विचाराधीन कैदियों के मामले सभी चुप क्यों?

राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो, 2022 के आंकड़ों के अनुसार देश में विचाराधीन कैदियों की सर्वाधिक संख्या उत्तर प्रदेश में है. जबकि दूसरे पायदान पर बिहार है.

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कुणाल कुमार शांडिल्य
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धनबाद जेल में कैदी की हत्या

कुछ महीने पहले गृह मामलों की संसदीय स्थायी समिति ने राज्यसभा को सौंपी अपनी रिपोर्ट में कहा कि भारत के जेलों में 70% से अधिक कैदी विचाराधीन हैं. इन कैदियों पर जमानत राशि से अधिक पैसा खर्च किया जा रहा है. स्वस्थ न्यायपालिका की कमी और प्रशासनिक निष्क्रियता के कारण यह आंकड़ा समय के साथ बढ़ता ही जा रहा है.

कौन हैं विचाराधीन कैदी और हालात इतनी दयनीय क्यों?

दरअसल विचाराधीन कैदी उस व्यक्ति को कहा जाता है जिसके खिलाफ कोर्ट में मुकदमा चल रहा हो और इस दौरान उसे न्यायिक हिरासत पर रखा गया हो. ऐसे व्यक्ति का अपराध सिद्ध नहीं होता लेकिन फिर भी उसे न्याय मिलने तक सजायाफ्ता की तरह ही जेल काटनी पड़ती है. 

इन कैदियों की लगातार बढ़ती संख्या एक चिंता का विषय बनती जा रही है. लेकिन जमीनी स्तर पर सरकार या न्यायपालिका की ओर से इस पर सुधार की गुंजाइश कम ही दिखाइए पड़ती है. इससे न केवल पूरे न्यायिक तंत्र की गति धीमी पड़ जाती है बल्कि विचाराधीन कैदी के रूप में जेल में कैद व्यक्ति का जीवन भी निष्क्रिय बनकर रह जाता है.

राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो, 2022 के आंकड़ों के अनुसार देश में विचाराधीन कैदियों की सर्वाधिक संख्या उत्तर प्रदेश में है. जबकि दूसरे पायदान पर बिहार है. रिपोर्ट बताती है कि उत्तर प्रदेश में विचाराधीन कैदी 21.2% यानी लगभग 90 हजार हैं.

वहीं दूसरी ओर बिहार में 13.9% लगभग 60 हजार विचाराधीन कैदी हैं. बिहार में विचाराधीन कैदियों के बढ़ते मामलों पर क्रिमिनल जस्टिस सोशल वर्कर और लॉ फाउंडेशन से जुड़े प्रवीण बताते हैं कि "जब से बिहार सरकार ने बिहार एक्साइज अमेंडमेंट एक्ट, 2016 को लागू किया, तब से इन कैदियों की संख्या काफी बढ़ गई है. शराब के केस में लोग ज्यादा गिरफ्तार किए गए हैं. हमारी 1000 की केस स्टडी में 600 मामले लगभग शराब से जुड़े हैं. शराबबंदी से पहले और बाद की रिपोर्ट को अगर देखा जाए तो इससे स्पष्ट होता है कि विचाराधीन कैदियों की संख्या काफी तेजी से बढ़ी है."

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शराब के मामले में अनुसूचित जाति एवं जनजाति पर सबसे अधिक मुकदमे

कहने को तो बिहार में शराबबंदी है लेकिन जमीनी स्तर की स्थिति जगजाहिर है. आर्थिक स्थिति और आपसी मनमुटाव की वजह से किसी के ऊपर अनावश्यक दोषारोपण करके उसे शराब के मामले में फंसना बेहद आसान है. बिहार के अनुसूचित जाति एवं जनजाति समुदाय के लोगों के साथ भी यही हो रहा है. इस विषय पर क्रिमिनल जस्टिस सोशल वर्कर प्रवीण बताते हैं कि 

"गरीब और दलित समुदाय के लोगों के पास आमतौर पर इस तरह के मामलों में फंसने के बाद बेल करने के लिए पैसे नहीं होते इस वजह से इन्हें ना तो वकील ही मिल पाते हैं और ना लीगल एड. आर्थिक तंगी के अलावा रोजगार की कमी की वजह से भी दलित समुदाय के ज्यादा लोग छोटे-मोटे अपराध करने पर विवश हैं. इसके अलावा शराब के चक्कर में इनको दोषी ठहरना और आसान हो जाता है. कई बार तो जिनका दोष नहीं होता उन्हें भी लंबे समय तक जेल में रहना पड़ता है."

राज्य मानवाधिकार और एससी-एसटी आयोग भी मामले में नहीं है गंभीर

आमतौर पर आयोग इसलिए बनाए जाते हैं ताकि जब सरकारी तंत्र किसी खास वर्ग की अनदेखी करें तो आयोग उस पर संज्ञान ले सके. लेकिन बिहार में 2016 के बाद बढ़ते विचाराधीन कैदियों के मामले में ना तो राज्य मानवाधिकार आयोग कुछ कर रहा है और ना ही एससी-एसटी आयोग.

बिहार में पिछड़ों के नाम पर राजनीति तो खूब की जाती है लेकिन धरातल पर उनके लिए काम नहीं किया जाता. पिछले वर्ष बिहार सरकार ने एससी-एसटी कमिशन को भंग कर दिया. इसके बाद से अब तक बिहार में इसका गठन सही तरीके से नहीं हो पाया है. ऐसे में अब विचाराधीन कैदी के रूप में सजा काट रहे दलितों के पास एससी-एसटी कमिशन का दरवाजा खटखटाने का रास्ता भी नहीं है.

एससी-एसटी आयोग की निष्क्रियता पर दलित अधिकारों के एक्टिविस्ट राजीव हमें बताते हैं कि "जिस तरह से विचाराधीन कैदियों में बहुसंख्यक आबादी दलितों की है. यह राज्य सरकार की विफलता को दर्शाता है. उनके अधिकारों की रक्षा के लिए कोई आयोग नहीं है. दुर्भाग्य है कि बिहार में राज्य स्तर पर कोई आयोग नहीं है. पिछले साल आयोग बना लेकिन 6 महीने के बाद उसे भंग कर दिया गया. उस दिन से लेकर आज तक आयोग का गठन सरकार ने नहीं किया है. आयोग के फंक्शनल नहीं होने का परिणाम है कि दलित कैदियों को लीगल सहायता नहीं मिल पा रही है. ऐसे में बिना आयोग के वह कहीं अपील भी नहीं कर सकते. यह सरकार के संवेदनहीनता को दिखाती है. मेरा आरोप है कि यह दलित विरोधी सरकार है. सरकार ने जानबूझकर संवैधानिक आयोग को भंग करके रखा है ताकि दलित अपनी आवाज उठा ना सके."

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कोर्ट से जमानत नहीं मिलने के कारण भी बढ़ रही है ओवरक्राउडिंग

विचाराधीन कैदियों को आमतौर पर कोर्ट से जल्दी जमानत नहीं मिलती. खासतौर पर लोअर कोर्ट से बेल का ना मिलना एक और बड़ी समस्या है. कई बार मजिस्ट्रेट भी बेल नहीं देते. संगीन अपराध का मामला न होते हुए भी गंभीर अपराध करार दे दिया जाता है. इसके अलावा कई बेल कंडीशंस भी होती है.

इस विषय पर प्रवीण बताते हैं कि "ज्यूडिशल सिस्टम में बेल कंडीशन बहुत सख्त हो जाता है. खासकर सबोर्डिनेट ज्यूडिशरी में ज्यादातर गरीब लोग जिनके पास पैसे नहीं हैं, उनके लिए तो और बड़ी समस्या है. वकील और लीगल ऐड भी उन्हें नहीं मिल पाता. इसके अलावा बेल का प्रावधान काफी धीमा है. बेल कंडीशन थोड़ा लिबरल होना चाहिए. कभी-कभी तो 1 से 3 साल तक बेल न मिलने की वजह से जेल में बंद रहना पड़ता है."

केस डायरी का जमा ना होना भी है ओवरक्राउडिंग की एक बड़ी वजह

जब किसी विचाराधीन कैदी द्वारा कोर्ट में जमानत के लिए याचिका डाली जाती है तो आमतौर पर अदालत उसे सीधे जमानत ना देकर उससे केस डायरी मांग लेती है. केस डायरी मांगने का मुख्य उद्देश्य यह देखना होता है कि आरोपित के खिलाफ सबूत कितना पुख्ता है. यदि अदालत को यह लगता है कि पुख्ता सबूत इसके खिलाफ ज्यादा है तो ऐसी स्थिति में अदालत उसे जमानत नहीं देती.

लेकिन आमतौर पर पुलिस के द्वारा ही केस डायरी नहीं तैयार की जाती. अदालत के नोटिस के बावजूद भी पुलिस का रवैया इस मामले में सुस्त ही रहता है. विचाराधीन कैदियों के 500 से अधिक केस लड़ चुके वरिष्ठ अधिवक्ता संतोष जी बताते हैं कि "जब किसी का बेल फाइल होता है तो थाने से डायरी आती ही नहीं है. अधिकतर मामलों में यही देखा गया है कि कारण बताओं नोटिस के बाद ही डायरी आती है. माननीय पटना हाईकोर्ट का कहना है कि अगर कोई जेल में है तो दो सप्ताह के अंदर उसके बेल को स्वीकृत या रिजेक्ट कर देना है. लेकिन इसका पालन नहीं हो रहा है. छोटे केस के मामलों में भी पुलिस अंदर कर देती है."

विचाराधीन कैदी के रूप में जेल के अंदर नहीं कर सकते आर्थिक अर्जन

बिना किसी अपराध के मुकदमे का दंश झेल रहे कैदियों के साथ आर्थिक समस्या का संकट भी उतना ही गहरा होता है. खासकर जब परिवार में कमाने वाला एकमात्र सदस्य ही जेल में हो तब तो दो वक्त के भोजन पर भी आफत आ पड़ती है. इससे कैदी के परिवार के बच्चों पर भी बुरा असर पड़ता है तथा उनके गलत रास्ते पर जाने की संभावना भी बढ़ जाती है.

उससे भी बड़ी विडंबना तो यह है कि विचाराधीन कैदी के रूप में वह जेल के अंदर किसी तरह का आर्थिक अर्जन भी नहीं कर सकता. वरिष्ठ अधिवक्ता संतोष बताते हैं कि "जब तक किसी दोषी को पूर्ण रूप से सजा नहीं हो जाती तब तक उसे जेल में केवल खाना और घूमने होता है. यह प्रावधान जरूर है कि जिस कैदी का अपराध सिद्ध हो गया हो उसे जेल के अंदर काम करने पर 80-90 रुपए प्रतिदिन के हिसाब से मिलता है. लेकिन विचाराधीन कैदी को जेल के अंदर ना तो काम मिलता है और ना ही पैसे."

गरीब कैदियों के लिए निशुल्क अधिवक्ता उपलब्ध कराने का है प्रावधान

भारतीय संविधान के 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 के द्वारा संविधान के भाग-4 में अनुच्छेद 39-ए को जोड़ा गया था. यह प्रावधान सुनिश्चित करता है कि कैदियों को निशुल्क कानूनी सहायता के रूप में वकील रखने का अधिकार है. सुनील बत्रा बनाम दिल्ली प्रशासन (1978) के केस में उच्चतम न्यायालय ने कैदियों के मौलिक अधिकारों को बरकरार रखने के निर्देश दिए थे. इसके बावजूद भी आर्थिक रूप से गरीब विचाराधीन कैदियों की स्थिति नहीं सुधर पाई है. 

पुराने ढर्रे को बिना बदले नहीं निकलेगा समस्या का हाल

दावा किया जाता है कि आज भारत का कोना-कोना डिजिटल माध्यम से जोड़ दिया गया है. लेकिन भारत की न्यायपालिका ही इस मामले में जरा पीछे रह गई. आज भी न्यायपालिका अपने परंपरागत व्यवस्था के तहत दोषियों को कोर्ट में बुलाकर मुकदमा चलाती है. इससे न केवल समय की बर्बादी होती है बल्कि संसाधनों की भी.

तेजी से मामलों का निपटान न्यायपालिका की जवाबदेही है. विचाराधीन कैदी के रूप में या फिर किसी भी रूप में न्यायिक कमी के कारण 1 दिन की अधिक सजा भी अमानवीय है और न्यायालय की साख पर सवाल उठाती है. दूरगामी परिणामों को देखते हुए न्यायपालिका के बिस्तार पर भी जोड़ देने की आवश्यकता है. यदि न्यायपालिका ही प्रतिगामी मूल्यों की वाहक बन जाएगी तो न्याय और न्याय मांगने वाले दोनों हाशिये पर चले जाएंगे.