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भारत में स्वास्थ्य सुविधाओं की स्थिति लगातार बहस का विषय बनी हुई है, लेकिन जब हम ग्रामीण इलाकों की बात करते हैं, तो हालात और भी गंभीर नजर आते हैं. कहीं अस्पताल की बिल्डिंग जर्जर है, तो कहीं नई इमारत बनने के बावजूद स्वास्थ्य सेवाओं का घोर अभाव है. बिहार के गया जिले के गुरारू प्रखंड की कनौसी पंचायत में स्थित स्वास्थ्य उपकेंद्र इसका ताजा उदाहरण है.
90 लाख में बना स्वास्थ्य उपकेंद्र, पर नहीं है डॉक्टर
गया जिले के कनौसी पंचायत में वर्षों पुराने जर्जर स्वास्थ्य उपकेंद्र को तोड़कर नई इमारत बनाई गई. इस निर्माण पर करीब 90 लाख रुपये खर्च किए गए और पांच महीने पहले इसका उद्घाटन बड़े तामझाम के साथ किया गया. गाँववालों को उम्मीद थी कि अब उन्हें बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएँ मिलेंगी, लेकिन उनका यह सपना आज भी अधूरा है. नई बिल्डिंग बनने के बावजूद अस्पताल बंद पड़ा रहता है, डॉक्टर और नर्स की तैनाती नहीं की गई है, और मरीजों को इलाज के लिए मीलों दूर जाना पड़ता है.
वार्ड सदस्य कुंदन कुमार ने बताया, "यह अस्पताल कब खुलता और कब बंद होता है, किसी को नहीं पता. यहाँ डॉक्टर और नर्स नहीं आते, जिससे यह स्वास्थ्य उपकेंद्र हमेशा ताले में बंद रहता है."
स्वास्थ्य बजट और हकीकत की खाई
सरकार ने 2024-25 के बजट में स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए 14,932.09 करोड़ रुपये का प्रावधान किया है. 2023 में स्वास्थ्य विभाग का बजट 16,134.39 करोड़ था, जिसे बढ़ाकर 16,966.42 करोड़ किया गया. इसके बावजूद ज़मीनी हक़ीक़त यही है कि कई अस्पतालों में डॉक्टर और सुविधाओं का घोर अभाव है.
नीति आयोग के 2023-24 के सतत विकास लक्ष्य (SDG) सूचकांक के मुताबिक, बिहार का प्रदर्शन सबसे खराब रहा है. जहाँ केरल और उत्तराखंड जैसे राज्य स्वास्थ्य, शिक्षा और पर्यावरण के क्षेत्र में शीर्ष पर हैं, वहीं बिहार 57 अंकों के साथ सबसे निचले पायदान पर है.
ग्रामीणों की उम्मीदों पर पानी
गाँव के लोग इस केंद्र के उद्घाटन से बेहद उत्साहित थे. उन्हें लगा था कि अब उनकी स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं का समाधान हो जाएगा. लेकिन उद्घाटन के महीनों बाद भी कोई ठोस सुधार नहीं हुआ.
गाँव के निवासी संतोष कुमार कहते हैं, "सरकार ने नई बिल्डिंग तो बना दी, लेकिन डॉक्टर और नर्स नहीं भेजे. ऐसे में इस अस्पताल का कोई फायदा नहीं. मरीजों को आज भी 8-10 किलोमीटर दूर गुरारू जाना पड़ता है. कई गरीब लोग साधन के अभाव में इलाज कराने ही नहीं जा पाते."
कनौसी पंचायत के 10 हजार लोगों के लिए एकमात्र अस्पताल
पूरे कनौसी पंचायत की 10,000 से अधिक आबादी के लिए यही एकमात्र सरकारी स्वास्थ्य केंद्र है. यह सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र गुरारू से 9 किमी दूर है. यदि यहाँ डॉक्टर और स्वास्थ्य कर्मी बहाल कर दिए जाएँ, तो आसपास के 8-10 गाँवों को इसका सीधा लाभ मिलेगा. लेकिन फिलहाल, यहाँ ताला लटका रहने से ग्रामीणों को इलाज के लिए इधर-उधर भटकना पड़ता है.
कनौसी पंचायत की निवासी मंजू देवी बताती हैं, "एक तो स्वास्थ्य उपकेंद्र इतने सालों बाद बना तो हमें खुशी हुई, पर यहाँ न तो डॉक्टर हैं और न ही नर्स. उसके बावजूद इलाज के लिए हमें गुरारू जाना पड़ता है, जो हमारे घर से काफी दूर है. ऐसे में कई बार हमें अस्पताल की सुविधा तक नहीं मिल पाती है."
बजट तो बढ़ा, लेकिन खर्च नहीं हुआ
2016 से 2022 के बीच बिहार सरकार ने स्वास्थ्य सेवाओं के लिए कुल ₹69,790.83 करोड़ का बजट प्रावधान किया था, लेकिन इसमें से केवल ₹48,047.79 करोड़ (69%) ही खर्च हो सका. यानी, ₹21,743.04 करोड़ (31%) बिना खर्च किए रह गए.
सोचिए, यदि यह धनराशि सही तरीके से इस्तेमाल होती, तो कई अस्पतालों को बेहतर बनाया जा सकता था, गाँवों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र खोले जा सकते थे और कई लोगों की जान बचाई जा सकती थी.
कैग (CAG) की रिपोर्ट ने खोली पोल
कैग की रिपोर्ट के अनुसार, बिहार में स्वास्थ्य सेवाओं की हालत बेहद खराब है:
- 49% चिकित्सकों के पद खाली हैं.
- ऑपरेशन थिएटर और ब्लड स्टोरेज यूनिट्स जैसी बुनियादी सुविधाएँ नहीं हैं.
- 68% वेंटिलेटर प्रशिक्षित तकनीशियनों की कमी के कारण बेकार पड़े हैं.
स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली की कीमत कौन चुका रहा है?
इस बदहाल व्यवस्था का सबसे ज़्यादा खामियाजा गरीब और ग्रामीण जनता को भुगतना पड़ता है. एक साधारण बुखार से लेकर प्रसव जैसी आवश्यक स्वास्थ्य सेवाओं के लिए गाँव की महिलाओं, बुजुर्गों और बच्चों को घंटों सफर करना पड़ता है.आज भी देश के लाखों गाँवों में स्वास्थ्य सुविधाओं की हालत दयनीय है. कनौसी पंचायत का मामला कोई अकेला उदाहरण नहीं है. देशभर में हजारों ऐसे अस्पताल हैं, जो नई इमारतों में तब्दील तो हो गए, लेकिन स्वास्थ्य सुविधाएँ अब भी नदारद हैं.