सिनेमा मनोरंजन के सबसे बड़े साधनों के साथ-साथ समाज का आईना भी होता है. देश के किसी भी कोने में घटित हो रहे मुद्दे चाहे वह सकारात्मक हो या नकारात्मक उसे हम फिल्मों के माध्यम से एक बड़े जनमानस तक पहुंचा सकते है. इसके साथ ही फिल्में समाज की परम्परा, रीति-रिवाज और संस्कृति को उसके मूल स्वरूप में दिखाने में भी सहायक होता है.
ऐसी फिल्में जिसमें क्षेत्रीय परंपराओं को उसके मूल स्वरूप में दिखाते हुए वहां की समस्यायों या खूबियों को दिखाने में क्षेत्रीय सिनेमा काफी सहायक होती हैं. एक समय था जब केवल बॉलीवुड की मसाला फिल्मों को दर्शक पसंद किया करते थे या फिर केवल एक्शन, ड्रामा वाली फिल्में ही हीट और मुनाफा देती थी.
लेकिन भारतीय सिनेमा ने अपने 100 साल के सफर में काफी बदलाव देखे हैं. मुक सिनेमा से शुरू हुआ यह सफर आज काफी समृद्ध हो चुका है. हालांकि, वर्षों तक यह समृद्धि केवल बॉलीवुड सिनेमा तक ही सीमित रही थी. लेकिन, बीते कुछ सालों में क्षेत्रीय सिनेमा, ने अपने सीमित दायरे को बढ़ाकर पैन इंडिया में बदल लिया है. जहां दर्शकों के लिए भाषा अब बाधा नहीं रही है.
कन्नड़, तमिल, तेलगू, मलयालम और मराठी सिनेमा इंडस्ट्री में एक से बढ़कर एक फिल्में बन रहीं हैं. वहीं बेहतर डबिंग के कारण ज्यादा-से-ज्यादा दर्शक इन फिल्मों से जुड़ रहे है. बाहुबली, पुष्पा, आरआरआर, केजीएफ और कांतारा की सफलता ने क्षेत्रीय सिनेमा को विश्व पटल पर लाकर खड़ा कर दिया है.
आज बॉलीवुड में बनने वाली अधिकांश अच्छी फिल्में क्षेत्रीय फिल्मों की रिमेक होती है. लेकिन जिस प्रकार दक्षिण भारत के क्षेत्रीय सिनेमा ने प्रगति किया वैसी प्रगति देश के अन्य भागों मे देखने को नहीं मिली. केरल, कर्नाटक के अलावा असम, उड़ीसा, बंगाल, पंजाब, बिहार और झारखंड जैसे राज्यों में भी क्षेत्रीय सिनेमा बनाया जा रहा है लेकिन यहां बनने वाले सिनेमा को वह लोकप्रियता और सफलता नहीं मिली जो दक्षिण भारत के क्षेत्रीय सिनेमा को मिली. जिसका मुख्य कारण है इन राज्यों में फिल्म नीति का मजबूती से पालन ना होना.
झारखंड फिल्म नीति का निर्माण
फिल्में केवल मनोरंजन का ही नहीं बल्कि रोजगार, सामाजिक चेतना व सांस्कृतिक विकास का एक सशक्त माध्यम है. झारखंड में मौजूद प्राकृतिक सुंदरता, पारंपरिक रीति-रिवाज और कला संस्कृति देश के अन्य भागों में पहुंचे इसमें फिल्में काफी सहायक साबित हो सकती हैं. फिल्मों के औद्योगिक लाभ को समझते हुए झारखंड सरकार ने साल 2012 में ही फिल्मों को उद्योग का दर्जा दे दिया था. राज्य में फिल्म उद्योग को बढ़ावा मिल सके, इसके लिए फिल्म नीति (Film Niti) का होना आवश्यक है.
झारखंड फिल्म उद्योग को बढ़ावा देने के उद्देश्य से साल 2015 में फिल्म नीति (Jharkhnad Film Niti) लाई गई थी. इस फिल्म नीति का उद्देश्य झारखंड में फिल्म उद्योग, के समग्र विकास के लिए एक सुसंगठित ढांचा एवं उपयुक्त वातावरण उपलब्ध कराना है. फिल्म नीति युवा पीढ़ी के कलाकारों को अभिनय और फिल्म निर्माण के क्षेत्र में आगे बढ़ने का अवसर देने का वादा करती है.
फिल्म नीति के माध्यम से सरकार प्रदेश के सुंदर और मनोहर पर्यटन स्थलों का प्रचार-प्रसार पूरे देश और विश्व में करना चाहती है. जिससे आने वाले भविष्य में राज्य में ज्यादा-से-ज्यादा पर्यटक आ सके. साथ ही फिल्म उद्योग के माध्यम से राज्य में पूंजी निवेश को भी बढ़ाने का लक्ष्य रखा गया था.
इन उद्देश्यों को पूरा करने और उसके लिए रणनीति बनाने के लिए इस फिल्म नीति में, फिल्म विकास निगम की स्थापना किए जाने की बात कही गई थी. बीते 15 मार्च को झारखंड सरकार ने झारखंड फिल्म विकास निगम (FIDCOJ) के सदस्यों की घोषणा की है. इसके बाद से ही झारखंड के स्थानीय आदिवासी समुदाय के कलाकार इसका विरोध कर रहे हैं. उनका कहना है कि इस समूह में झारखंड के किसी भी कलाकार या निर्माता निर्देशक को जगह नहीं दिया गया है.
आदिवासी कलाकारों की अनदेखी
झारखंड मूलतः अपने आदिवासी समुदायों (tribal community) के लिए जाना जाता है.आदिवासी समुदायों की भाषा-बोली, रहन-सहन और रीति-रिवाज काफी भिन्न और अनूठे होते हैं. ऐसे में उनकी संस्कृति को करीब से समझने और जानने वाला व्यक्ति ही उसकी समस्याओं या जरूरतों को बेहतरीन ढ़ंग से बता सकता है.
फिल्म विकास निगम राज्य में बनने वाली फिल्मों को राष्ट्रीय स्तर पर श्रेष्ठ और प्रतिस्पर्धात्मक बनाए जाने के लिए सहयोग करेगी. राज्य में फिल्म निर्माण या प्रदर्शन के लिए मौजूद अधिसंरचनाओं (superstructures) के जीर्णोद्धार के लिए योजना बनायेगी. फिल्म निर्माण में लगे निर्माता को प्रशासनिक और वित्तीय सहायता उपलब्ध करवाएगी. साथ ही सिनेमा के प्रचार-प्रसार में लगी गैर-लाभकारी संगठनों को बढ़ावा देगी.
ट्राइबल सिनेमा ऑफ इंडिया (आदिवासी फिल्मकारों का एक समूह) का कहना है कि, जब FIDCOJ के सदस्य ही आदिवासी समाज या संस्कृति को नहीं जानते होंगे तो, वे यहां की फिल्मों या कलाकारों को क्या प्रोत्साहन देंगें.
ट्राइबल सिनेमा ऑफ इंडिया के सदस्य और डॉक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता दीपक बाड़ा कहते हैं “2015 में जब फिल्म नीति लाई गई तो इसका उद्देश्य था कि झारखंड के स्थानीय कलाकारों और यहां की संस्कृति को प्राथमिकता दी जाएगी. लेकिन यहां जो पिछली सरकार थी वह बीजेपी की थी. उसने फिल्म नीति के बाद एक कमेटी का गठन किया गया जिसमें अनुपम खेर, जैसे गैर झारखंडी और मुंबई के कुछ फिल्मकारों को शामिल किया. जिससे केवल उनका फायदा हुआ और झारखंड का पैसा बर्बाद हुआ."
दीपक के अनुसार, लॉकडाउन के बाद यह कमेटी भंग हो गयी. दुबारा 15 मार्च 2024 को सूचना एवं जनसंपर्क विभाग द्वारा फिल्म विकास निगम के सदस्यों की सूची जारी की गई, जिसमें एक भी सदस्य झारखंड के नहीं थे. जबकि झारखंड का गठन यहां के आदिवासी लोगों के लिए ही किया गया था. तकनीकी रूप से यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह आदिवासी समुदायों की भाषा और संस्कृति, जो की विलुप्त होने के कगार पर है उसे संरक्षित करे. सरकार का प्रयास होना चाहिए कि आदिवासी समुदायों की समस्याएं, उनके विचार या खूबियां,दुनिया के सामने आए.
दीपक कहते हैं "झारखंड में बहुत सारे फिल्म मेकर है जिनकी बनाई हुई फिल्में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कार जीती हैं. लेकिन सरकार द्वारा जो लिस्ट जारी किया गया है इसमें शामिल एक भी फिल्म मेकर झारखंड के नहीं है और ना ही मुद्दों पर आधारित फिल्में बनाने में रुचि रखते हैं. लिस्ट में शामिल ज्यादातर लोग मसाला फिल्में बनाने में रुचि रखते हैं जिनका मकसद केवल मुनाफा कमाना है."
FTII और SRFTI जैसे फिल्म स्कूलों से पढ़कर आने वाले आदिवासी समुदाय के बच्चे वापस झारखंड आकर यहां की मुद्दों पर फिल्में बनाना चाहते हैं. ऐसे में उन्हें आर्थिक और प्रशासनिक सहयोग की आवश्यकता है.
दीपक बाड़ा आगे कहते हैं कि झारखंड की मौजूदा सरकार आदिवासियों में काफी प्रसंसित है. लेकिन आचार संहिता लागू होने से मात्र एक दिन पहले 15 मार्च को इस तरह की भ्रामक सूची जारी करने के पीछे, सरकार को बदनाम करने की साजिश नजर आ रही है. ट्राइबल सिनेमा ऑफ इंडिया के सदस्यों की मांग है कि सरकार जल्द -से-जल्द इस सूची को रद्द करें और आने वाले दिनों में आदिवासी मूल के फिल्म मेकर, डॉक्यूमेंट्री मेकर या आदिवासी कल्याण विभाग से जुड़े लोगों को इसमें शामिल करे.
भाषा का चुनावी प्रयोग
झारखंड की फिल्में खोरठा, नागपुरी, सदानी, मुंडारी, खरिया और मगही भाषा में बनाई जाती है. झारखंड में नागपुरी भाषा आम बोलचाल के लिए इस्तेमाल की जाती है. अभी हाल ही में चुनाव प्रचार के दौरान बीजेपी ने पीएम मोदी के 10 साल के कार्यकाल की उपलब्धियों को आम जनता तक पहुंचाने के लिए इसी भाषा में ‘प्रचार गीत’ बनाया है.
ऐसे में यह प्रश्न जरूर उठता है कि चुनावी राजनीतिक अभियानों के दौरान अपने भाषणों-प्रचारों में यहां की स्थानीय भाषाओं का इस्तेमाल करने वाले ये नेता चुनाव के बाद इन भाषाओं के संरक्षण के लिए कदम क्यों नहीं उठाते है? वहीं राज्य में तुरी, बिरिजिया, बिरहोर, असुर और मालतो जैसी भाषा गायब होने के कगार पर है. इन भाषाओं को बोलने वाले लोगों की संख्या लगातार कम हो रही है.
वहीं ‘हो’ भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किये जाने को लेकर आदिवासी समुदाय लंबे समय से आंदोलन कर रहा है. बीते वर्ष अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के अवसर पर लोगों ने पोस्टकार्ड लेखन अभियान की शुरुआत की, जिसमें लोगों ने राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री व गृहमंत्री को पोस्टकार्ड भेजा. अब देखना यह है कि आने वाली दिनों में बनने वाली नई सरकार, आदिवासी समुदायों की भाषा-बोली और संस्कृति के संरक्षण के लिए कदम उठाती है.