बिहार में नक्सलवाद: विकास की नई उम्मीद या सिर्फ एक भ्रम?

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आंकड़ों के अनुसार भी, बिहार में नक्सल हिंसा से होने वाली मौतों में 80% की कमी दर्ज की गई है. 2023 तक ये घटनाएं घटकर लगभग 30-35 वार्षिक घटनाओं तक सिमट गईं.

author-image
नाजिश महताब
New Update
झारखंड में नक्सलियों ने मचाया आतंक

कभी बिहार के कई जिलों में नक्सलवाद का आतंक छाया हुआ था. लाल झंडों की छाया में जीते गांव, विकास से कटे क्षेत्र और गोलियों की गूंजयह सब बिहार की एक कड़वी हक़ीक़त थी. लेकिन पिछले एक दशक में हालात काफ़ी बदले हैं. सरकार दावा कर रही है कि बिहार अब नक्सल हिंसा से लगभग मुक्त हो चुका है.

सवाल यह है कि क्या सचमुच लाल आतंक के ख़ात्मे के बाद विकास की बयार बहने लगी है, या फिर यह बदलाव सिर्फ़ आंकड़ों तक सीमित है?

नक्सलवाद का पतन: उपलब्धि के आंकड़े

गृह मंत्रालय के अनुसार, वर्ष 2010 में बिहार में नक्सल हिंसा के 316 मामले सामने आए थे, जिनमें 97 लोगों की जान गई थी. वहीं, 2023 तक ये घटनाएं घटकर लगभग 30-35 वार्षिक घटनाओं तक सिमट गईं. 'लक्षित हिंसा प्रभावित जिलों' (Left Wing Extremism Affected Districts) की सूची से बिहार के कई जिले, जैसे जहानाबाद, अरवल, नवादा और औरंगाबाद अब हटाए जा चुके हैं.

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आंकड़ों के अनुसार भी, बिहार में नक्सल हिंसा से होने वाली मौतों में 80% की कमी दर्ज की गई है. सुरक्षा बलों और स्थानीय प्रशासन की संयुक्त कार्रवाइयों, जैसे विशेष सुरक्षा बल (COBRA battalions) की तैनाती और सिविक एक्शन प्रोग्राम के तहत जनता से संवाद बढ़ाने के प्रयासों का भी इसमें बड़ा योगदान रहा है.

छत्तीसगढ़-महाराष्ट्र बॉर्डर पर सात नक्सली ढेर

क्या विकास भी उतनी तेज़ी से पहुंचा?

यह बात सच है कि नक्सल हिंसा में भारी कमी आई है. लेकिन क्या उस ख़ाली जगह को विकास ने भर दिया है

यहां तस्वीर इतनी साफ़ नहीं है. बिहार सरकार ने दावा किया कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में 3000 किलोमीटर सड़कें बनाई गईं.  प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के तहत कई गांव सड़क से जुड़े, लेकिन आज भी औरंगाबाद, गया, लखीसराय, जमुई जैसे जिलों के अंदरूनी गांवों में सड़कें कच्ची और बरसात में अनुपयोगी हो जाती हैं.

कई जगह स्कूल खुले ज़रूर हैं, पर शिक्षकों की भारी कमी है. बहुत से स्कूलों में अभी भी मल्टीग्रेड टीचिंग (एक शिक्षक द्वारा कई कक्षाओं को एकसाथ पढ़ाना) चलती है. प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (PHC) ज़्यादातर कागज़ों पर ही सक्रिय हैं. ग्रामीण इलाकों में डॉक्टरों और दवाइयों की भारी कमी है. एक 2022 की रिपोर्ट के अनुसार, गया और औरंगाबाद के ग्रामीण इलाकों में 60% से ज्यादा महिलाएं अब भी प्रसव के समय घरों पर ही बच्चा पैदा करती हैं.

नक्सलवाद के खात्मे के बाद भी स्थानीय लोगों के लिए स्थायी रोजगार के अवसर नहीं बने हैं. MGNREGA जैसी योजनाएं चलती तो हैं, लेकिन भुगतान में देरी और भ्रष्टाचार के आरोप भी आम हैं. नतीजतन, युवा आज भी बड़ी संख्या में दिल्ली, पंजाब, महाराष्ट्र जैसे राज्यों की ओर पलायन कर रहे हैं.

बिहार का एक पिछड़ा और नक्सल प्रभावित क्षेत्र डुमरिया

डुमरिया ब्लॉक, गया जिला, बिहार का एक पिछड़ा और नक्सल प्रभावित क्षेत्र है, जहां विकास की गति अन्य क्षेत्रों की तुलना में धीमी रही है.

डुमरिया ब्लॉक में शिक्षा का स्तर चिंताजनक है. एक अध्ययन के अनुसार, गया जिले के विभिन्न ब्लॉकों में पुरुष साक्षरता दर में व्यापक अंतर देखा गया है. डुमरिया ब्लॉक का Z-स्कोर -1.62 है, जो जिले में सबसे कम है, जबकि गया टाउन C.D. ब्लॉक का Z-स्कोर 2.87 है. इससे स्पष्ट है कि डुमरिया ब्लॉक में पुरुष साक्षरता दर जिले के अन्य ब्लॉकों की तुलना में काफी कम है. 

डुमरिया ब्लॉक के निवासी बताते हैं कि "हमारे यहां किसी भी तरह का विकास नहीं हुआ है. हालांकि नक्सली मामलों में कमी आई है, पर आज भी डर लगता है. लोगों के पास पक्का घर है ही पानी की सुविधा. लोगों की आर्थिक स्थिति इस तरह ख़राब है कि बच्चों का भविष्य भी अंधकार की ओर जा रहा है. ऐसे में सरकार को हम पर विशेष ध्यान देने की ज़रूरत है, ऐसा लगता है मानो हम 10 साल पीछे चल रहें हैं."

डुमरिया ब्लॉक में बिजली आपूर्ति अनियमित है. कई गांवों में आज भी नियमित बिजली आपूर्ति नहीं हो पाती, जिससे शिक्षा, स्वास्थ्य और घरेलू कार्यों पर असर पड़ता है. जल आपूर्ति की भी स्थिति संतोषजनक नहीं है, हैंडपंप और कुओं पर निर्भरता अधिक है, जो गर्मियों में सूख जाते हैं.

सामाजिक असमानता: जड़ में वही पुरानी समस्याएं

नक्सलवाद का मूल कारण केवल गरीबी नहीं था, बल्कि भूमि असमानता, जातीय भेदभाव और सामाजिक शोषण था. आज भी भूमिहीन मज़दूरों, दलितों और आदिवासी समुदायों के लिए हालात बहुत नहीं बदले हैं. ज़मीन सुधार कानूनों के बावजूद, बड़ी ज़मीनें आज भी कुछ प्रभावशाली जातियों के हाथों में केंद्रित हैं. सरकार ने भले ही हिंसा खत्म कर दी हो, लेकिन सामाजिक न्याय की असली लड़ाई अब भी अधूरी है.

क्या सच में नक्सलवाद हुआ ख़त्म?

दी न्यू इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार जनवरी 8, 2025 को गया जिले के चकरबंदा वन क्षेत्र में पुलिस ने एक बड़ी कार्रवाई करते हुए भारी मात्रा में विस्फोटक सामग्री और कच्चे माल बरामद किए. यह क्षेत्र अवैध हथियार और आईईडी बनाने के लिए इस्तेमाल हो रहा था. बरामदगी में 44 टिफिन बम, 20 टिन कटर, 20 हथौड़े, और अन्य सामग्री शामिल थी, जो एक बड़े हमले की योजना की ओर इशारा करती है.

देश सेवक की रिपोर्ट के अनुसार 30 मार्च 2025 को बिहार पुलिस की विशेष कार्य बल (STF) और गया पुलिस ने संयुक्त अभियान में सात नक्सलियों को गिरफ्तार किया. इनसे भारी मात्रा में हथियार और गोला-बारूद बरामद हुए, जिनमें कुछ पुलिस से लूटे गए थे. 

राज्य सरकार ने 'विकास योजनाओं के तेज क्रियान्वयन' के लिए कई घोषणाएं कीजैसे हर गांव में विद्युतीकरण, पाइप जल आपूर्ति योजना, और उद्यमिता को बढ़ावा देने के कार्यक्रम. लेकिन असल समस्या क्रियान्वयन में हैं. ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी बिजली कटौती आम बात है, और पाइप जल योजनाएं अक्सर तकनीकी खराबी या रखरखाव की कमी के कारण बाधित हो जाती हैं.

क्या उम्मीद हैं और क्या चुनौतियां?

उम्मीद की किरणें भी हैं. औरंगाबाद, गया और जमुई जिलों में अब छोटे-छोटे उद्योगों की शुरुआत हो रही है.  कई जगह युवाओं ने ग्राम उद्यमिता और ऑर्गेनिक खेती की दिशा में प्रयास शुरू किए हैं. महिलाओं के स्वयं सहायता समूह (SHG) के माध्यम से आर्थिक सशक्तिकरण बढ़ रहा है.

लेकिन इन प्रयासों को सफ़ल बनाने के लिए सरकार को केवल सुरक्षा बलों की तैनाती नहीं, बल्कि शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार और सामाजिक न्याय पर दीर्घकालिक निवेश करना होगा.

गया के डुमरिया ब्लॉक के रहने वाली पप्पू (बदला हुआ नाम) बताती हैं कि "आज भी रोज़गार की कमी बहुत है. हमें पलायन करना पड़ता है. सुविधाएं नहीं है, योजनाएं हम तक नहीं पहुंच पाती, घर का हाल अच्छा है. पिता जी मजदूरी करते हैं और मैं काम के तलाश में हूं. आवास योजना का लाभ मिला और ही नल जल योजना का, सरकार हमें ऐसे देखती है जैसे मानो हमलोग ही नक्सल हैं. हम सरकार से यही विनती करते हैं कि सरकार हम पर भी ध्यान दे."

दक्षिण एशिया आतंकवाद पोर्टल (एसएटीपी) द्वारा संकलित आंशिक आंकड़ों के अनुसार, बिहार में 2024 में वामपंथी उग्रवाद से संबंधित हिंसा में एक नागरिक की मौत दर्ज की गई, जबकि 2023 में कोई मौत दर्ज नहीं की गई. 2022 में चार मौतें (सभी माओवादी) दर्ज की गईं. इससे पहले सबसे कम चार नागरिक मौतें 2015 में दर्ज की गई थीं. राज्य में सबसे अधिक 46 नागरिक मौतें दो बार, 2000 और 2010 में दर्ज की गई थीं.

लगातार पांचवें साल, राज्य में सुरक्षा बलों को कोई नुकसान नहीं

लगातार पांचवें साल, 2024 में राज्य में सुरक्षा बलों को कोई नुकसान नहीं हुआ. आखिरी सुरक्षा बल की मौत 14 फरवरी, 2019 को दर्ज की गई थी, जब गया जिले के लंगुराही जंगलों में तलाशी अभियान पर निकली सुरक्षा बल की टीम को निशाना बनाकर माओवादियों द्वारा किए गए बारूदी सुरंग विस्फोट में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के एक सब-इंस्पेक्टर की मौत हो गई थी. हालांकि, तब से सुरक्षा बलों ने 22 माओवादियों को मार गिराया है.

ये संख्याएं दर्शाती हैं कि समय के साथ, सुरक्षा बलों ने बिहार में ज़मीन पर माओवादी विद्रोहियों पर पूर्ण प्रभुत्व स्थापित कर लिया है. इसके अलावा, 2023 में 33 गिरफ्तारियों के अलावा 2024 में कम से कम 20 माओवादियों को गिरफ्तार किया गया.

2022 में कम से कम 52 माओवादियों को गिरफ्तार किया गया, 2021 में 45, 2020 में 34 और 2019 में 50 माओवादियों को गिरफ्तार किया गया. इस बीच, बढ़ते एसएफ दबाव के परिणामस्वरूप 2023 में छह के अलावा 2024 में कम से कम एक माओवादी ने आत्मसमर्पण किया. 2022 में कम से कम तीन माओवादियों ने आत्मसमर्पण किया, 2021 में एक, 2020 में चार और 2019 में सात माओवादियों ने आत्मसमर्पण किया.

अभी मंज़िल दूर है

नक्सलवाद से लड़ाई में बिहार ने बड़ी कामयाबी हासिल की है, इसमें कोई शक नहीं. लेकिन अगर सामाजिक अन्याय, गरीबी, बेरोजगारी और बुनियादी सुविधाओं की कमी को गंभीरता से नहीं सुलझाया गया, तो यह 'शांति' अस्थायी हो सकती है. विकास का मतलब केवल सड़कों और पुलों का निर्माण नहीं, बल्कि आम जनता के जीवन में वास्तविक सुधार है.

अगर सरकारें और समाज मिलकर इस दिशा में ईमानदारी से काम करें, तभी नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के लोग शांति का असली स्वाद चख पाएंगेवरना यह सारी उपलब्धि सिर्फ कागजों और बयानों तक सीमित रह जाएगी.