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बिहार के मूलनिवासी इलाकों में आज भी विकास की तस्वीर मुरझाई सी दिखती है. यहां की मिट्टी में मेहनत के साथ-साथ संघर्ष भी घुला हुआ है. जब हम बिहार के पूर्वी चंपारण, मधेपुरा, जमुई, अररिया जैसे जिलों के मूलनिवासी गांवों की तरफ़ बढ़ते हैं, तो देख सकते हैं कि प्रकृति की छांव में भी वहां के लोगों की ज़िंदगी कितनी उजड़ी और असमंजस में है.
महुआपार गांव, जमुई में संगीता मेहतो के परिवार की कहानी सुनें. संगीता एक मूलनिवासी महिला हैं, जो पिछले कई सालों से अपने गांव में शिक्षा और स्वास्थ्य की बेहतर सुविधाओं की मांग करती हैं. उनका कहना है, "स्कूल तक पहुंचना इतना मुश्किल है कि कई बच्चे स्कूल जाना छोड़ देते हैं. बारिश के मौसम में रास्ते की कीचड़ बच्चों को रोक देती है. टीचर तो कई बार ही आते हैं, किताबें तो कभी मिली ही नहीं."
यह कहानी बिहार के मूलनिवासियों की आबादी लगभग 13 जिलों में है, जहां गरीबी और विकास की कमी ने जीवन को एक तरह से जंजीरों में जकड़ रखा है. बिहार अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति विकास विभाग की 2023 की रिपोर्ट के मुताबिक, इन जिलों में 50 प्रतिशत से अधिक परिवार गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करते हैं. शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार और आधारभूत सुविधाओं की कमी ने यहां के लोगों को हमेशा विकास के मूलधारा से दूर रखा है.
शिक्षा: उम्मीदों और निराशाओं के बीच की लड़ाई
राजू संथाल, जो पूर्वी चंपारण के एक छोटे से गांव के निवासी हैं, बताते हैं, "पिछले साल हमारे गांव के स्कूल में केवल 30 प्रतिशत टीचर ही नियमित आए. किताबें पुरानी थीं और बच्चों की पढ़ाई अधूरी रह गई. इससे बच्चों का मन पढ़ाई से उचट जाता है."
राष्ट्रीय शिक्षा सर्वेक्षण (NEP) 2022 के आंकड़े भी यही बताते हैं कि बिहार के मूलनिवासी इलाकों में लगभग 38 प्रतिशत बच्चे प्राथमिक शिक्षा पूरी किए बिना ही स्कूल छोड़ देते हैं, जबकि पूरे राज्य का औसत 18 प्रतिशत है.
शिक्षा की इस कमी का सबसे बड़ा असर इन बच्चों के भविष्य पर पड़ता है. जब स्कूल का बुनियादी ढांचा ही खराब हो, तो वह ज़रूर बच्चों के मनोबल को टूटने का कारण बनता है.
स्वास्थ्य सुविधाओं की दयनीय हालत
स्वास्थ्य के मामले में भी मूलनिवासी इलाकों की तस्वीर कुछ अलग नहीं है. राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन की 2022 की रिपोर्ट के मुताबिक, मूलनिवासी बहुल इलाकों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की संख्या राज्य के औसत से लगभग 20 प्रतिशत कम है. इस कमी का सबसे बड़ा असर गर्भवती महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों पर पड़ता है.
मधेपुरा के सिंगरवा गांव की 32 वर्षीय अंजना देवी बताती हैं, "पिछले साल मेरी बहन को अस्पताल पहुंचाने के लिए हमें करीब 15 किलोमीटर पैदल चलना पड़ा. रास्ते में इतनी मुश्किलें आईं कि कई बार हमें लगा इलाज तक पहुंच नहीं पाएंगे."
मलेरिया और डेंगू जैसी बीमारियां यहां आम हैं, लेकिन इलाज की सुविधा न होने के कारण जान-माल का खतरा बना रहता है.
जंगलों का कटाव: आदिवासियों की सांसे कमज़ोर
बिहार वन विभाग की रिपोर्ट 2022 के अनुसार, बीते पांच सालों में राज्य के मूलनिवासी इलाकों में जंगलों का 12 प्रतिशत हिस्सा कट चुका है. जंगलों के बिना मूलनिवासी जीवन अधूरा है, क्योंकि ये उनके रोज़गार, भोजन और सांस्कृतिक पहचान का आधार हैं.
पश्चिमी चंपारण के कटरा टोला के गोविंद मंडल कहते हैं, "हमारे जंगल ही हमारी ज़िंदगी हैं. जब जंगल कटेंगे तो हमारा अस्तित्व कैसे बचेगा?" वनाधिकार कानूनों के बावजूद, जमीनी हकीकत में जंगल कटने की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं, जिससे मूलनिवासी समुदायों का जीवन संकट में है.
पलायन: मजबूरी का दूसरा नाम
जल संकट और बेरोजगारी ने मूलनिवासी इलाकों से पलायन की गति तेज़ कर दी है. बिहार में हुए पलायन अध्ययन 2023 के अनुसार, मूलनिवासी बहुल जिलों से पिछले तीन वर्षों में लगभग 35 प्रतिशत परिवार अपने गांव छोड़कर शहरों की ओर पलायन कर चुके हैं.
मधेपुरा के रामनिवास ठाकुर कहते हैं, "पानी की कमी ने खेती को नाकारा बना दिया है. गांव में रोज़गार कम है, इसलिए हमें शहरों में जाना पड़ता है. पर शहरों में भी रोज़गार नहीं मिलता, बच्चों की पढ़ाई अधूरी रह जाती है."
कोशिशें और उम्मीदें
हालांकि स्थिति चिंताजनक है, लेकिन कुछ गैर-सरकारी संस्थान इन इलाकों में कौशल विकास और रोजगार के अवसर बढ़ाने की दिशा में काम कर रहे हैं. सिलाई-कढ़ाई, कंप्यूटर शिक्षा, कृषि तकनीक, और स्वरोजगार को बढ़ावा देकर युवाओं को आत्मनिर्भर बनाया जा रहा है.
जमुई के विकास केंद्र की संचालक माया कुमारी कहती हैं, "हम कोशिश कर रहे हैं कि मूलनिवासी युवा नए कौशल सीखें और अपनी जिंदगी बेहतर बनाएं. सरकार को भी इन प्रयासों को समर्थन देना चाहिए."
सरकार की भूमिका और चुनौतियां
बिहार सरकार ने मूलनिवासी विकास के लिए कई योजनाएं शुरू की हैं, जैसे शिक्षा के लिए छात्रवृत्ति, स्वास्थ्य के लिए मोबाइल क्लीनिक, और वनाधिकार के लिए विशेष प्रावधान. लेकिन जमीनी स्तर पर इन योजनाओं का प्रभाव सीमित दिखता है.
सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 2022-23 में मूलनिवासी विकास बजट का केवल 65 प्रतिशत ही सही तरीके से खर्च हुआ है. भ्रष्टाचार, प्रशासनिक सुस्ती, और क्षेत्रीय असमानताओं के कारण योजनाएं लाभार्थियों तक नहीं पहुंच पातीं.
क्यों सरकार अपनी नज़रें फेर रही हैं?
बिहार के मूलनिवासी इलाकों की समस्याएं जटिल हैं, लेकिन असंभव नहीं. ज़रूरी है कि सरकार, सामाजिक संस्थान और स्थानीय समुदाय मिलकर विकास के रास्ते को आसान बनाएं.
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शिक्षा और स्वास्थ्य की बुनियादी सुविधाओं में सुधार लाएं
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वन संरक्षण के साथ आदिवासियों के अधिकारों का सम्मान करें
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पलायन रोकने के लिए स्थानीय रोजगार के अवसर बढ़ाएं
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पारदर्शिता और बेहतर प्रशासन से सरकारी योजनाओं का लाभ सुनिश्चित करें
अगर ये कदम उठाए गए, तो बिहार के मूलनिवासी इलाकों में न केवल विकास होगा, बल्कि वहां के लोगों के जीवन में नई उम्मीदें और नई रोशनी भी आएगी.