बिहार के विकास के कई चेहरे हैं. एक तरफ़ बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार नलका से गंगाजल पहुंचाने का काम कर रहे हैं. वहीं दूसरी ओर कई गांव ऐसे हैं जहां पीने का साफ़ पानी भी मौजूद नहीं है. राजधानी पटना में अटल पथ और मरीन ड्राइव जैसी सड़कें बन चुकी हैं. लेकिन कई इलाके ऐसे हैं जहां सड़क नहीं होने की वजह से एम्बुलेंस नहीं पहुंच पाते. फिर मरीज़ों को खाट से बांध कर अस्पताल ले जाया जाता है.
अगर विकास का असली चेहरा देखना है तो कोसी को देखना चाहिए. इन इलाकों में पहुंचने के बाद लगता है कि ये इलाका आज भी 50 साल पीछे है. कोसी के बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में ना तो अच्छी सड़क है, ना बेहतर स्वास्थ्य केंद्र और ना ही स्कूल की व्यवस्था.
गांव का एकलौता स्कूल भी बाढ़ में बह गया
कोसी तटबंध के इलाके में आने वाले 300 से अधिक गांव में महीनों 4 से 5 फ़ीट तक पानी भरा रहता है. ऐसे में यहां शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल, बिजली और आवागमन की सुविधा की कल्पना करना बेबुनियाद है. बाढ़ का दंश झेलने वाले स्थानीय लोग बताते हैं कि बाढ़ के समय सरकार केवल रहने और रूखे सूखे खाने की व्यवस्था कर देती हैं लेकिन बच्चों की शिक्षा की चिंता किसी को नहीं है.
आखिर उस क्षेत्र के बच्चे कैसे पढ़ेगें? दसवीं या बारहवीं बोर्ड परीक्षाओं की तैयारी कैसे करेंगे? उन बच्चों की मनोदशा क्या होगी? शायद इस पर सोचना सरकार की प्राथमिकता नहीं है.
सुपौल जिले के मौजहा पंचायत के सुजानपुर गांव में स्थित एकमात्र प्राथमिक विद्यालय कोसी की भेंट चढ़ गया है. कटाव के कारण भवन नदी में समा गया है. जबकि माध्यमिक विद्यालय में पानी भरा हुआ है.
सार्वजनिक प्राथमिक सह मध्य संस्कृत विद्यालय, सुजानपुर के पूर्व शिक्षक प्रदीप कुमार क्षेत्र में शिक्षा की स्थिति पर बात करते हुए कहते हैं “गांव में एक प्राथमिक विद्यालय वह भवनहीन हो चुका है. माध्यमिक विद्यालय जिससे मैं रिटायर हुआ हूं उसमें अभी मात्र एक शिक्षक है. हाई स्कूल गांव से दो किलोमीटर दूर है. जो नदी पार कर जाना पड़ता है. अभी दो महीने से गांव में पानी है, कहीं कमर भर तो कहीं घुटना भर. पढ़ाई-लिखाई क्या होगा?”
सुजानपुर गांव के बच्चों को हाई स्कूल की शिक्षा के लिए तीन किलोमीटर का सफ़र तय करना पड़ता है. यह सुविधा भी 2023 से शुरू हुई है.
प्राथमिक विद्यालय के बाढ़ में कटने को लेकर सुजानपुर गांव के वार्ड सदस्य सुभाषचंद्र सुतिहार कहते हैं “एसडीएम साहब आये थे. बोले हैं, बाढ़ का पानी निकलने के बाद कोई व्यवस्था की जाएगी.”
गांव में ना प्राथमिक स्कूल और ना ही आंगनबाड़ी
तटबंध के भीतर बसे लगभग सभी गांव पानी से तबाह हैं. लेकिन लगभग 10 पंचायत लगभग 30 हज़ार आबादी टापू बन चुके गांवों में रहने को मजबूर हैं. इसमें खोखनाहा, पंचगछिया, बेगमगंज, बेलागोट जैसे कई गांव शामिल हैं.
सुपौल जिले के घोनरिया पंचायत के खोखनाहा गांव में प्रियंका कुमारी अपने दो बच्चों के साथ रहती हैं. गांव में खेती-बाड़ी तबाह होने और आय के दूसरे साधन के अभाव में इनके पति दूसरे शहर में मज़दूरी करते हैं.
बाढ़ के पानी के बीच अकेली रह गयी प्रियंका अपने बच्चों की शिक्षा के लिए परेशान हैं और कहती हैं “गांव में ना तो प्राथमिक स्कूल है और ना ही हाईस्कूल है. सब नदी के पार है. गांव में आंगनबाड़ी भी नहीं है. छोटा बच्चा कैसे पढ़ेगा? अभी संस्था का एक जीवनशाला गांव में चलता है बच्चा उसी में पढ़ता है.”
ग्रामीणों के अनुसार हाईस्कूल में पढ़ने वाले बच्चे गांव के बाहर कोसी की दो धारा पार करने के बाद स्कूल पहुंचते हैं. रोज़ाना केवल आने-जाने में 100 रुपए खर्च करने पड़ते हैं. दरअसल, तटबंध के भीतर कोसी नदी आधा दर्जन से अधिक धाराओं में बहती है. बाढ़ के अलावा सामान्य दिनों में भी नदी की कई धाराओं को नाव से पार करने के बाद लोग कई-कई किलोमीटर पैदल चलकर मुख्य बाज़ार या शहर तक पहुंच पाते हैं. जिससे केवल आने-जाने में ही लोगों का पूरा दिन निकल जाता है.
प्रियंका बताती हैं, सुपौल बाज़ार जाने और खाने-पीने और दवाई जैसे ज़रूरी सामान लाने के लिए महिलाओं को कितनी परेशानी उठानी पड़ती है. क्योंकि गांव के अधिकांश घरों में केवल बच्चे, बूढ़े और महिलाएं ही रह गई हैं. पुरुष पैसे कमाने बाहर जा चुके हैं. बाढ़ के बीच महिलाएं ही घर परिवार, और मवेशियों की सुरक्षा करती हैं.
बातचीत में प्रियंका सरकार की उदासीनता की भी बात कहती हैं. कैसे सरकार की कोई योजना गांव में नहीं पहुंची है. शौचालय और साफ़ पानी के लिए भी गांव के लोग परेशान हैं. प्रियंका कहती हैं “कोई अधिकारी कभी हमारे गांव नहीं आता है. हम लोग पानी से परेशान हैं, लेकिन सरकार मानती ही नहीं है कि यहां बाढ़ का पानी आया है. चाहे कटाव हुआ है.”
पहले होती थी बाढ़ की छुट्टी, अब बदला नियम
सरकारी नियमानुसार 15 जून से 30 सितंबर तक के समय को बाढ़ का समय माना गया है. इस दौरान तटबंध के भीतर बाढ़ का पानी आता-जाता रहता है. बीरपुर बराज से दो लाख क्यूसेक से अधिक पानी छोड़ने के बाद तटबंध के भीतर बसे घरों के आंगन तक पानी भर जाता है. कुछ दिनों बाद आंगन से तो पानी निकल जाता है लेकिन आसपास पानी कमर और घुटने तक रहता है. ऐसे में बच्चों का स्कूल तक पहुंचना लगभग बंद हो जाता हैं.
तटबंध के भीतर बसे गांव के लोगों के लिए काम करने वाली संस्था कोसी नवनिर्माण मंच के सदस्य इंद्रनारायण सिंह कहते हैं “पहले इन क्षेत्रों में बाढ़ की छुट्टी होती थी. अन्य जिलों में जब गर्मी की छुट्टी होती थी तब यहां पढ़ाई होती थी. लेकिन अब नियम बदल गये हैं. इससे बच्चों के साथ-साथ बाहरी शिक्षकों को भी परेशानी होती है. क्योंकि नाव की सीमित संख्या और नदी में पानी बढ़ने के कारण आना जाना मुश्किल हो जाता है.”
तटबंध के भीतर बने स्कूल जून से सितंबर माह के बीच कागजों पर भले ही संचालित होते हो लेकिन सच्चाई में वहां पढ़ाई कैसे होगी जब वहां बच्चे स्कूल नहीं पहुंचते हैं.
कोसी के बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में उच्च शिक्षा की स्थिति गंभीर हैं. इंद्रजीत कहते हैं “मेरी जानकारी में सुपौल जिले में मात्र दो उच्च विद्यालय था. उनमें से एक कटाव में ध्वस्त हो गया अब मात्र एक बचा है. यहां रहने वाले ज़्यादातर परिवार गरीब है. जिनके पास थोड़ा बहुत भी पैसा है वो अपने बच्चों के पढ़ने का इंतेज़ाम यहां से बाहर कर देते हैं. क्योंकि इक्के-दुक्के गांव में ही मिडिल स्कूल है.”
बिहार आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट 2024 के अनुसार सुपौल जिले में प्राथमिक स्कूलों की संख्या 1057 और उच्च प्राथमिक विद्यालयों की संख्या 849 है. हालांकि कागज़ी आंकड़ों से इतर तटबंध के भीतर की स्थिति अलग है.