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गांव में जब कोई ज़्यादा चुप रहने लगे, रात में जागे या खुद से बातें करने लगे — तो पहला जुमला यही होता है: “इस पर बेताल चढ़ गया है.”
यह वाक्य सिर्फ डर नहीं, एक सामाजिक निर्णय होता है — कि अब डॉक्टर की नहीं, ओझा की ज़रूरत है.
मानसिक बीमारी का मतलब पागलपन, और पागलपन का मतलब सामाजिक बहिष्कार
दरभंगा के एक गांव की पिंकी देवी बताती हैं कि उनके देवर “बोलना छोड़ चुके हैं, खाना कम हो गया है, हर समय खिड़की के पास बैठे रहते हैं.” जब वह उन्हें अस्पताल ले जाना चाहती थीं, तो सास बोलीं — “दवा से नहीं होगा, झाड़-फूंक से ही बेताल उतरेगा.”
फिर उन्हें पांच गांव दूर एक तांत्रिक के पास ले जाया गया. वहां नीम की डंडी से मारा गया, मंत्र पढ़े गए, और हफ्तों बाद भी हालत वही रही.
ग्रामीण भारत में मानसिक स्वास्थ्य का कोई भाषा-रूप नहीं है. कोई “anxiety” या “depression” शब्द का अर्थ नहीं जानता. लेकिन वे सब जानते हैं — “पगला गया है”, “साया है”, “ओझा दिखाओ”, “वो पेड़ के पास गया था तब से ऐसा है.”
एक तरह से, भूत-प्रेत का जिक्र गांवों में मानसिक बीमारी की जगह ले चुका है.
बेताल, टोना और लोक कथाएं — सामाजिक डर की संरचना
बिहार के भोजपुर में एक महिला के बारे में कहा गया कि “उस पर चुड़ैल चढ़ी है, हर अमावस्या को वो बोलती नहीं.” मगर असल में वह सीमित बोलने और withdrawal behavior से जूझ रही थी — एक किस्म की social anxiety.
मध्यप्रदेश के दमोह ज़िले में एक नौजवान को पेड़ से बांध दिया गया — क्योंकि वह बात करते हुए हंसता था, रोता था और खुद को गालियां देता था. गांव वालों का मानना था कि “उसने किसी मरे हुए को छू लिया था.”
ओझा और झाड़-फूंक का अर्थशास्त्र
यह सिर्फ लोक-आस्था नहीं, एक स्थानीय इंडस्ट्री भी है. गांवों में ओझा हर केस के लिए ₹500 से ₹3000 तक लेते हैं. वे नीम की शाखाओं से पीटते हैं, भभूत लगाते हैं, और परिवार को बताते हैं कि “बुरा साया 21 दिन में उतरेगा.” जब सुधार नहीं होता, तो अगला तांत्रिक दिखाया जाता है.
लेकिन कोई डॉक्टर, मनोचिकित्सक या काउंसलर इस श्रृंखला में शामिल नहीं होता — क्योंकि गांव में वो होते ही नहीं.
भारत के हर 1 लाख लोगों पर औसतन सिर्फ 0.3 मनोचिकित्सक उपलब्ध हैं. और ग्रामीण भारत में यह आंकड़ा 0.05 से भी कम है. Jharkhand, Chhattisgarh, Bihar जैसे राज्यों में तो जिला अस्पतालों में भी psychiatrist नहीं हैं. CMHO ऑफिस से जब संपर्क किया गया, तो जवाब मिला: "हमने रिक्वेस्ट भेजा है, पोस्ट खाली है, कोई आए तो भेजेंगे.”
“सिर्फ औरतें क्यों बेताल की शिकार?”
गांवों में 'साया चढ़ना' या 'चुड़ैल लगना' अधिकतर महिलाओं के साथ ही जुड़ा होता है. हरियाणा के महेन्द्रगढ़ में एक महिला को मानसिक परेशानी के चलते जंजीर से बांध कर रखा गया. बिहार के किशनगंज में एक लड़की को 'भूतनी' घोषित कर दिया गया, क्योंकि वो स्कूल छोड़कर अकेले रहने लगी थी. कई बार डिप्रेशन, प्रेगनेंसी के बाद का ट्रॉमा (PPD), और घरेलू हिंसा का असर — 'भूत-चुड़ैल' समझा जाता है.
19 वर्षीय धर्मबीर पिछले साल सिलचर से गांव लौटा था. वहां मज़दूरी करता था. लॉकडाउन के बाद नौकरी छूट गई. धीरे-धीरे उसने खाना बंद किया, बोलना बंद किया और एक पेड़ के नीचे दिन भर बैठने लगा. परिवार ने कहा — “उसने कोई अधर्म किया होगा, इसलिए बेताल चढ़ा है.” उसे झाड़-फूंक के लिए ओडिशा तक ले जाया गया.
लेकिन एक NGO वर्कर ने राय दी और रांची के RINPAS (मानसिक स्वास्थ्य संस्थान) में भर्ती कराया. 3 महीने इलाज चला. आज धर्मबीर गांव के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाता है.
मानसिक स्वास्थ्य के नाम पर अस्पताल, लेकिन डॉक्टर नहीं
भारत सरकार ने 1982 में National Mental Health Programme (NMHP) शुरू किया था. फिर आया District Mental Health Programme (DMHP) — ताकि हर ज़िले में मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं हों. लेकिन झारखंड, बिहार, यूपी और मध्य प्रदेश के 70% ज़िलों में ये योजनाएं सिर्फ फाइलों में मौजूद हैं.
पलामू, औरंगाबाद और कटिहार जैसे ज़िलों में DMHP की वेबसाइट पर तो 'नोडल ऑफिसर' का नाम है — लेकिन जब हम फ़ोन करते हैं, तो जवाब मिलता है: “इस नंबर पर ऐसा कोई अधिकारी नहीं है.”
सरकार ने 2022 में शुरू की थी Tele-MANAS हेल्पलाइन (14416) — जिसे मानसिक बीमार लोगों की काउंसलिंग के लिए बनाया गया. लेकिन गांवों में लोग इस नंबर के बारे में जानते ही नहीं. और जिनके पास स्मार्टफोन नहीं है, उनके लिए तो ये सेवा कल्पना भर है.
ASHA वर्कर को भी समझ नहीं मानसिक स्वास्थ्य
गांवों में जब कोई बीमार होता है तो पहले संपर्क ASHA बहनों से होता है.
लेकिन मानसिक स्वास्थ्य पर उनकी कोई ट्रेनिंग नहीं होती.
दरभंगा की एक ASHA कार्यकर्ता कहती हैं —
“हम दवा, गर्भवती और बच्चों के टीके पर काम करते हैं. ये ‘पगला-पागल’ वाला मामला तो ओझा का होता है.”
जहां उम्मीद दिखी: एक गांव, एक काउंसलर
मध्यप्रदेश के सिवनी जिले के एक गांव में एक NGO ने “Community Wellness Worker” रखा — यानी स्थानीय युवक जिसे मानसिक बीमारी की ट्रेनिंग दी गई. वह नियमित रूप से घर-घर जाकर समझाता है:
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कि नींद न आना, अकेले बैठना, खाना बंद करना बीमारी के लक्षण हो सकते हैं
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ओझा दिखाने के बजाय PHC (प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र) जाना चाहिए
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और दवा से फर्क पड़ता है
तीन साल में वहां 25 से ज़्यादा लोगों का इलाज हो चुका है, और अब गांव में 'बेताल' की चर्चा बंद हो चुकी है.
स्कूलों में मानसिक स्वास्थ्य की शिक्षा?
NEP 2020 में बच्चों के लिए 'Social Emotional Learning' का जिक्र किया गया है. लेकिन गांवों के सरकारी स्कूलों में इसका कोई नामोनिशान नहीं. न कोई trained काउंसलर, न कोई मेंटल हेल्थ किट.
हालांकि कुछ जिलों में NGO ने बच्चों को “भावनात्मक डायरी” लिखना सिखाया है. बिलासपुर के एक स्कूल में बच्चों से कहा गया:
“अगर तुम दुखी हो, तो किसी भरोसेमंद बड़े से बात करो — ये कमजोरी नहीं है.”
“बेताल को भूत नहीं, बीमारी मानिए”
जब गांव में किसी के पागल होने की खबर आती है, तो लोग कहते हैं — “अब ये समाज से कट गया.” लेकिन कोई यह नहीं कहता कि “अब ये इलाज से जुड़ सकता है.”
“हर गांव में एक बेताल है” असल में यह वाक्य नहीं, एक सामूहिक सज़ा है — जो समाज उस इंसान को देता है जो मानसिक रूप से थका है, टूटा है, या तकलीफ में है. हमें अब यह समझना होगा — ‘बेताल’ को भगाने से पहले, उसे समझना ज़रूरी है.