हमारे मुल्क के बारे में दो बातें कही जाती हैं जो बिल्कुल सटीक है. पहला, भारत एक कृषि आधारित देश है. और दूसरा- भारत एक युवा मुल्क है. यानी युवाओं की आबादी अधिक है. इन दोनों बातों में एक तथ्य सामान्य है. किसान और युवा, दोनों ही आत्महत्या के लिए मजबूर हैं.
जब मुल्क के किसान और युवा छात्र आत्महत्या करने को मजबूर हो जायें, तो उस मुल्क का भविष्य कैसा होगा? जो आंकड़े सरकारी तंत्र जमा कर रही है, उससे तो यही सामने आ रहा है कि सब कुछ जानते हुए हमारे नीति निर्माता आंख और कान बंद कर बैठे हुए हैं. भविष्य की भयावहता जानते हुए उसे ख़त्म या न्यूनतम स्तर पर लाने की कोशिश भी नहीं की जा रही है.
हर 40 मिनट पर एक छात्र ने की आत्महत्या
बुधवार 29 अगस्त को आईसी3 कॉन्फ्रेंस और एक्सपो 2024 में, 'छात्र आत्महत्या: भारत में फैलती महामारी' (Student suicides: An epidemic sweeping India) रिपोर्ट जारी की गयी. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आंकड़ों के आधार पर तैयार की इस रिपोर्ट में बताया गया है कि देशभर हर 40 मिनट पर एक छात्र अपनी जान दे रहे हैं. रिपोर्ट के आंकड़े कहते हैं, रोज़ाना 35 से ज़्यादा छात्र अपनी जान दे रहे हैं.
रिपोर्ट कहती है- देश में जहां कुल आत्महत्या के मामलों में 2 फ़ीसदी की वृद्धि हुई है, वही छात्र आत्महत्या के मामलों में 4 फ़ीसदी की वृद्धि हुई है.
बेरोज़गारी आत्महत्या की बड़ी वजह
कोई व्यक्ति या छात्र किन परिस्थितियों में आत्महत्या कर रहा है, इसके कई कारण हो सकते हैं. वहीं छात्रों द्वारा आत्मघाती कदम उठाए जाने को लेकर रिपोर्ट में मुख्यतः 10 कारक को ज़िम्मेदार बताया है. अगर परिवार, समाज और शैक्षणिक संस्थान इन 10 कारकों पर ध्यान दें तो छात्रों की जान बचाई जा सकती है.
रिपोर्ट के अनुसार छात्र द्वारा आत्मघाती कदम उठाने में एकेडमिक डिस्ट्रेस (शैक्षणिक दबाव) एक बहुत बड़ा कारण है. देश में आज भी परीक्षा में नंबर या ग्रेड और कोर्स ख़त्म होने पर प्लेसमेंट ही सफ़लता की निशानी है. जिसका छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य पर काफ़ी बुरा प्रभाव पड़ता है.
मानसिक परेशानियों से घिरे हैं छात्र
अच्छे ग्रेड या प्लेसमेंट के दबाव में छात्र न केवल आत्मघाती कदम उठाते हैं, बल्कि कई मामलों में, अपना मानसिक संतुलन भी खो बैठते हैं. लखीसराय जिले के बघौर गांव के रहने वाले बिपुल कुमार (बदला हुआ नाम) ने इंजिनीयरिंग की पढ़ाई की है. लेकिन प्लेसमेंट नहीं होने के दबाव ने उन्हें मानसिक बीमारी का शिकार बना दिया.
बिपुल कुमार के बड़े भाई, बिपुल की इस हालत पर कहते हैं “पढ़ने में शुरू से ही बहुत तेज़ था और मेहनत भी बहुत करता था. हम लोग किसान परिवार से हैं. हमारे घर में किसी ने बारहवीं से ज़्यादा पढ़ाई नहीं की. लेकिन उसे पढ़ना पसंद था. इसलिए हमने उसे पटना से लेकर ओडिशा तक भेजा. लेकिन क्या पता था यही पढ़ाई उसे मानसिक रोगी बना देगी.”
बिपुल के भाई बातचीत के दौरान अपना रोष भी जाहिर करते हैं, जिसमें वह जताते हैं की बिपुल के पढ़ाई पर होने वाले ख़र्च का परिवार पर कितना दबाव था. लेकिन बिना किसी कर्ज या बैंक लोन के उनके परिवार ने इसे पूरा किया.
परिवार आज भी यह समझने को तैयार नहीं हैं की छात्र जीवन में बिपुल के ऊपर पढ़ाई पर होने वाले ख़र्च, अच्छे रिज़ल्ट और नौकरी को लेकर कितना दबाव रहा होगा.
आंकड़ों के अनुसार भारत में 15 से 24 वर्ष की आयु के सात में से एक युवा ख़राब मानसिक स्वास्थ्य का सामना कर रहा है. जिसमें अवसाद और उदासीनता जैसे लक्षण शामिल हैं. लेकिन हैरानी और चिंताजनक बात यह है कि सर्वेक्षण में शामिल केवल 41% लोगों ने मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं पर किसी की मदद लेने की इच्छा जताई. जबकि विश्वभर में मानसिक स्वास्थ्य चुनौतियों का सामना कर रहे 86% युवाओं ने मदद की इच्छा जताई.
संस्थानों में जातिगत भेदभाव मानसिक दबाव की वजह
छात्र आत्महत्या के मामलों में ‘भेदभाव’ का मामला भी प्रमुख रूप से कारण बनता रहा है. छात्रों से यह भेदभाव जाति, धर्म, रंग या आर्थिक संपन्नता के आधार पर शैक्षणिक संस्थानों में किया जाता है.
15 फ़रवरी 2024 को आईआईटी दिल्ली में एमटेक फाइनल इयर के छात्र वरद संजय नेरकर ने आत्महत्या कर ली थी. मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार इस मामले में परिवार वालों ने प्रोफेसर और साथी छात्रों पर उत्पीड़न का आरोप लगाया था. आईआईटी दिल्ली में छात्र आत्महत्या का यह हाल के दिनों में तीसरा मामला था.
बीते वर्ष केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार 2014 से 2023 के बीच केवल आईआईटी संस्थानों में प्रत्येक वर्ष कम से कम चार आत्महत्याएं हुई थी. वहीं 2014 से 2021 तक कुल 34 मामले दर्ज हुए थे.
वहीं भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम), भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी) और अन्य केंद्रीय विश्वविद्यालयों को इसमें शामिल करने पर आंकड़े 122 तक पहुंच जाते हैं. जिनमें आधे से अधिक आत्महत्या करने वाले छात्र दलित और ओबीसी वर्ग से आते थें.
देश के प्रमुख शिक्षा संस्थानों में होने वाली इन घटनाओं को रोकने के लिए संस्थान में एससी/एसटी सेल, काउंसिलिंग के लिए वेलनेस सेंटर बनाये जाने का नियम बनाया गया है. लेकिन किसी भी संस्थान में ये सुविधाएं मौजूद नहीं होती हैं.
बीते वर्ष न्यूजलॉन्ड्री में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार देश की 23 आईआईटी में से केवल तीन- बॉम्बे, रुड़की और दिल्ली में एससी/एसटी सेल बने थे. उसमें भी आईआईटी दिल्ली में यह बीते साल अप्रैल में ही खोला गया था.
छात्रों की क्षमताओं को बढ़ावा दें संस्थान
आईसी3 संस्था, जिसने 'छात्र आत्महत्या की रिपोर्ट जारी की थी, के संस्थापक गणेश कोहली का कहना है कि “यह रिपोर्ट हमारे शैक्षणिक संस्थानों में मानसिक स्वास्थ्य चुनौतियों पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता पर जोड़ देता है.” गणेश कोहली के अनुसार “हमारे शैक्षणिक संस्थानों का ध्यान छात्रों की क्षमताओं को बढ़ावा देने पर होना चाहिए जिससे छात्रों का समग्र विकास होगा. ना की उन्हें एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करने के लिए प्रेरित करना चाहिए.”
क्या कहना है मनोवैज्ञानिक का?
डॉक्टर समिधा, बिहार की एक जानी मानी मनोवैज्ञानिक हैं. उन्होंने छात्रों की मनोस्थिति को बारीकी से समझने का काम किया है. डॉक्टर समिधा यहां शिक्षक और शैक्षणिक संस्थानों की ज़िम्मेदारियों पर भी ज़ोर देती हैं. उनका कहना है, “आज के शैक्षणिक संस्थानों में यह ज़रूरी है कि छात्रों के मेंटल हेल्थ पर चर्चा हो. उस पर सेमिनार हो. आज भी संस्थानों में मेंटल हेल्थ प्रोफेशनल की कमी है. संस्थान इस पर ध्यान नहीं देते हैं. जिस तरह से एकेडमिक के विषयों के निरंतर क्लास होते हैं वैसे ही मेंटल हेल्थ के लिए सेशन होने चाहिए. इसमें ना केवल छात्र बल्कि शिक्षक भी शामिल हो. क्योंकि शिक्षकों में भी यह समझ बनाना ज़रूरी है कि कब और किस समय किसी छात्र को मदद की ज़रूरत है.”
डॉक्टर समिधा आज के परिवेश के हिसाब से छात्रों के लिए माहौल विकसित करने की बात कहती हैं. पारिवारिक दबाव से बाहर भी कई तरह के दबाव जैसे- सोशल मीडिया, एकेडमिक, रिलेशनशिप और सफल होने का दबाव उन पर है. ऐसे में अगर कही से उन्हें यह लगता है कि उन्हें मन के अनुसार रिज़ल्ट नहीं मिलेगा तो वे सुसाइड जैसे कदम उठा लेते हैं.
पेरेंट्स की क्या ज़िम्मेदारी होनी चाहिए?
जिस तरह से छात्रों की आत्महत्या और मानसिक दबाव के मामले सामने आ रहे हैं, इसमें पेरेंट्स की ज़िम्मेदारी क्या होती है? सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी है, सुनना. सभी को अपना दुःख और अपना संघर्ष बड़ा और महान लगता है. इसलिए पेरेंट्स अपने बच्चों के संघर्ष, समाज उनके दुःख को कभी नहीं सुनता और समझता है.
अपने बच्चों को एक ऐसा कम्फर्ट ज़ोन देना चाहिए कि वो अपने मां-बाप से खुलकर बात करने की हिम्मत कर सकें. अगर आपका बच्चा आपसे बात करने में झिझक रहा है तो आप ख़ुद उनसे बात करें. उनसे पूछें कि क्या वो ठीक हैं? क्या उन्हें किसी तरह की परेशानी है?
सफ़लता, इज़्ज़त और समाज के दिखावा से बढ़कर बच्चों की जान है. इसलिए वक्त रहते बच्चों की स्थिति समझना और उस पर काम करना बहुत ज़रूरी है.