/democratic-charkha/media/media_files/2025/06/04/koisi-dharna-2-601502.webp)
"छप्पर पर बच्चे थे, नीचे बाढ़ का पानी और ऊपर से सांप! क्या यही ज़िंदगी है?" ये सवाल मालती देवी की फटी आवाज़ में नहीं, एक टूटी हुई ज़िंदगी की चीख़ की तरह गूंजा.कोसी तटबंध के भीतर बसे एक गांव की इस महिला की पुकार उस वक़्त हवा में तैर गई जब सुपौल ज़िले के निर्मली अनुमंडल कार्यालय के सामने सैकड़ों बाढ़ पीड़ित एक दिवसीय धरने पर बैठे थे. इस एक वाक्य ने वहां मौजूद प्रशासनिक अधिकारियों को कुछ पल के लिए चुप कर दिया.जैसे किसी ने सारा सच एक ही सांस में कह दिया हो.
सवाल सिर्फ पानी में डूबे घरों का नहीं था, सवाल था उस व्यवस्था का जो हर साल सब कुछ डूबता देखती है, लेकिन कुछ नहीं करती.धरना का आयोजन कोसी नव निर्माण मंच द्वारा किया गया, जिसमें सुपौल ज़िले के निर्मली और मरौना प्रखंड के बाढ़ और कटाव पीड़ित शामिल हुए. धरना देने आए लोग सिर्फ पानी में डूबी ज़िंदगी की शिकायत नहीं कर रहे थे – वे न्याय, पुनर्वास और अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे थे.
हर साल कोसी लीलती है घर और ज़िंदगी
धरना में मौजूद महिलाओं और पुरुषों ने बताया कि कैसे हर साल कोसी की बाढ़ उनके घर, खेत और मवेशियों को बहा ले जाती है. महिलाएं बताती हैं कि कैसे बाढ़ आने पर छप्पर ही उनका शरण स्थल बन जाता है. "छोटे बच्चों को छत पर ले जाती हूं, डर लगता है कहीं सांप न आ जाए, और कई बार तो आए भी," एक स्थानीय महिला नेहा ने डेमोक्रेटिक चरखा से कहा. कटाव पीड़ितों ने बताया कि जब वे मजबूरी में तटबंध पर झोपड़ी डालते हैं, तो आसपास के लोग पत्थर फेंक कर भगा देते हैं. प्रशासन से कोई स्थायी समाधान नहीं मिलता.बाढ़ में विस्थापन और तटबंध पर ज़िंदगी
/democratic-charkha/media/media_files/2025/06/04/kosi-tatbandh-656868.webp)
जब हमने कोसी नव निर्माण मंच के संस्थापक महेंद्र यादव से बात की तो बताते हैं “हर साल कोसी का कटाव होता है, और हर साल लोग बेघर होते हैं. जो जहां जगह मिलती है, वहीं झोपड़ी डाल देता है. अमीर लोग तो पहले ही बाहर चले गए, गरीबों के पास विकल्प नहीं है. वो बांध के भीतर ही बसते हैं किसी के खेत में, किसी के गांव में. अनाज या थोड़ा बहुत किराया देकर रहते हैं. तटबंध की चौड़ाई कहीं-कहीं 10 किलोमीटर तक है".
जो गांव करीब हैं, वहीं के लोग कटने पर बांध की तरफ भागते हैं. इस साल की बाढ़ में, पिछले साल की बाढ़ में हर समय के विस्थापित यहाँ बसे हैं.
नहीं मिलती है कोई सुविधा
महेंद्र यादव ने हमसे आगा बात करते हुए बताया कि “2020 में प्रशासन की तरफ से कुछ जगहों पर टीकाकरण हुआ, लेकिन फिर सब रुक गया. आज भी वहाँ कोई उप स्वास्थ्य केंद्र नहीं है. स्कूल नहीं हैं, जो हैं भी तो 3-4 किलोमीटर दूर हैं. बच्चे झोपड़ी नुमा स्कूलों में पढ़ते हैं.
महेंद्र बताते हैं कि “कई गांवों में आज भी आंगनवाड़ी केन्द्र नहीं चलते तीन वार्ड के लोग एक ही आंगनवाड़ी के सहारे हैं, वह भी तटबंध के बाहर है. बांध के भीतर एक भी केन्द्र नहीं है. शौचालयों का हाल भी वैसा ही है – ज्यादातर जगहों पर नहीं हैं.”
पिछली बाढ़ का मुआवजा अभी तक नहीं मिला
बाढ़ के दौरान घर के नुकसान होने पर सरकार मुआवजा देती है जिसमें झोपड़ी होने पर ₹ 4000 और पक्का मकान होने पर ₹ 1,20,000 रुपए मिलते है लेकिन जीना घर पिछले साल बहा है उन्हें भी अभी तक किसी भी तरह का मुआवजा नहीं मिला है वो लोग तटबंध के अंदर बेघरों की तरह जीवन जी रहे है.
जिला प्रशासन पर SOP की अवहेलना का आरोप
हर साल बाद से पूर्व आपदा प्राधिकरण विभाग फ्लड प्रोन एरिया है जहाँ फ्लड की संभावना है. तो प्री फ्लड की तैयारियों में नाव का व्यवस्था करना, सुखा राशन, रेस्क्यू प्लान बनाना इत्यादि सब कुछ करता है.
/democratic-charkha/media/media_files/2025/06/04/koisi-flood-775560.webp)
कोसी नव निर्माण मंच का आरोप है कि जिला प्रशासन सरकार द्वारा तय किए गए स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर (SOP) और मानकों का पालन नहीं कर रहा न नावें हैं, न स्वास्थ्य केंद्र, न राहत सामग्री, न पुनर्वास. "हम लोग बाढ़ पीड़ित हैं, हम अपराधी नहीं. लेकिन हमारे साथ ऐसा व्यवहार किया जाता है जैसे हम इस ज़मीन पर बोझ हों," आंदोलन में शामिल एक बुजुर्ग ने कहा.
कोसी पीड़ित विकास प्राधिकरण: एक भूला हुआ वादा
1987 में बिहार सरकार ने ‘कोसी पीड़ित विकास प्राधिकरण’ की स्थापना की थी.और इसके अध्यक्ष थे लहटन चौधरी चौधरी जी ने कोसी के इलाके में रहने वाले लोगो के लिये एक वाक्य लिख था जो है “कोसी के लोग शंकर भगवान की तरह गरलपान कर लिए और अपने छाती पर तटबंध बनने दिए. इनके लिए सरकार जितना काम करे. वो कम है”. प्राधिकरण के तहत बांध के भीतर रहने वाले लोगों के लिए 17 बिंदुओं पर काम होना था – रोजगार, शिक्षा, पुनर्वास, खेती, आरक्षण आदि. इस प्राधिकरण का ऑफिस सहरसा में था. यहां के नौजवानों को सरकारी और प्राइवेट संस्थानों में 15% आरक्षण की बात थी. लेकिन 2006 के बाद से यह प्राधिकरण ही गायब हो गया. इसपर हमसे बात करते हुए महेंद्र यादव ने कहा की "उन्होंने इस पर आरटीआई भी की, विधानसभा में सवाल भी पुछवाया, लेकिन कोई जवाब नहीं मिला".इन सभी वजहों से कोसी नव निर्माण मंच ने धरना दिया था और उस धरने में अपनी 9 मांगे राखी थी.
क्या हैं 9 सूत्रीय मांगे?
1. तटबंध के भीतर रह रहे पुनर्वास वंचित लोगों का सर्वे कर पुनर्वास देना.
2. मानसून से पहले सभी घाटों पर सरकारी नावों की बहाली और उनके मालिकों को परवाना.
3. सभी कटाव पीड़ितों को गृह क्षति मुआवजा, वस्त्र, बर्तन और मवेशियों की क्षति का मुआवजा.
4. उप-स्वास्थ्य केंद्रों की स्थापना और मोटर-बोट क्लिनिक भेजना.
5. कोसी पीड़ित विकास प्राधिकार को पुनः सक्रिय करना.
6. तटबंध के भीतर 4 हेक्टेयर तक की ज़मीन वाले किसानों से लगान वसूली पर रोक.
7. सहायता राशि (GR) से वंचित लोगों को लाभ देना.
8. स्कूल और आंगनबाड़ी केंद्रों की स्थापना.
9. स्वास्थ्य सेवाओं और टीकाकरण को लेकर स्थायी व्यवस्था.
इन सभी मानगो को लेकर कोसी नव निर्माण मंच ने एक दिवसीय धरना दिया जिसके बाद sdo ने उनके आवेदन को लिया और आश्वासन दिया की इसको आगे बढाया जाएगा.
क्या कोसी का इलाका सरकारी उपेक्षा का प्रतीक है ?
बिहार में हर साल कोसी की बाढ़ समाचार बनती है जान-माल, फसल, घर सबका नुकसान. लेकिन सरकार की तैयारी हर बार अधूरी ही होती है.
महेंद्र यादव सवाल उठाते हैं:
“सरकार हर साल जानती है कि कोसी बाढ़ लाएगी. फिर भी तैयारी नहीं होती. कोई ठोस योजना नहीं बनती. हर साल राहत बाँट दी जाती है, लेकिन लोगों के पुनर्वास की कोई योजना नहीं बनती.”
/democratic-charkha/media/media_files/2025/06/04/kosi-dharna-443100.webp)
धरना की यह तस्वीर बिहार की उस बड़ी सच्चाई को उजागर करती है जिसे अक्सर आंकड़ों और रिपोर्टों में दबा दिया जाता है. विकास के दावे और ज़मीनी सच्चाई के बीच का गहरा अंतर.सरकार और प्रशासन को चाहिए कि इन आवाज़ों को दबाने के बजाय सुने क्योंकि ये आवाजें सिर्फ पानी में डूबी ज़मीन की नहीं, बल्कि डूबते हुए भरोसे की हैं.