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"चार कोस चलने के बाद जब बाल्टी में आधी बाल्टी पानी आता है, तो मन भर जाता है. सोचते हैं क्या यहीं जीना है?" — सुनीता देवी, जोकीहाट, अररिया
खोखली जगह की किस्से की ज़बानी है
अररिया जिले के जोकीहाट प्रखंड के एक छोटे से गांव की मिट्टी से यह कहानी शुरू होती है. यहां की महिलाएं सुबह उठते ही खाली बर्तन लेकर निकल जाती हैं—नहाने या पीने के लिए नहीं, पानी लाने के लिए.
सुनीता देवी की उम्र पचपन पार कर चुकी है, लेकिन सुबह छह बजे की धूप से पहले वो ढाई किलोमीटर चलकर एक नहर से पानी भरकर लाती हैं. बगल की पड़ोसन फूलो खातून कहती हैं,
"अब पानी नहीं बचा गांव में. कुआं सूख गया, चापाकल उखड़ चुका. बोरिंग का पानी अब निकलता ही नहीं."
यह कहानी सिर्फ अररिया की नहीं है. यह पूरे बिहार की हकीकत है.
जब धरती ने पीना छोड़ दिया
पिछले कुछ वर्षों में, बिहार की धरती ने पानी पीना जैसे छोड़ ही दिया है. खेत सूखे हैं, कुएं वीरान हो चुके हैं और चापाकलों से सिर्फ आवाज़ निकलती है, पानी नहीं. भारत सरकार के 'Ground Water Year Book 2022-23' के मुताबिक, बिहार के कई जिलों में भूजल स्तर चिंताजनक रूप से गिर गया है.
सुपौल जैसे सीमावर्ती जिले में भूजल स्तर में 1.54 मीटर की गिरावट दर्ज की गई है. वहां के किसान बताते हैं कि पहले जून के महीने में जहां खेतों की मेड़ से पानी रिसता था, अब जुलाई तक भी मिट्टी सूखी रहती है. मधेपुरा, गोपालगंज और औरंगाबाद जैसे जिलों में भी स्थिति गंभीर है. यहां एक मीटर से अधिक की गिरावट दर्ज की गई है. ये आंकड़े सिर्फ सरकारी रिपोर्टों तक सीमित नहीं हैं, ये किसानों के पेट और बच्चों की भूख में तब्दील हो गए हैं.
खेत बंजर, सपने भी
मुहम्मद इमरान (किसान, बनमनखी) कभी 10 बीघा जमीन पर धान बोया करते थे. इस बार उन्होंने बीज भी नहीं डाला. उनका कहना है: "धान की नर्सरी तैयार थी, लेकिन सिंचाई का पानी नहीं था. एक-एक पौधा सूख गया. साहब, अब तो खेती छोड़ दी है."
उनकी आंखों में अब खेती की जगह ट्रेन की पटरियां दौड़ती हैं. पटरियां जो उन्हें पटना से लेकर पंजाब, हरियाणा और गुजरात की तरफ धकेलती हैं. मधुबनी के नवीन यादव अपने घर में बैठकर चुपचाप मुंबई की ट्रेन का इंतजार कर रहे हैं. वो कहते हैं, "गांव में रहकर क्या करेंगे? पानी नहीं, काम नहीं. यहां बच्चों को भूखा नहीं मार सकते."
सरकारी योजनाएं, सूखी हकीकत
बिहार सरकार की 'हर घर नल, हर घर जल' योजना भले ही 95 प्रतिशत कवरेज का दावा करती हो, लेकिन ज़मीनी सच्चाई कुछ और है. Democratic Charkha की फील्ड रिपोर्टिंग से यह सामने आया कि यह योजना कई जिलों में या तो अधूरी है या पूरी तरह से निष्क्रिय. कटिहार जिले में कई गांवों में पाइप लाइन तो बिछ गई, लेकिन महीनों से पानी नहीं आया.
शिवहर में पंप खराब पड़ा है और पंचायत के पास मरम्मत के लिए पैसे नहीं हैं. सीतामढ़ी की स्थिति सबसे चिंताजनक है जहां पानी आता तो है, पर वह इतना गंदा होता है कि बच्चे दस्त और बुखार से परेशान रहते हैं.
रीता देवी, कटिहार के एक गांव की निवासी, कहती हैं,
"नल लगा तो है, लेकिन जब से लगा है, एक बार भी पानी नहीं आया. अब तो नल पर लता बेल चढ़ गया है."
जब आसमान भी रूठ जाए
कभी-कभी लगता है कि सिर्फ ज़मीन ही नहीं, आसमान भी बिहार से रूठ गया है. भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD) की रिपोर्टों के अनुसार, पिछले 10 वर्षों में बिहार में मानसूनी वर्षा में औसतन 20 प्रतिशत की कमी आई है. साल 2019 और 2022 में यह कमी 40 प्रतिशत तक दर्ज की गई थी.
पूर्णिया के एक स्कूल शिक्षक, प्रकाश मिश्रा, बताते हैं, "पहले जुलाई में लगातार बारिश होती थी. अब दो दिन होती है और फिर 15 दिन सूखा. इससे फसल चौपट हो जाती है."
पलायन: पानी के पीछे, पेट के लिए
बिहार इकोनॉमिक सर्वे 2022-23 के अनुसार, हर साल 15 से 18 लाख लोग राज्य से बाहर पलायन करते हैं. इनमें से अधिकांश गांवों से हैं और करीब 20-25 प्रतिशत लोगों ने पानी की समस्या को पलायन की मुख्य वजह बताया है.
पूर्णिया के रफीक अंसारी कहते हैं: "अबकी बार भट्ठा जाने का मन नहीं था, लेकिन खेत में फसल नहीं हुआ. कर्ज चुका नहीं सकते थे. मजबूरी है."
बिहार की महिलाएं जल संकट का सबसे अधिक बोझ झेलती हैं. गया, औरंगाबाद और जहानाबाद जिलों में महिलाएं प्रतिदिन 3 से 5 किलोमीटर पैदल चलकर पानी लाती हैं.
रीना देवी (औरंगाबाद): "गर्भवती हूं, लेकिन पानी लाने जाना पड़ता है. बेटा छोटा है, वो स्कूल नहीं जाता, क्योंकि वो बाल्टी भरता है."
जल संकट ने महिलाओं की ज़िंदगी को और जटिल बना दिया है. उनके स्वास्थ्य पर असर तो पड़ ही रहा है, साथ ही बच्चों की पढ़ाई और घर की दिनचर्या भी प्रभावित हो रही है.
परंपरागत स्रोत, जो अब भूले-बिसरे किस्से हैं
बिहार में कभी तालाब, आहर-पईन और कुएं जल संचयन का आधार हुआ करते थे. लेकिन आज ये स्रोत या तो अतिक्रमण का शिकार हैं या प्रशासनिक उपेक्षा का. 70 प्रतिशत से अधिक आहर-पईन अब जमीनदारी विवादों या खेती के विस्तार में समा चुके हैं. तालाबों की मिट्टी ट्रैक्टर से निकालकर बेच दी गई और कुएं अब सिर्फ पिकनिक की जगह रह गए हैं.
हल कहां है?
अब सवाल उठता है कि हल क्या है? इसका जवाब भी इन्हीं गांवों में छुपा है. रेनवॉटर हार्वेस्टिंग को पंचायतों में अनिवार्य किया जाए. पारंपरिक जल स्रोतों का पुनरुद्धार किया जाए. जल उपयोग पर सामुदायिक निगरानी तंत्र बनाया जाए और महिलाओं को जल समिति में प्रतिनिधित्व दिया जाए. साथ ही जल संकट और पलायन पर विस्तृत सरकारी सर्वे कर पॉलिसी तैयार की जानी चाहिए.
गांव बचेगा तभी बिहार बचेगा
बिहार की असल ताकत उसके गांव हैं. जब गांव में पानी नहीं रहेगा, तो वहां आदमी कैसे रहेगा? जब खेत सूखेंगे, तो अनाज कौन उगाएगा?
जल संकट अब सिर्फ पर्यावरणीय मुद्दा नहीं, आजीविका, शिक्षा और स्वास्थ्य से जुड़ा सामाजिक संकट बन चुका है.
Democratic Charkha की यह रिपोर्ट सिर्फ आंकड़े नहीं, लोगों की जिंदगी का आईना है. यह लेख सिर्फ सूचनाएं नहीं, सवाल करता है— कब तक हम पानी की बूंद-बूंद को तरसते गांवों की चुप्पी पर चुप रहेंगे?