राज्य के अधिकांश जिलों के सदर अस्पतालों की स्थिति जर्जर है. जिसके कारण राजधानी पटना के बड़े अस्पतालों में मरीज़ों का दबाव हमेशा बढ़ा रहता है. पटना के बड़े सरकारी अस्पतालों पीएमसीएच, एनएमसीएच, आईजीआईएमएस या एम्स से हर दिन मरीज़ों को बेड ना मिलने की शिकायतें आती रहती है.
ग्रामीण क्षेत्र के जिला अस्पतालों में स्वास्थ्य सेवाओं की बेहाल व्यवस्था मरीज़ों को पटना आने के लिए मजबूर करती है. अगर क्षेत्रीय जिला अस्पतालों में चिकित्सा के बेहतर इंतज़ाम होते, तो मरीज़ों को अपने घर से दूर पटना नहीं आना पड़ता.
यह स्थिति तब है, जब बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव 60 दिनों के अंदर सभी अस्पतालों की स्थिति में सुधारना चाहते थे. सभी अस्पतालों में स्वास्थ्य सेवाओं के साथ-साथ साफ़-सफ़ाई, मरीज़ों के लिए बेहतर सुविधाएं और उनकी समस्याओं पर कार्रवाई करने की बात कही थी.
तेजस्वी यादव के ‘मिशन 60’ लक्ष्य से राज्य के सरकारी अस्पतालों की व्यवस्था में बड़ा सुधार मिलने की उम्मीद थी. मगर उसके बाद भी जिलों के अस्पतालों में कोई ख़ास सुधार नहीं हुआ. ग्रामीण क्षेत्रों के मरीज़ आज भी बेहतर इलाज के लिए राजधानी पटना आते हैं.
पटना सरकारी अस्पतालों आने को मजबूर है ग्रामीण मरीज
जिला अस्पतालों में बेहतर इलाज नहीं मिलने के कारण मरीज पटना या अन्य बड़े शहरों में जाने को मजबूर हैं. मरीज छोटी-छोटी बीमारियों के इलाज के लिए भी पटना चले आते हैं. वहीं गंभीर बीमारी के इलाज के लिए मरीज पूरी तरह बड़े अस्पतालों पर निर्भर हैं.
सदर अस्पतालों में बेहतर इलाज नहीं मिलने के कारण मरीज़ों का दबाव मेडिकल कॉलेज अस्पताल में बढ़ा रहता है. पटना के एनएमसीएच में बेड की कमी के कारण मरीज़ों का इलाज जमीन पर किया जा रहा है. मरीज जमीन पर केवल चादर पर लेटकर इलाज कराने को मजबूर हैं.
नालंदा जिले से हिकसौरा बाजार से इलाज कराने आये परमेश्वर प्रसाद शनिवार से ज़मीन पर लगे गद्दे पर लेटे हैं. परमेश्वर प्रसाद का हाथ टूटा हुआ है. उन्हें हड्डी वार्ड के बाहर गलियारे में लगे गद्दे पर भर्ती किया गया है. परमेश्वर प्रसाद बताते हैं
हाथ टूट गया है. अच्छा इलाज के लिए पटना आ गये. लेकिन अस्पताल में बेड नहीं था. किस्मत से बाहर लगा गद्दा मिल गया. लेकिन यहां पंखा नहीं है. गर्मी बहुत लगता है और मच्छर भी बहुत काटता है.
सोनामा के निरावनपुर से आये मनीष सिंह को नस से संबंधित कोई बीमारी है. दो दिनों से बेड मिलने का इंतज़ार कर रही मनीष की मां बताती हैं
कितना घंटा से बच्चा जमीन पर ही लेटा है. डॉक्टर जांच किये हैं. बोल रहे हैं नस का कोई बीमारी है. एक दवा लिखे हैं, बोले अगर ये दवा मिल जाएगा, तो भर्ती कर लेंगे. अगर नहीं मिला तो एक अस्पताल का नाम बताए हैं वहां जाने को कहा है.
वहीं जक्कनपुर से आए रामदेव साहू को भी अस्पताल में बेड नहीं मिल रहा है. सुबह से इंतज़ार कर रहे रामदेव के बेटे बताते हैं
पिताजी का कमर टूट गया है. डॉक्टर जांच तो कर लिए हैं लेकिन बेड नहीं मिल रहा है. शाम चार बजे तक इंतज़ार करने को कहा गया था लेकिन उसके बाद भी बेड नहीं मिला है.
आईजीआईएमएस के अधीक्षक राजीव रंजन कुमार से जब हमने अस्पताल में पेशेंट के बढ़ते दबाव को लेकर सवाल किया तो उन्होंने कोई भी जबाव देने से इंकार कर दिया. पेशेंट की बढती संख्या को देखते हुए क्या अस्पताल में बेड की संख्या बढ़ाई जाएगी, इस पर उनका कहना है हम इसका जवाब देने के लिए अधिकृत नहीं है.
आईसीयू और वेंटिलेटर बेड नहीं मिलने से मरीज़ की मौत
बड़े सरकारी अस्पतालों में बेड के मुकाबले पेशेंट की संख्या ज़्यादा होने के कारण मरीज़ों को भर्ती नहीं किया जाता है. इसमें सबसे ज़्यादा समस्या वैसे पेशेंट के परिजन को होती है. जिनको तत्काल में भर्ती किये जाने की आवश्यकता है. वैसे, मरीज़ बेड की कमी के कारण शहर में इधर-उधर भटकते रहते हैं. जिसके कारण कभी-कभी मरीज़ की मौत भी हो जाती है.
हाल ही में आईजीआईएमएस के इमरजेंसी वार्ड में समय पर बेड नहीं मिलने के कारण एक मरीज़ की मौत हो गयी थी. मरीज़ के परिजन उसे आईजीआईएमएस लेकर गए थे. लेकिन उस समय इमरजेंसी वार्ड के आईसीयू में बेड ख़ाली नहीं था. परिजन उसे पटना एम्स लेकर गये लेकिन वहां भी बेड नहीं मिला. इस दौरान मरीज की तबियत ज़्यादा ख़राब होती गयी.
इसी दौरान वापस मरीज़ के परिजन को आईजीआईएमएस से बेड ख़ाली होने की सूचना दी गयी. परिजन वापस मरीज को लेकर अस्पताल पहुंचे लेकिन तब तक मरीज़ की मौत हो चुकी थी.
इमरजेंसी में वैसे मरीज़ को बेड मिलने में ज़्यादा समस्या होती है जिनको आईसीयू या वेंटिलेटर पर रखने की ज़रूरत है क्योंकि अस्पताल में बेड ख़ाली ही नहीं रहते हैं. निजी अस्पतालों में आईसीयू या वेंटिलेटर बेड का चार्ज 15 हज़ार जबकि सरकारी अस्पताल में आईसीयू बेड चार्ज 1500 रूपए होता है. बेड चार्ज कम होने के कारण अधिकांश समय इमरजेंसी के बेड भरे रहते हैं.
बिहार के जिला अस्पताल में बेड की भारी कमी
कैग (CAG) की रिपोर्ट में बताया गया है कि 2013 और 2018 के आंकड़ों से पता चला है, कि स्वास्थ्य संकेतक के मामले में बिहार की स्थिति राष्ट्रीय औसत के बराबर नहीं है. जांच में यह पाया गया है कि जिला अस्पतालों में बेड की भारी कमी है. इंडियन पब्लिक हेल्थ स्टैंडर्ड की तुलना में बेड की कमी 52% से 92% के बीच थी.
रिपोर्ट में कहा गया कि बिहारशरीफ और पटना जिला अस्पतालों को छोड़ दिया जाए तो 2009 में स्वीकृत बेड में से केवल 24 से 32% ही भरा जा सका है. सरकार ने वर्ष 2009 में इन अस्पतालों में बेड की संख्या को स्वीकृत किया था. लेकिन हकीकत यह है कि 10 साल बाद भी प्रदेश में अस्पतालों में वास्तविक बेडों की संख्या को बढ़ाया नहीं जा सका है. साथ ही जिला अस्पतालों में ऑपरेशन थिएटर (OT) की स्थिति भी अच्छी नहीं है.
दिशा निर्देशों के मुताबिक, 10 लाख की आबादी पर एक अस्पताल होना चाहिए और इसका ‘बेड ऑकुपेंसी रेट’ 80% होना चाहिए. बिहार की आबादी (लगभग 12 करोड़) के अनुसार प्रत्येक जिला अस्पताल में कम से कम 220 बेड होने चाहिए. लेकिन नीति आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार, बिहार में जिला स्तरीय सरकारी अस्पतालों में प्रति एक लाख पर केवल छह बेड है.
अगर जिला अस्पतालों में बेड की संख्या बढ़ाई जाए, वहां आवश्यक संख्या में डॉक्टरों, नर्सों, पैरामेडिकल और अन्य सहायक कर्मचारियों की भर्ती की जाए जो वहां के मरीज़ों को दूर जाना नहीं पड़ेगा.
वहीं कैग ने भी जिला अस्पतालों में पर्याप्त मानव बल, दवाओं और उपकरणों की उपलब्धता की निगरानी करने का निर्देश दिया है.