/democratic-charkha/media/media_files/2025/04/28/a0LNG8oc2RqXFfvel30n.webp)
दुमका जिले के एक छोटे आदिवासी गांव में रहने वाली 14 वर्षीय सरस्वती (बदला हुआ नाम) जब पहली बार 'बीमार' हुई, तो उसे समझ ही नहीं आया कि हो क्या रहा है. “मां ने कहा कि अब मैं बड़ी हो गई हूं, और अब 5 दिन तक मंदिर नहीं जाना, किसी को खाना मत छूना, और चुपचाप बैठना.”
उसने स्कूल नहीं छोड़ा, लेकिन हर महीने मासिक धर्म के दौरान वो 3 दिन घर में बंद रहती है.
"हम पत्ते और कपड़ा इस्तेमाल करते हैं. कभी-कभी मच्छरदानी की पुरानी जाली भी. स्कूल में पूछ नहीं सकते... सब लड़के हंसते हैं. टीचर बोलते हैं — ये बातें घर की होती हैं.”
“हमको नहीं मालूम था कि ये भी बीमारी नहीं होती है”
खूंटी जिले के टोंगरी टोला की 15 साल की पुष्पा को 6 महीने से पेट में जलन और संक्रमण की शिकायत थी. जब आखिरकार एक NGO की महिला स्वास्थ्य वर्कर उसे CHC ले गई, तब पता चला कि उसे UTI और फंगल इन्फेक्शन है, जो गंदे कपड़े दोबारा इस्तेमाल करने के कारण हुआ.
“हम तो उसी कपड़े को धोकर धूप में सुखाकर रखते थे, लेकिन बारिश में कई बार सूखता नहीं था. उस दिन पहना और फिर से बीमार पड़ गए.”
पुष्पा की मां ने कहा — “हमारे ज़माने में भी ऐसा ही होता था. हम कभी डॉक्टर के पास नहीं गए, औरतें तो सह लेती हैं.”
जब स्कूल में सैनिटरी पैड नहीं, और शौचालय में दरवाज़ा नहीं
लोहरदगा के भुसुर हाई स्कूल में कुल 421 लड़कियां पढ़ती हैं, लेकिन वहां एक भी काम करने वाला शौचालय नहीं. स्कूल की प्रधानाध्यापक ने नाम न छापने की शर्त पर बताया — “हमें MDM (मिड डे मील) के लिए तो पैसा आता है, लेकिन लड़कियों की ज़रूरतों के लिए कोई अलग फंड नहीं.”
राज्य सरकार की योजना के तहत हर स्कूल में हर महीने 6 पैकेट सैनिटरी नैपकिन आने चाहिए, लेकिन 2023-24 में इनमें से 68% स्कूलों में कोई आपूर्ति नहीं हुई.
ASHA वर्कर सविता देवी कहती हैं — “जब भी हम स्वास्थ्य जागरूकता शिविर करने जाते हैं, तो लड़कियां झुंड बनाकर बैठती हैं लेकिन बोलती कोई नहीं. सिर्फ आंखें बोलती हैं — कि वो इस विषय पर शर्मिंदा हैं.”
“हम स्कूल छोड़ देते हैं क्योंकि हमें शर्म आती है”
साहिबगंज जिले के एक प्राइमरी स्कूल की कक्षा 8 की छात्रा ममता, 14 साल की है, और पिछले 3 महीने से स्कूल नहीं गई. उसकी मां बताती हैं — “उसको मासिक धर्म शुरू हुआ तो एक दिन खून लग गया कपड़े में. स्कूल की लड़कियां हंसी, और लड़के फब्तियां कसने लगे. वो उसी दिन रोते हुए घर आई और कहा कि अब स्कूल नहीं जाएगी.”
शिक्षिका ने बताया कि ऐसी घटनाएं नई नहीं हैं. “यहां की हर दूसरी लड़की मासिक धर्म के समय स्कूल से गायब रहती है. कई तो फिर लौटती ही नहीं.”
सरकारी योजनाएं — सिर्फ स्लोगन, ज़मीन पर सन्नाटा
झारखंड सरकार ने 2018 में 'चुप्पी तोड़ो, स्वास्थ्य से नाता जोड़ो' जैसे अभियान शुरू किए थे. लेकिन 2023 तक कुल 24 जिलों में से केवल 9 जिलों में ही मासिक धर्म स्वच्छता अभियान हुए. और जो हुए, वो भी शहरों तक सीमित रहे.
‘किशोरी स्वास्थ्य योजना’ के तहत किशोरियों को आयरन सप्लीमेंट, सेनेटरी नैपकिन और पोषण किट दी जानी थी — लेकिन RTI के जवाब में पाया गया कि 2023–24 में कुल बजट का 32% ही खर्च हो सका.
कई पंचायत स्तर पर ASHA वर्करों ने बताया कि उन्हें “इस विषय पर बात करने से मना किया गया था.” एक कार्यकर्ता ने कहा, “हम पूछते हैं तो कहा जाता है — ये NGO का काम है, सरकार का नहीं.”
सिर्फ देह नहीं, आत्मा भी टूटती है
जब कोई किशोरी अपने शरीर को गंदा समझने लगती है, उसे मंदिर में जाने से रोका जाता है, खाना छूने पर टोका जाता है — तो यह सिर्फ शारीरिक नहीं, मानसिक और आत्मिक आघात भी है.
मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ डॉ. निधि कश्यप कहती हैं — “अगर किशोरावस्था में लड़कियों को यह सिखाया जाए कि वो अपवित्र हैं, तो आत्मसम्मान और शरीर के प्रति उनका रिश्ता कभी सकारात्मक नहीं बन पाता.”
ये चुप्पी घुटन में बदल जाती है. और यही कारण है कि झारखंड में किशोरियों में डिप्रेशन और आत्महत्या की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है.
आंकड़ों की सच्चाई
2023 की NHFS-5 रिपोर्ट और NSSO के आंकड़े बताते हैं:
-
झारखंड की 65% किशोरियां मासिक धर्म के दौरान अभी भी कपड़े या अस्वच्छ सामग्री का इस्तेमाल करती हैं.
-
केवल 28% को ही सैनिटरी नैपकिन नियमित रूप से उपलब्ध है.
-
38% किशोरियां मासिक धर्म के दौरान स्कूल से गैर-हाज़िर रहती हैं.
इसका सीधा संबंध शिक्षा छोड़ने, स्वास्थ्य समस्याओं और आत्मविश्वास में गिरावट से जुड़ता है.
"दीदी ने कहा, मत रो... पर मैं रोती रही”
खूंटी की 13 साल की काजल की कहानी सुनने के बाद एक पल को दिल रुक जाता है. उसकी पहली माहवारी स्कूल में हुई. वह कुछ समझ ही नहीं पाई — खून देखकर डर गई. उसने कपड़ों से छिपाने की कोशिश की, लेकिन दाग दिख गया.
क्लास के लड़के चिल्लाने लगे — “गंदी हो गई... ओए, ये तो बीमार है!”
वो भागकर स्कूल से घर आई. मां ने सिर्फ इतना कहा, “अब से बाहर मत खेलना. लड़की हो गई है तू.”
काजल कई दिन तक चुप रही. बाद में NGO कार्यकर्ता के सामने उसने कहा — “दीदी ने कहा, मत रो... पर मैं रोती रही.”
“हमारी बेटी की मौत शर्म से हुई थी, बीमारी से नहीं”
लोहरदगा जिले की रानी कुमारी को मासिक धर्म में अधिक खून बहता था. उसकी मां बताती हैं — “हमने इसे बीमारी समझा, लेकिन अस्पताल नहीं ले जा पाए. वो बार-बार कहती थी कि बदबू आती है, स्कूल में सब हंसते हैं.”
एक दिन उसकी हालत गंभीर हो गई. उसे अस्पताल लाया गया, लेकिन बहुत देर हो चुकी थी. डॉक्टर ने कहा — शरीर में इंफेक्शन फैल चुका था.
मां की आंखें भर आती हैं — “अगर समय पर सेनेटरी नैपकिन, इलाज और थोड़ा आत्मविश्वास मिला होता, तो शायद वो आज जिंदा होती.”
क्या कोई रास्ता है?
हां. लेकिन पहले हमें चुप्पी को तोड़ना होगा.
-
स्कूलों में मासिक धर्म शिक्षा को हेल्थ एजुकेशन का हिस्सा बनाना चाहिए
-
हर पंचायत स्तर पर फ्री पैड डिस्पेंसिंग मशीन और शौचालय की अनिवार्यता
-
ASHA और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को स्पेशल मेंस्ट्रुअल ट्रेनिंग
-
लड़कों को भी इन विषयों में संवेदनशील बनाना, ताकि वे शर्म का हिस्सा न बनें
-
हेल्थ बजट का कम से कम 1% किशोरी स्वास्थ्य पर अनिवार्य आवंटन
अंतिम सवाल — क्या मासिक धर्म अब भी गुनाह है?
जब एक लड़की डरते हुए स्कूल में बैठी हो, जब माँ अपनी बेटी को 'गंदी' कहे, जब समाज उसे अछूत बना दे —
तो सवाल यही है: क्या हम 2024 में भी मासिक धर्म को गुनाह मानते हैं? अगर हां, तो यह न केवल लड़कियों का, बल्कि पूरे समाज का दोष है.