के विभिन्न सेंटरों पर योजना का संचालन अलग-अलग ढंग से किया जा रहा है. कहीं योजना संचालित है तो कहीं केवल किशोरियों के नाम दर्ज कर रखे गये है.
एनीमिया की शिकार बच्चियां
समाज कलायन विभाग के तहत आने वाला समेकित बाल सेवा निदेशालय (आईसीडीएस) मुख्य रूप से 0-6 वर्ष के बच्चों, किशोर लड़कियों, गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं से जुड़ी योजनाओं को लागू करता है.
इन योजनाओं का उद्देश्य पोषण और स्वास्थ्य की स्थिति में सुधार करना, मृत्यु दर, रुग्णता, कुपोषण, बच्चों के स्कूल छोड़ने के दर में कमी लाना है. लेकिन आंकड़े बताते हैं कि राज्य सरकार को अभी इस दिशा में काफ़ी काम करना बाकी है. नीति आयोग द्वारा जारी सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी इंडेक्स) 2022-23 में बिहार उन राज्यों में शामिल जिन्हें सबसे कम अंक प्राप्त हुआ हैं.
इसके अलावा नेशनल फॅमिली हेल्थ सर्वे-5 की रिपोर्ट भी बिहार में किशोरियों और महिलाओं में कुपोषण की स्थिति को उजागर करते हैं. रिपोर्ट के अनुसार 15 से 19 साल की 65.7 फीसदी किशोरियां एनीमिया से ग्रस्त हैं. एनएफएच-4 में यह आंकड़ा 61 फीसदी था. इसी तरह 15 से 49 आयुवर्ग की 63.1 फीसदी गर्भवती महिलाएं एनीमिया से ग्रस्त हैं जबकि एनएफएचएस-4 में यह 58.3 फीसदी था.
इसी तरह पांच वर्ष से कम उम्र के वर्ग में प्रति एक हजार बच्चों में 56.4 नवजात शिशुओं की मृत्यु हो जाती है. इसी तरह 06-59 सप्ताह के 69.4 फीसदी बच्चों की मृत्यु हो जाती है.
वहीं बच्चों में कुपोषण के अन्य लक्षणों जैसे नाटापन और दुबलापन के मामले भी एनएफएचएस-4 के मुकाबले एनएफएचएस-5 में बढ़े हुए पाए गये थे. रिपोर्ट के अनुसार पांच वर्ष से कम आयुवर्ग के 42.9 फीसदी बच्चे नाटापन, 22.9 फीसदी बच्चे दुबलापन और 8.8 फीसदी बच्चे अति दुबलापन के शिकार हैं. इसके अलावे 41 फ़ीसदी बच्चे कम वजन और 2.4 फ़ीसदी मोटापा का शिकार हैं.
ऐसे में जरुरी है कि कुपोषण के इस चक्र को तोड़ने के लिए महिलाओं और किशोरियों को ध्यान में रखकर नीतियां बनाई जाएं. आंगनबाड़ी से संचालित होने वाली योजनाएं महिलाओं और बच्चियों तक पहुंचे. क्योंकि बिना सूचना और जागरूकता के 'खुशी' जैसी हजारों बच्चियां कुपोषण का शिकार हो रही हैं. जिसके कारण आने वाला समाज भी कुपोषण के कुचक्र में फंसा रहेगा.