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बिहार में आंगनबाड़ी केंद्रों की हालत कुछ ऐसी है कि एक बार सोचने पर मन में सवाल उठता है, आखिर हमारी सरकार बच्चों और माताओं के लिए बने इस सबसे बड़े पोषण और विकास नेटवर्क को लेकर इतनी उदासीन क्यों है?
देश के सबसे गरीब राज्यों में से एक बिहार में जहां हर पांच में से दो बच्चे कुपोषण की जंजीरों में जकड़े हुए हैं, वहीं आंगनबाड़ी केंद्रों की बदहाली की तस्वीर बेहद निराशाजनक है. हालिया निरीक्षणों ने साफ किया है कि केंद्रों का कामकाज आधा अधूरा है. लगभग 1.14 लाख केंद्रों में से एक चौथाई यानी 24% केंद्र तो ऐसे हैं जो खुले तक नहीं होते. सोचिए, उन बच्चों की क्या जिम्मेदारी जो इन बंद पड़े केंद्रों पर पहुंचते हैं?
पटना के पास शाहगंज मोहल्ले की 24 वर्षीय ममता देवी रोज़ सुबह सात बजे उठकर अपने दो साल के बेटे को तैयार करती हैं. वह चाहती हैं कि बच्चा आंगनबाड़ी केंद्र में समय पर पहुंचे ताकि थोड़ी देर खेल-खेल में कुछ सीख ले और दोपहर तक पौष्टिक खाना मिल जाए. लेकिन पिछले तीन महीनों से केंद्र के दरवाज़े बंद हैं. ताला जड़ा हुआ है, और दीवारों पर लगे रंग अब उड़ चुके हैं.
ममता अकेली नहीं हैं. बिहार में हज़ारों परिवार आंगनबाड़ी केंद्रों पर निर्भर हैं. ये न सिर्फ बच्चों के पोषण और प्राथमिक शिक्षा का केंद्र हैं, बल्कि गर्भवती महिलाओं और किशोरियों के लिए भी जीवनरेखा की तरह काम करते हैं. मगर आज यह व्यवस्था खुद ‘कुपोषण’ का शिकार है - संसाधनों का, निगरानी का, और सबसे ज़रूरी इच्छाशक्ति का.
जब केंद्र बंद हों और बच्चों को भूखा छोड़ा जाए
जब बात पोषण की आती है, तो आंगनबाड़ी केंद्र सबसे अहम कड़ी होते हैं. यह नन्हें बच्चों को पौष्टिक भोजन देने का पहला दरवाजा है, पर आंकड़े बताते हैं कि बिहार में यह दरवाजा कई जगह बंद रहता है. एक औचक जांच में पाया गया कि भोजन वितरण तो केवल 59% दिनों में ही हो पाया, जबकि बच्चों की उपस्थिति भी औसतन आधी से कम, 22 में से मात्र 12 बच्चे ही केंद्रों पर आते हैं.
सितंबर 2024 में ICDS विभाग द्वारा कराए गए एक औचक निरीक्षण में राज्य के 2,036 आंगनबाड़ी केंद्रों की जांच की गई. उसमें से 125 केंद्र पूरी तरह बंद मिले. लगभग 1,016 केंद्रों को 'सुधार की आवश्यकता' बताई गई, जबकि सिर्फ 616 केंद्रों को 'ठीक स्थिति' में पाया गया.
इसी बीच राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5) के अनुसार, बिहार में 43.9% बच्चे कुपोषित हैं, और 41% बच्चे कम लंबाई और कम वजन के शिकार हैं. यह आंकड़ा न केवल डराने वाला है, बल्कि यह राज्य के पोषण ढांचे की पोल खोलता है.
यह सिर्फ आंकड़ों का खेल नहीं, बल्कि उनके परिवारों के भूखे पेटों की आवाज़ है. और इससे भी बड़ी बात यह है कि हमारे आंगनबाड़ी कार्यकर्ता, जो बच्चे के लिए मां की ममता की तरह होते हैं, वे भी पर्याप्त सम्मान और वेतन नहीं पाते. उनकी मेहनत के बदले अब सरकार ने मानदेय बढ़ा दिया है- सेविकाओं को ₹5,950 से ₹7,000, और सहायिकाओं को ₹2,975 से ₹4,000 प्रति माह, लेकिन यह बढ़ोतरी भी उनकी जिम्मेदारियों के अनुरूप नहीं.
बिहार में लगभग 1.14 लाख आंगनबाड़ी कार्यकर्ता और सहायिका कार्यरत हैं. इनकी औसत मानदेय ₹6,500 से ₹8,500 के बीच है, जो समय पर मिलना भी मुश्किल है. कोविड के दौरान इन्हीं महिलाओं ने टीकाकरण, सर्वे और जन जागरूकता में ज़मीनी काम किया — लेकिन आज इन्हें ही शासन की अनदेखी का शिकार होना पड़ रहा है.
2023 में पटना में हुई आंगनबाड़ी कर्मियों की हड़ताल इस बात का प्रमाण है कि 'सेवा भाव' अब सिर्फ सरकारी स्लोगन बनकर रह गया है.
कुपोषण की तस्वीर: बिहार की सबसे बड़ी चुनौती
कुपोषण का मंथन करें तो हाल के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5) के अनुसार बिहार में 42.9% बच्चे लंबाई के मामले में पिछड़े हुए हैं. यानी, हर दो में से एक बच्चा इस कुपोषण की ज़ंजीर में है. वजन की कमी के मामले में भी स्थिति डराने वाली है, जहां 41% बच्चे पर्याप्त पोषण नहीं पा रहे.
मुंगेर जिला इसका सबसे कड़वा उदाहरण है, जहां 35.5% बच्चे लंबाई में कमज़ोर और 26.7% बच्चे वज़न के हिसाब से कमज़ोर पाए गए हैं. यह आंकड़े सिर्फ संख्या नहीं, बल्कि बिहार के भविष्य के लिए चेतावनी हैं. जब बच्चा कुपोषित होगा तो देश की तरक्की भी कमजोर होगी.
हाल ही में बिहार सरकार ने 45 नए आंगनबाड़ी केंद्रों के निर्माण की मंज़ूरी दी है. साथ ही, 17,000 केंद्रों को नज़दीकी प्राथमिक विद्यालयों से जोड़ा गया है, ताकि स्थान और संसाधनों की कमी को दूर किया जा सके. लेकिन सवाल उठता है — क्या इमारतें बनवाने से व्यवस्था सुधर जाएगी, जब लोग ही नहीं हैं इन्हें चलाने वाले?
पटना के एक वार्ड में कार्यरत एक सेविका (नाम गोपनीय) कहती हैं, “हम 6 महीने से मानदेय के इंतज़ार में हैं. राशन भी समय पर नहीं आता. बच्चे आते हैं, मगर हम क्या दें जब खुद के पास कुछ नहीं है?”
अनियमितता और वित्तीय घोटाला: आंगनबाड़ी केंद्रों की कुपोषित कहानी
जांच में सामने आया है कि केंद्रों पर मिलने वाला पोषण सामग्री का एक बड़ा हिस्सा बच्चे तक नहीं पहुंच पाता. कुछ केंद्रों में तो पोषण सामग्री का केवल 75% हिस्सा ही उपयोग में आता है. ऐसा क्यों होता है? इसका जवाब है अनियमितता और भ्रष्टाचार.
सरकार की ओर से जो धनराशि गर्म भोजन के लिए आवंटित की जाती है, उसका 71% हिस्सा खर्च नहीं होता. इसका मतलब यह हुआ कि धन उपलब्ध है, लेकिन उचित उपयोग नहीं हो पा रहा. कहीं केंद्र बंद पड़े हैं, तो कहीं भोजन वितरण में लापरवाही बरती जा रही है.
सरकारी कोशिशें और उनका परिणाम
यह सोचना गलत होगा कि सरकार ने इन समस्याओं को नकारा है. बिहार सरकार ने पोषण पखवाड़ा मनाकर किचन गार्डन, फोर्टिफाइड अनाज, और नियमित निगरानी जैसे कदम उठाए हैं. लेकिन ये प्रयास तब तक अधूरे रहेंगे जब तक आंगनबाड़ी केंद्रों का नियमित संचालन सुनिश्चित नहीं होगा.
अगर केंद्र सही ढंग से नहीं चलेंगे, तो पोषण पखवाड़ा भी महज दिखावा साबित होगा. सरकार को चाहिए कि वे केंद्रों को नियमित खोलने और बच्चों की उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए ठोस कदम उठाएं.
आंगनबाड़ी सिर्फ पोषण की व्यवस्था नहीं हैं- यह पहली कक्षा से पहले बच्चों की शैक्षिक नींव तैयार करती हैं. बाल विकास की दृष्टि से यह उम्र (3-6 वर्ष) सबसे महत्वपूर्ण होती है. मगर जब केंद्र ही बंद हों, या सेविकाएं अनुपस्थित हों, तो बच्चा क्या सीखेगा?
पूर्णिया की सीमा कुमारी कहती हैं, "हमारे यहां केंद्र सिर्फ सरकारी निरीक्षण के दिन खुलता है. बाकी समय तो ताला ही रहता है. और खाना? वो तो अक्सर सेविका के घर से आता है, या आता ही नहीं."
आगे का रास्ता: सुधार के लिए जरूरी कदम
बिहार में कुपोषण और आंगनबाड़ी केंद्रों की दयनीय स्थिति सुधारने के लिए जरूरी है कि
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निगरानी का दायरा बढ़े: केंद्रों के नियमित निरीक्षण से पता चले कि वे समय पर खुले हैं या नहीं. जवाबदेही तय होनी चाहिए.
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कार्यकर्ताओं का सम्मान बढ़े: वेतन में वृद्धि के साथ-साथ कार्यकर्ताओं को बेहतर ट्रेनिंग और सम्मान भी मिले.
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भोजन की गुणवत्ता पर फोकस हो: न सिर्फ भोजन दिया जाए, बल्कि वह पोषणयुक्त और बच्चों की सेहत के अनुकूल हो.
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समुदाय की भागीदारी जरूरी है: स्थानीय स्तर पर समुदाय के लोग आंगनबाड़ी केंद्रों की देखरेख में शामिल हों, जिससे पारदर्शिता बढ़े.
आखिरी सोच
बिहार के आंगनबाड़ी केंद्रों की हालत को देखकर साफ है कि यह सिर्फ केंद्रों की समस्या नहीं, बल्कि सिस्टम की विफलता है. जब तक बच्चों को बेहतर पोषण और स्वास्थ्य की गारंटी नहीं मिलेगी, तब तक बिहार के विकास की कहानी अधूरी रहेगी.
यह वक्त है कि सरकार, समाज और समुदाय मिलकर इस चुनौती का सामना करें. आंगनबाड़ी केंद्र बच्चों के उज्जवल भविष्य की नींव हैं, उन्हें मजबूत बनाना हम सभी की जिम्मेदारी है.