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गंगा, सिर्फ़ एक नदी नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति और सभ्यता की आत्मा है. यह वही गंगा है, जिसकी धारा में डुबकी लगाकर लोग अपने पापों से मुक्ति पाने की आशा करते हैं. यह वही गंगा है, जिसके किनारे हजारों वर्षों से सभ्यताओं ने जन्म लिया और पनपीं. परंतु, आज यह गंगा रो रही है. इसका निर्मल जल काला पड़ता जा रहा है, इसकी लहरों में अब जीवन नहीं, बल्कि मौत की दस्तक सुनाई देती है.
नमामि गंगे: वादों और हकीकत के बीच
2014 में जब "नमामि गंगे" योजना की घोषणा हुई थी, तो देशभर में एक उम्मीद जगी थी कि अब गंगा फिर से स्वच्छ और निर्मल होगी. सरकार ने 32,912 करोड़ रुपये की 409 परियोजनाएँ शुरू कीं, लेकिन दस साल बाद भी हालात ज्यों के त्यों हैं. केंद्रीय जल शक्ति मंत्री ने संसद में दावा किया कि गंगा में प्रदूषण का स्तर कम हुआ है, लेकिन जब हकीकत के आंकड़े सामने आए, तो सब कुछ उल्टा नजर आया.
जनवरी 2023 में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) ने गंगा के 97 निगरानी स्टेशनों में से केवल 59 स्टेशनों से नमूने लिए, जिनमें से 71% स्टेशनों पर पानी में फीकल कोलीफॉर्म (मल जीवाणु) की मात्रा खतरनाक स्तर पर थी. उत्तराखंड को छोड़ दें, तो उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल में हालात भयावह हैं. बिहार में तो हालात इतने खराब हैं कि कई स्थानों से कोई नमूना तक नहीं लिया गया. यह सवाल खड़ा करता है कि क्या वास्तव में सरकार को गंगा की पवित्रता की परवाह है?
पटना में गंगा: अब नदी नहीं, गंदे नालों का संगम
पटना, वह शहर जो कभी गंगा के किनारे बसने के कारण अपनी समृद्धि के लिए जाना जाता था, आज गंगा से दूर होता जा रहा है. शहर के 23 नाले, बिना शोधित किए सीधे गंगा में गिर रहे हैं. पटना के घाटों पर अब स्नान करना दूभर हो गया है, क्योंकि वहां पानी की जगह कचरे का अंबार दिखाई देता है. जो गंगा कभी पुण्य देने वाली मानी जाती थी, आज वह बीमारी फैलाने वाली बन चुकी है.
बक्सर में रहने वाले विष्णु जब गंगा में स्नान करने गए तो उनके साथ एक घटना घटी. विष्णु बताते हैं कि “बक्सर में चौसा या उसके आसपास के गंगा घाट की स्थिति दयनीय है. मैं महाशिवरात्रि के दिन चौसा के रानी घाट पर स्नान करने गया था लेकिन मेरा शरीर हरे हरे शैवाल से भर गया. चौसा में चिन्हित श्मशान घाट होने के बावजूद भी जगह जगह अन्य कई घाटों पर लाश जलाई जा रही हैं. चिता की राख जली हुई लकड़ियां और कपड़े इधर उधर फैले हुए हैं. हाल हीं में सरस्वती पूजा बीता है. घाट किनारे मूर्तियों के अवशेषों के अंबार लगे हुए हैं.”
बिहार राज्य प्रदूषण नियंत्रण पर्षद की रिपोर्ट बताती है कि भागलपुर, बक्सर, कहलगांव, मुंगेर और सुल्तानगंज जैसे स्थानों पर सीवेज का गंदा पानी गंगा में मिल रहा है. बावजूद इसके, सफाई के नाम पर करोड़ों रुपये स्वीकृत किए जा रहे हैं, लेकिन धरातल पर कोई बदलाव नहीं दिखता.
राशि बैंक में पड़ी रही, गंगा में गंदगी बढ़ती रही
नमामि गंगे योजना के तहत बिहार को 1259 करोड़ रुपये की आठ बड़ी परियोजनाएँ मिलीं. लेकिन, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) की रिपोर्ट बताती है कि सरकार के पास पैसा होने के बावजूद वह खर्च नहीं किया गया. 2016 से 2020 के बीच इस योजना के लिए मिले धन का केवल 16-50% उपयोग किया गया. नतीजा? सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (STP) आधे-अधूरे रह गए और गंगा में गंदगी का बहाव जारी रहा.
यह स्थिति सिर्फ़ बिहार की नहीं है, बल्कि पूरे गंगा तटीय क्षेत्र में यही हाल है. नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) ने भी राज्य सरकारों पर जुर्माना लगाया, लेकिन हालात नहीं बदले.
गंगा का सिकुड़ता प्रवाह और सूखती आत्मा
एक समय था जब गंगा की लहरें पूरे साल बहती थीं, लेकिन अब यह भी अतीत की बात हो गई है. केंद्रीय जल आयोग के अनुसार, गंगा बेसिन में जल भंडारण क्षमता आधे से भी कम रह गई है. जलवायु परिवर्तन, अवैध रेत खनन और अंधाधुंध शहरीकरण ने गंगा की धारा को सिकुड़ने पर मजबूर कर दिया है.
बक्सर से कहलगांव तक गंगा की धारा बीते दो दशकों में एक तिहाई रह गई है. जहां पहले नाव से यात्रा करने में घंटों लगते थे, अब वही दूरी कुछ मिनटों में तय हो जाती है, क्योंकि नदी का विस्तार कम हो गया है. पटना में गंगा कभी शहर के करीब बहती थी, लेकिन अब यह 500 मीटर से 4 किलोमीटर दूर जा चुकी है. कई स्थानों पर नदी का प्रवाह इतना कमजोर हो गया है कि वहां लोग खेती करने लगे हैं.
पटना के रहने वाले मछुआरे से जब हमने बात की तो उन्होंने बताया कि “ आज से 10 वर्ष पहले की बात करें तो गंगा किनारे ही ढेर सारी मछलियां मिल जाए करती थी लेकिन अब गंगा के किनारे कोई भी मछली पकड़ने नहीं जाता है. गंगा का पानी सुख गया है. ये जो बड़ा बड़ा पुल बना है सब इसके कारण ही हुआ है. दूर दूर तक बस बंजर ज़मीन ही दिखती है. ऐसे में ये हमारे काम में भी बाधा डालती है साथ ही साथ हमारी मां को भी गंदी कर रही है. सरकार को चाहिए कि नमामि गंगे जैसे अभियान में जो धांधली हो रही है उसकी जांच करे और ठीक से काम करे.”
गंगा को बचाना क्यों जरूरी है?
गंगा सिर्फ एक नदी नहीं, बल्कि देश की आधी आबादी के जीवन का आधार है. बिहार की 8 करोड़ और देश की 50 करोड़ से अधिक जनता किसी न किसी रूप में गंगा पर निर्भर है. लेकिन अगर गंगा ही दम तोड़ देगी, तो हमारा भविष्य क्या होगा? गंगा में पानी घटने से भूमिगत जलस्तर भी गिर रहा है. जल संकट गहरा रहा है, और आने वाले दशकों में पीने के पानी की भारी कमी होने की आशंका है. गंगा का अस्तित्व सिर्फ धार्मिक आस्था से जुड़ा मामला नहीं, बल्कि पर्यावरण और जनजीवन का सवाल भी है.
गंगा: जो कभी जीवनदायिनी थी, अब बीमार हो गई है
गंगा, जिसे भारतीय संस्कृति में माँ का स्थान दिया गया है, आज अपने ही घर में घुटन महसूस कर रही है. यह वही गंगा है, जिसकी लहरों में स्नान कर लोग अपने पाप धोने का विश्वास रखते थे, परंतु आज हालात ऐसे हैं कि गंगा का जल स्वयं मैला हो चुका है. बिहार में स्थिति और भी भयावह है. हाल ही में जारी बिहार आर्थिक सर्वेक्षण 2024-25 की रिपोर्ट बताती है कि बिहार में गंगा का जल अब नहाने लायक भी नहीं रह गया है.
गंगा में बैक्टीरिया का जहर
बिहार राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (बीएसपीसीबी) हर पखवाड़े गंगा के 34 स्थानों पर जल की गुणवत्ता की निगरानी करता है, और इसके ताजा आंकड़े डराने वाले हैं. गंगा में फीकल कोलीफॉर्म और कुल कोलीफॉर्म की मात्रा खतरनाक स्तर तक पहुँच चुकी है. ये वे जीवाणु हैं, जो मल और सीवेज के पानी में पाए जाते हैं. इनकी उपस्थिति यह साबित करती है कि गंगा में अब शुद्ध जल नहीं, बल्कि गंदगी बह रही है.
गांधी घाट, गुलाबी घाट, त्रिवेणी घाट, गायघाट, केवाला घाट, एनआईटी घाट और हाथीदह जैसे स्थानों पर फीकल कोलीफॉर्म का स्तर अनुमेय सीमा 2,500 एमपीएन प्रति 100 मिलीलीटर से बहुत अधिक पाया गया. कुछ स्थानों पर यह स्तर 5,400 एमपीएन तक पहुँच गया, जो खतरनाक रूप से उच्च है. इसका मतलब यह है कि गंगा का पानी अब रोगाणुओं से भरा हुआ है, और इसमें स्नान करना बीमारियों को न्योता देने जैसा हो गया है.
गंगा किनारे की बस्तियों पर संकट
गंगा के किनारे बसे बिहार के महत्वपूर्ण शहर—बक्सर, छपरा, दिघवारा, सोनपुर, मनेर, दानापुर, पटना, फतुहा, बख्तियारपुर, बेगूसराय, मुंगेर, भागलपुर—सब इसी समस्या से जूझ रहे हैं. इन शहरों में गंगा का पानी पीने, नहाने, मछली पालन और कृषि के लिए इस्तेमाल किया जाता है. लेकिन अब जब गंगा ही प्रदूषित हो चुकी है, तो इन क्षेत्रों के लोग लगातार जलजनित बीमारियों की चपेट में आ रहे हैं. गंगा किनारे हजारों गाँव बसे हुए हैं. इन गाँवों के लोग गंगा से जीवन प्राप्त करते थे, लेकिन अब वही गंगा उनके लिए अभिशाप बनती जा रही है.
एम पी सिंह बताते हैं कि “गंगा विश्व का सबसे प्रसिद्ध और पवित्र नदियों में से एक है और भारत में सबसे लंबा है. गंगा में जिस तरह से आज भी लोगों का मल मूत्र लाश ये सब बहाया जाता है वो सिर्फ़ गंगा में न हो, गंगा अपनी सुरक्षा खुद कर लेगी लेकिन सरकार को चाहिए की गंगा का सीमांकन हो, गंगा को बचाने के लिए इसका सीमांकन होना बहुत ज़रूरी है. नमामि गंगे जैसा अरबों खरबों का प्रोजेक्ट हवा में चल रहा है सरकार को चाहिए की ज़मीनी स्तर पर जांच करे इस प्रोजेक्ट की. सरकार अगर गंगा को बचाना चाहती है तो सबसे पहले सीमांकन किया जाए दूसरी चीज़, मल, मूत्र, लाश, या कोई भी गंदगी को गंगा में न फेंका जाए और आख़िरी बात ये की गंगा को बचाने के लिए जो भी कार्यक्रम चल रहा हो उसपर सरकार नकेल कसे.”
गंगा में सीवेज का बढ़ता जहर
गंगा की इस दुर्दशा का मुख्य कारण है, शहरों से निकलने वाला सीवेज और औद्योगिक कचरा. बिहार के विभिन्न शहरों में सीवेज उपचार संयंत्र (एसटीपी) होने के बावजूद, उनका सही ढंग से संचालन नहीं हो रहा है. गंगा के किनारे कई शहरों में आज भी सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट अधूरे पड़े हैं.
बीएसपीसीबी के अध्यक्ष डीके शुक्ला ने खुद माना कि राज्य के अधिकांश एसटीपी पूरी क्षमता से काम नहीं कर रहे हैं. जब तक सीवेज का शोधन नहीं होगा, तब तक गंगा का जल साफ होने की उम्मीद रखना बेकार है.
सरकारें बड़े-बड़े वादे करती हैं, नमामि गंगे जैसी योजनाएँ चलाती हैं, लेकिन जब जमीनी हकीकत देखी जाती है, तो पता चलता है कि गंगा की स्थिति दिन-ब-दिन बदतर होती जा रही है.