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2016 में जब बिहार में शराबबंदी लागू की गई, तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इसे “सामाजिक क्रांति” करार दिया था. उन्होंने कहा कि यह महिलाओं की मांग है और इससे घरेलू हिंसा, अपराध, ग़रीबी और बीमारी पर लगाम लगेगी. शुरुआत में यह फैसला ऐतिहासिक प्रतीत हुआ, लेकिन 9 साल बाद ज़मीनी हकीकत कुछ और ही कहानी बयान करती है.
सरकार की ओर से सख़्ती के दावे लगातार होते रहे हैं, लेकिन अब जब आंकड़े सामने आ रहे हैं, तो साफ़ होता है कि तस्करी और अवैध कारोबार पर रोक लगाने की कोशिशें उतनी सफल नहीं हो पाईं. अप्रैल 2025 के आंकड़े बताते हैं कि राज्य के सीमावर्ती ज़िलों में भारी मात्रा में शराब पकड़ी जा रही है.
अवैध शराब की राजधानी बनता मधुबनी
अप्रैल महीने में सबसे ज़्यादा शराब जब्ती मधुबनी ज़िले से हुई — 21,392 लीटर. इसके बाद मोतिहारी (19,551 लीटर), पटना (17,887 लीटर), मुज़फ्फरपुर (13,172 लीटर) और सीतामढ़ी (12,401 लीटर) का नंबर आता है.
नरेश (बदला हुआ नाम), जो पटना के निवासी हैं, बताते हैं “सरकार द्वारा जो शराबबंदी की गई है, वह पूरी तरह से नाकामयाब रही है. आज भी आसानी से किसी भी जगह शराब मिल जाती है. सरकार को चाहिए कि वह सख़्ती से इस बंदी को सफल बनाए.”
एक महीने में 9 हज़ार से अधिक गिरफ्तारियां
मद्य निषेध एवं उत्पाद विभाग ने अप्रैल में राज्य भर में छापेमारी कर 1,35,030 लीटर देशी शराब और 1,03,032 लीटर विदेशी शराब बरामद की.
यानी कुल मिलाकर 2.38 लाख लीटर से अधिक शराब पकड़ी गई. इस दौरान 4,705 प्राथमिकी दर्ज हुईं और 9,356 लोग गिरफ्तार हुए.ये आंकड़े सफलता दर्शाते हैं या विफलता? आंकड़े देखने में किसी बड़ी कार्रवाई का संकेत देते हैं, लेकिन सवाल यह है अगर शराबबंदी सफल है, तो इतनी शराब आ कहां से रही है?
कौन खरीद-बेच रहा है, और किसकी शह पर यह सब हो रहा है? मधुबनी के एक निवासी कहते हैं “यहां शराब इतनी आसानी से मिल जाती है जैसे कभी बंदी हुई ही न हो. जैसे ही स्टेशन आते हैं, शराब की गंध से आपका स्वागत होता है. प्रशासन कार्रवाई क्यों नहीं करता? क्या उन्हें कुछ पता नहीं?”
मद्य निषेध एवं उत्पाद विभाग: के आकड़ो के अनुसार 2016 से अब तक 3.86 करोड़ लीटर शराब जब्त, 3.77 करोड़ लीटर शराब नष्ट,14.32 लाख गिरफ्तारियां और
1,40,279 वाहन जब्त की गई और 74,725 वाहनों की नीलामी हुई.
सरकार ने कानून में कई बार बदलाव किए. 2022 में सज़ा कम की गई और सुनवाई का अधिकार कार्यपालक मजिस्ट्रेट को दिया गया. 2023 में फिर बदलाव किए गए, लेकिन अपेक्षित असर नहीं दिखा.NFHS-5 (राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण) के अनुसार,बिहार के शहरी क्षेत्रों में 15.5% पुरुष शराब का सेवन करते हैं, जबकि महाराष्ट्र जैसे राज्य में यह आंकड़ा 13.9% है.यानी शराबबंदी के बावजूद बिहार में खपत अधिक है.
सीमाएं ही सबसे बड़ी चुनौती
बिहार नेपाल, उत्तर प्रदेश, झारखंड और पश्चिम बंगाल से घिरा है जहां शराब कानूनी रूप से बिकती है.
यही कारण है कि सीमावर्ती इलाकों से शराब की तस्करी बेरोकटोक होती है.नेपाल से शराब छोटे रास्तों से बोरियों या बैगों में लाई जाती है. झारखंड और बंगाल से ट्रकों में माल भरकर आता है.
पुलिस और प्रशासन की भूमिका
पुलिस और मद्य निषेध विभाग पर अक्सर सवाल उठते हैं.कई बार यह आरोप लगता है कि अधिकारियों की मिलीभगत से ही यह माफिया फल-फूल रहा है.
छापेमारी से पहले ही तस्करों को खबर मिल जाती है. कई इलाकों में यह "खुला राज़" है कि कहां शराब बिकती है और कौन इसकी ‘सह’ में है.
सरकार ने जनता से भी सहयोग की अपील की है. मद्य निषेध विभाग ने टोल-फ्री नंबर 15545 और 18003456268 जारी किए हैं. दावा है कि सूचना देने वाले की पहचान गुप्त रखी जाएगी.लेकिन गांव-कस्बों में लोग डरते हैं शिकायत करने पर कहीं उनके खिलाफ़ ही कार्रवाई न हो जाए या तस्कर बदला न लें.
अवैध शराब का नेटवर्क खतरनाक है
मधुबनी की ममता देवी (बदला हुआ नाम) बताती हैं “जब शराबबंदी की ख़बर आई तो बहुत खुश हुई थी. शुरुआती दिनों में पति शराब नहीं पीते थे. लेकिन साल भर बाद वे फिर से छिपकर पीने लगे और घर का माहौल फिर से बिगड़ गया. सरकार से अपील है कि बंदी को पूरी तरह लागू करे.” मिलावटी शराब से जानें जा रही हैं.बच्चों और किशोरों तक शराब पहुँच रही है. नशा अब "छिपा हुआ और खतरनाक" हो गया है.
राजस्व का नुक़सान और समाधान
शराबबंदी से सरकार को हर साल अरबों रुपये का राजस्व नुकसान हो रहा है.पर यदि यह निर्णय समाज सुधार के लिए लिया गया है, तो क्या इस धन से पुनर्वास, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं बेहतर की जा सकती हैं? क्या शराबबंदी केवल 'कागज़ी कड़ाई' बनकर रह गई है?
मधुबनी में कई लोगो और सामजिक संगठन की मांग है को अवैध शराब को रोकने के लिये
• सीमाओं पर निगरानी बढ़े
• पुलिस और प्रशासन की जवाबदेही तय हो
• स्थानीय संगठनों को जोड़ा जाए
• शिक्षा, पुनर्वास और जन-जागरूकता को प्राथमिकता मिले
• कानून की पारदर्शी समीक्षा हो
शराबबंदी एक नेक विचार है, लेकिन इसका अमल तभी सफल होगा जब सिस्टम पारदर्शी, जवाबदेह और जनभागीदारी वाला बने.
आज ज़रूरत है कि सरकार और जनता मिलकर यह सोचें कि क्या शराबबंदी का मौजूदा ढांचा बदलाव की मांग कर रहा है? क्योंकि अगर कानून से ज़्यादा तस्करी, डर से ज़्यादा मुनाफ़ा, और नियम से ज़्यादा रिश्वत हावी है. तो सवाल उठना स्वाभाविक है. कोई भी नीति तभी कारगर होती है, जब उसका क्रियान्वयन ईमानदारी से हो और उसमें जनता की भागीदारी सुनिश्चित की जाए. वरना नीति सिर्फ घोषणापत्र बनकर रह जाती है, और ज़मीनी हकीकत कुछ और ही कहानी कहती है.