एलिस एक्का: पहली हिन्दी आदिवासी साहित्यकार

भारत की पहली हिंदी आदिवासी लेखिका के तौर पर एलिस एक्का को पहचाना जाता है. उनका संबंध आदिवासी विद्रोह के प्रसिद्ध अगुवा बिरसा मुंडा के परिवार से है. एलिस मुंडा आदिवासियों के गोत्र से है.

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एलिस एक्का

एलिस एक्का

भारत में आदिवासी लेखिकाओं का साहित्य बहुचर्चित नहीं है. आदिवासी महिलाएं हिंदी और अंग्रेजी के इतर आदिवासी भाषाओं में साहित्य लिखती हैं, जिससे आज भी देश के कई लोग नावाकिफ हैं. इसे पहली नजर में भाषाई दूरी मान ली जाती है, हालांकि यह कुछ हद तक सही भी है. मगर जिस तरीके से ओड़िया, बांग्ला, तेलुगू, मराठी, कन्नड़ आदि भाषाओं के साहित्य का अनुवाद कर उसे पढ़ा जाता है. ठीक उसी तरह क्या आदिवासी भाषाओं के साहित्य को जगह नहीं दी जा सकती?

भारत की पहली हिंदी आदिवासी लेखिका के तौर पर एलिस एक्का को पहचाना जाता है(पूरा नाम एलिस खिस्तयानी  पूर्ति). मुंडा आदिवासी समुदाय की एलिस साहित्य लिखने वाली भारत की पहली महिला आदिवासी साहित्यकार है. एलिस का जन्म 8 सितंबर 1917 को रांची में हुआ. उनका संबंध आदिवासी विद्रोह के प्रसिद्ध अगुवा बिरसा मुंडा के परिवार से है. एलिस मुंडा आदिवासियों के गोत्र से है. एलिस के पिता नुअस पूर्ति पुलिस विभाग में इंस्पेक्टर थे. रांची में सेवा के दौरान एलिस का जन्म लाल सिरम टोली में हुआ. उनके दो भाई बहन ग्रेसी पूर्ति और बसंत पूर्ति भी है, जबकि एक अआर्नेस्ट पूर्ति दूसरी मां से हुए भाई हैं.

एलिस ने प्राइमरी से मैट्रिक तक की पढ़ाई संत मार्गरेट स्कूल बहु बाजार, रांची से  की. 1938 में एब्रोजिनल फेलोशिप पाने के बाद कोलकाता के स्कॉटिश चर्च कॉलेज से अंग्रेजी साहित्य में ग्रेजुएशन किया. ऐसा करने वाली वह झारखंड की पहली आदिवासी महिला हैं. राज्य में पहली ग्रेजुएट होने पर जिला स्कूल रांची में उनके लिए लगाया गया मेधा स्मारक आज भी मौजूद है. ग्रेजुएशन के बाद बांकीपुर, पटना के टीचर्स ट्रेनिंग स्कूल से उन्होंने बीएड किया और रांची यूनिवर्सिटी से 1963-64 में स्नातकोत्तर की उपाधि हासिल की. 

लेखिका एलिस को मृदुभाषी, सटीक बोलने वाली, सहज और सुंदर व्यक्तित्व वाली साहित्यकार कहा जाता है. वह अंग्रेजी, हिंदी, झारखंडी भाषाओं के साहित्य को पढ़ना- लिखना पसंद करती थी. कहानी लिखना, विश्व साहित्य का अनुवाद करना भी उनके दिनचर्या में शामिल था. उन्होंने खलील जिब्रान की कई रचनाओं का भी अनुवाद किया है. हालांकि अनुवादों के अलावा एलिस लिखा भी करती थी. लेकिन उनकी रचनाओं को संभाल कर नहीं रखे जाने के कारण वह काफी साल तक गुमनाम रहीं. मगर सुप्रसिद्ध आदिवासी साहित्यकार वंदना टेटे ने उनकी कहानियों को ढूंढ निकाला और 2015 में “एलिस एक्का की कहानी” शीर्षक से कथा संकलन के रूप में राधाकृष्ण (राजकमल) दिल्ली ने प्रकाशित कराया.

एलिस एक्का ने 50 के दशक में कहानी लिखने की शुरुआत की. उनकी कहानियों को प्रसिद्ध कथाकार राधाकृष्ण के संपादन में 3 फरवरी 1947 को ‘आदिवासी’ नामक साप्ताहिक पत्रिका में प्रकाशन किया जाने लगा था. उन्हें हिंदी साहित्य की पहली दलित कहानी लेखिका भी कहा जाता है. आदिवासी पत्रिका के जनवरी, 1962 के अंक में छपी “दुर्गी के बच्चे और एल्मा की कल्पनाएं” प्रशासन के लिहाज से प्रेमचंद के बाद दलित विषय पर लिखी गई हिंदी की पहली कहानी है. इस कहानी में एक दलित महिला और एक आदिवासी है. उनकी कहानियों से आदिवासी समाज बखूबी झलकता है. आदिवासियों के संस्कार, स्वभाव, खेती, जंगल, जमीन से जुड़ाव सभी को उन्होंने अपनी कहानियों में बखूबी जोड़ा है. जिसे आदिवासियों के बारे में सही समझ विकसित करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका के तौर पर देखा जा सकता है.

लेखिका एलिस एक्का ने शिक्षा के जीवन को चुना था। वह समय-समय पर पढ़ने के साथ-साथ खुद भी पढ़ाई करती थीं. नवंबर 1971 में डॉक्टर निर्मल मिंज की अगुवाई में गोस्सनर कॉलेज की स्थापना हुई, जिससे एलिस भी जुड़ गई. 61 वर्ष की उम्र में 5 जुलाई 1978 को गंगू टोली, रांची में लेखिका एलिस ने अंतिम सांस ली.

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