/democratic-charkha/media/media_files/59rATjmGM2lkTFFqTh6J.webp)
बिहार के सीवान में कल सुबह रंगीन मंच सजा था. ऊपर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की तस्वीरें थीं. नीचे लिखा था — ₹5,900 करोड़ की 28 परियोजनाएं. बिजली, जल, रेल, सोलर और आवास.
लेकिन रमेश साहनी का गांव रीगा इस पोस्टर में नहीं था. ना उनका नाम, ना उनका दर्द. रमेश रीगा चीनी मिल में 21 साल तक मज़दूरी कर चुके हैं. 2020 से मिल बंद है. रमेश आज मज़दूरी नहीं करते — क्योंकि कमर टूटी नहीं, हौसला टूट चुका है.
वो कहते हैं — "मोदी जी बगल के मंच पर कह रहे थे देश बदल रहा है. पर हमारे लिए तो न काम है, न पैसा. मिठास की जगह नमक खा रहे हैं."
रीगा मिल की दीवारों से झांकते हैं भूखे वादे
रीगा, जिला सीतामढ़ी — बिहार की वो ज़मीन जहां पहली बार किसी मिल से इथेनॉल का सपना जोड़ा गया था. यहां 2020 से चुप्पी है. लोहे का गेट बंद है. दीवारों पर पुराने वादों के पोस्टर अब पीले पड़ चुके हैं. 25,000 किसानों और 1,200 मज़दूरों का भुगतान रुका है.
मालिक ओमप्रकाश धनुका ने घाटे का हवाला देकर मिल बंद कर दी. सरकार ने तीन बार टेंडर निकाले, कोई खरीदार नहीं आया. अब चौथी नीलामी 2 सितंबर 2025 को होनी है — वो भी 50 लाख का सुरक्षा जमा और 4.30 करोड़ के इन्वेस्टमेंट प्रूफ के साथ.
कौन लगाएगा? कब लगेगा? कोई जवाब नहीं.
वहीं, मंच पर भाषण जारी था…
सीवान में कार्यक्रम चल रहा था — “विकसित बिहार, समृद्ध बिहार” डिजिटल बोर्ड चमक रहे थे. अमृत योजना के उद्घाटन की घोषणा हुई. 135 करोड़ के सोलर पार्क का ज़िक्र आया. लेकिन गन्ना किसान मंच से दूर, खेत में, बकाया रसीदों के ढेर में खोया बैठा था.
“हम तो पर्ची वाले लोग हैं”
सासामुसा, जिला गोपालगंज — यहां की मिल 2021 से बंद है. 43 करोड़ रुपए का बकाया है किसानों का. सरकार कहती है मामला कोर्ट में है. किसान कहते हैं — “हम तो कोर्ट के काबिल नहीं हैं.”
गांव के छोटे लाल यादव कहते हैं — "गन्ना मिल को देते हैं. मिल वाले कहते हैं, पैसे अगले साल मिलेंगे. फिर पर्ची थमा देते हैं — जिसमें तारीख नहीं होती."
वो पर्ची किसान के बटुए में रहती है — एक अधूरी उम्मीद की तरह.
कितना उगाया, कितना मिला? — आंकड़े बोलते हैं
2022–23 में बिहार में 214.76 लाख मीट्रिक टन गन्ना उगा. लेकिन सिर्फ 62.74 लाख क्विंटल चीनी बनी. तुलना करें 2018–19 से — तब चीनी उत्पादन 84.02 लाख क्विंटल था.
गन्ना ज़्यादा उगाया, चीनी कम बनी — क्यों? क्योंकि मिलें बंद हुईं, मशीनें रुकीं, और किसान मजबूर होकर गन्ना जलाने लगे.
गन्ना से अब सिर्फ चीनी नहीं बनती — इथेनॉल, बायोगैस, बिजली, पेपर — सब तैयार होता है. लेकिन किसान को मिलता है सिर्फ ₹305 से ₹340 प्रति क्विंटल — 2025 में भी वही. मांग है ₹600 क्विंटल की. सरकार कहती है — “संभावनाएं देख रहे हैं.”
मुज़फ्फरपुर के मोतीपुर में बंद पड़ी मिल के मैदान में कभी नीतीश कुमार ने 2005 में वादा किया था — "मिल चालू होगी, रोजगार मिलेगा."
अब 20 साल हो गए. मिल वहीं है. सिर्फ वादे की धूल बढ़ी है.
कई इलाकों में चीनी मिलों के आसपास Reserve Area बनाए गए हैं. यहां के किसान अपना गन्ना खुद नहीं बेच सकते, न गुड़ बना सकते हैं. अगर बनाएंगे तो केस होगा. छोटे किसान कहते हैं — "हमारे खेत से उपजा है, मगर हक़ हमारा नहीं है."
मिल सबसे पहले बाहर के बड़े किसानों से खरीद करती है — इलाके के छोटे किसान का गन्ना अंत में आता है — और कई बार कट ही नहीं पाता.
“हमने तो रिकॉर्डिंग भी संभाल रखी है, साहब”
मोतीपुर चीनी मिल के पास रहने वाले बुज़ुर्ग किसान रामसेवक यादव अब 78 साल के हैं. वो एक पुराने ट्रांजिस्टर की कैसट निकालकर दिखाते हैं — "इसमें है नीतीश बाबू का 2005 वाला भाषण." नीतीश कुमार ने मोतीपुर मिल के मैदान में मंच से कहा था —
"अगर मेरी सरकार बनी तो सबसे पहले बंद चीनी मिलों को चालू करूंगा."
अब 2025 है — 20 साल हो गए.
रामसेवक कहते हैं —"अब तो आंखें भी धुंधली हो गईं, लेकिन मिल का ताला अब भी साफ़ दिखता है."
“एक बार और मौका दीजिए…” — हर चुनाव में वही स्क्रिप्ट
2005 में नीतीश,
2014 में नरेंद्र मोदी,
2020 में फिर नीतीश,
2024 में अमित शाह…
हर चुनाव से पहले मंच पर एक ही बात होती है: "चीनी मिलें चालू होंगी, किसानों को न्याय मिलेगा." लेकिन चुनाव के बाद क्या होता है?
रीगा मिल का गेट बंद है. सासामुसा मिल केस में अटका है. वारिसलीगंज में अब सीमेंट फैक्ट्री की बात हो रही है.
रीगा: सरकार के हाथ में 4 बार टेंडर, फिर भी सन्नाटा
2020 से बंद रीगा मिल के लिए सरकार ने:
-
पहला टेंडर: मार्च 2021 — कोई नहीं आया
-
दूसरा टेंडर: जुलाई 2022 — अटका
-
तीसरा टेंडर: नवंबर 2023 — निरस्त
-
चौथा टेंडर: अब 2 सितंबर 2025 को प्रस्तावित
लेकिन मिल मालिक बदलने की बजाय किसानों को पर्ची और मज़दूरों को बकाया मिल रहा है.
MSP की राजनीति: किस चीज़ का समर्थन?
2025 में भी गन्ना का MSP 305 से 340 रुपये है. जबकि 1 क्विंटल गन्ना उगाने में लागत:
-
खाद: ₹70
-
बीज: ₹40
-
पटवन: ₹80
-
मजदूरी: ₹60
-
परिवहन: ₹50
कुल: ₹300–₹320
मुनाफा? लगभग शून्य. इधर, मिल वाला उसी गन्ने से इथेनॉल, बिजली, पेपर और चीनी बनाता है — चार गुना मुनाफे के साथ.
औद्योगिक नीति में गन्ना किसान की जगह कहां?
बिहार औद्योगिक प्रोत्साहन नीति 2016 के तहत:
-
5 चीनी मिलों के विस्तार के लिए ₹1922.34 करोड़ के प्रस्ताव आये
-
2023 तक 1689 प्रोजेक्ट्स को मंज़ूरी मिली
-
पर साल 2025 तक चीनी मिल प्रोजेक्ट पर ज़मीन पर कोई काम शुरू नहीं हुआ
यानी शिलान्यास हुआ, मिट्टी नहीं हिली.
लोकसभा 2024 और सत्ता की चाशनी
अमित शाह ने अप्रैल 2024 में कहा: "सरकार बनी तो रीगा मिल शुरू होगी."
कब? कैसे? किस योजना से? — इसका कोई दस्तावेज़ या डेडलाइन सार्वजनिक नहीं की गई.
पटना में तेजस ट्रेन की घोषणा के साथ हज़ारों तालियां बजीं. लेकिन समस्तीपुर के खेतों में किसानों के ट्रैक्टर खाली लौटे.
रीगा के मजदूरों ने DD News पर चलती लाइव ब्रॉडकास्ट बंद करके रेडियो चालू कर लिया —"कम से कम वहां कुछ असली खबर तो आती है."
बिहार में कौन सी मिलें चल रही हैं? कौन सी बंद हैं?
सक्रिय चीनी मिलें (2024-25):
-
बगहा
-
हरिनगर
-
नरकटियागंज
-
मझौलिया
-
गोपालगंज
-
सिधवलिया
-
हसनपुर
-
लौरिया
-
सुगौली
बंद मिलें:
-
रीगा (सीतामढ़ी)
-
सासामुसा (गोपालगंज)
-
मोतीपुर (मुज़फ्फरपुर)
-
वारिसलीगंज (नवादा)
-
सकरीगली, लोनी, और अन्य मिलें — जिनका नाम अब भूगोल से मिटता जा रहा है
क्या गन्ना किसानों को छोड़ रहा है बाजार?
पश्चिम चंपारण: सबसे ज़्यादा गन्ना उत्पादन
समस्तीपुर और बेगूसराय: सबसे अधिक रिजर्व एरिया वाला क्षेत्र
लेकिन अब यहां के युवा गेहूं या मक्का पर लौट रहे हैं, क्योंकि:
-
कम लागत
-
कम मार
-
और गन्ना जितना सरकारी फ़ाइलों में उलझा नहीं
आरक्षित क्षेत्र (Reserve Area) नियम: किसान का हक या बंधुआगिरी?
अशोक प्रसाद कहते हैं: "अगर मेरी ज़मीन है, मेरी फसल है, तो ये कौन तय करेगा कि मैं गुड़ बनाऊं या मिल को बेचूं?"
Reserve Area कानून कहता है —"मिल के इलाके के किसान सिर्फ मिल को ही बेचेंगे, नहीं तो जुर्माना होगा."
क्या ये संविधान की आर्थिक स्वतंत्रता का उल्लंघन नहीं?
चीनी मिलों के विस्तार के नाम पर ठंडी पड़ी फाइलें
2016 से 2025 तक:
-
₹1900+ करोड़ का निवेश प्रस्तावित
-
5 चीनी मिलों के विस्तार के लिए मंज़ूरी
-
लेकिन न ज़मीन चिन्हित, न टेंडर प्रक्रिया पूरी
इनवेस्टमेंट समिट में दस्तावेज़ तो बनते हैं, लेकिन फैक्ट्रियों में धुआं नहीं उठता.
डेमोक्रेटिक चरखा के ज़रिए जनता की आवाज़
जब राष्ट्रीय मीडिया मंचों पर शिलान्यास के फूलों की बात कर रहा था, हमने देखा रीगा की टूटी छतें, गोपालगंज में लाइन में खड़े ट्रैक्टर, और मोतीपुर में उखड़े बोर्ड — जिनपर लिखा था 'चीनी मिल'
इस रिपोर्ट के माध्यम से हम सिर्फ खबर नहीं बता रहे, हम सत्ता को याद दिला रहे हैं — आपके मंचों पर जो वादा हुआ था, वो अब भी जिंदा है — हमारे खेतों में, पर्चियों में, और बच्चों की भूख में.