"सिलाई मशीन तो मिली, काम नहीं" — महिला स्वरोज़गार योजना झारखंड की पोल खोलती रिपोर्ट

झारखंड में महिलाओं को स्वरोज़गार योजनाओं के तहत सिलाई मशीनें तो दी गईं, पर बिना प्रशिक्षण या मार्गदर्शन के. इस रिपोर्ट में पढ़ें योजना की असलियत, आंकड़े और समाधान.

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आमिर अब्बास
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झारखंड के बोकारो जिले के चास प्रखंड में एक छोटा सा गांव है — बालीडीह. यहां की 32 वर्षीय सविता देवी अपने घर के कोने में रखी एक धूल भरी सिलाई मशीन की ओर इशारा करते हुए कहती हैं, "सरकार ने मशीन दी थी, कहा था रोज़गार मिलेगा, लेकिन एक साल हो गया किसी ने वापस नहीं पूछा. न काम आया, न ग्राहक."

बालीडीह की यह कहानी अकेली नहीं है. झारखंड के सैकड़ों गांवों में सिलाई मशीनें दी गईं, महिला समूहों को जोड़ने के दावे किए गए, लेकिन जमीनी सच्चाई यही है कि इन मशीनों ने काम की जगह कोना पकड़ लिया है.

स्वरोज़गार योजना की सच्चाई

झारखंड सरकार ने 2018 में मुख्यमंत्री महिला उद्यमिता प्रोत्साहन योजना के तहत राज्यभर में हज़ारों महिलाओं को स्वरोज़गार के लिए सिलाई मशीनें, प्रशिक्षण और वित्तीय सहायता देने की घोषणा की थी. योजना के तहत यह दावा किया गया कि हर पंचायत में महिला समूह बनाए जाएंगे और उन्हें स्थानीय बाजार से जोड़ा जाएगा.

हालांकि ग्रामीण महिलाओं से बात करने पर यह स्पष्ट होता है कि:

  • प्रशिक्षण अधूरा और औपचारिक था

  • मशीनें आने के बाद कोई फॉलो-अप नहीं हुआ

  • न कोई बाज़ार संपर्क था, न उत्पाद की मांग को लेकर जानकारी

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गांव की ज़मीनी हकीकत

गिरीडीह जिले के राजधनवार गांव की रीना कुमारी कहती हैं, "हमें सिखाया गया ब्लाउज और सलवार सिलना, लेकिन हमारे यहां पहले से ही दो दर्जी की दुकानें हैं. महिलाएं वैसे भी बाहर कम आती हैं. फिर हम कैसे ग्राहक ढूंढें?"

लोहरदगा की सरोजनी देवी बताती हैं कि उन्हें मशीन तो मिली, लेकिन सूती कपड़ा सिलने लायक भी धागा सरकार की तरफ से नहीं दिया गया. "मशीन से क्या होता है, अगर काम ही नहीं है?"

देवघर की शकुंतला मुर्मू को भी 2021 में एक NGO के माध्यम से सिलाई मशीन दी गई थी. उन्हें 15 दिन का प्रशिक्षण मिला, लेकिन न तो उसके बाद कोई संपर्क किया गया, न कोई समूह बना. "मैंने खुद से काम शुरू करने की कोशिश की, लेकिन कपड़ा खरीदने के पैसे नहीं थे. मेरे पति खेत में मजदूरी करते हैं."

डेटा से मिलती है पुष्टि

ग्रामीण विकास विभाग, झारखंड (2023):

  • राज्य में 1.5 लाख+ महिलाओं को जोड़ा गया योजनाओं से

  • मात्र 17% महिलाएं सक्रिय रूप से काम कर रहीं

  • 60% मशीनें उपयोग में नहीं हैं या खराब हैं

  • सिर्फ 9% को मार्केटिंग सपोर्ट मिला

सिस्टम की खामियां और डिजिटल डिवाइड

इन योजनाओं में सबसे बड़ी बाधा रही है — डिजिटल शिक्षा की कमी. कई गांवों में महिलाएं मोबाइल या इंटरनेट के प्रयोग से अनजान हैं. जबकि सरकार ने रजिस्ट्रेशन और अपडेट के लिए पोर्टल आधारित प्रक्रिया अपनाई.

रांची के मांडर प्रखंड की निर्मला देवी बताती हैं, "हमें बताया गया कि सब पोर्टल पर होगा. लेकिन न तो हमें चलाना आता है, न ही किसी ने सिखाया."

बाज़ार से न जोड़ पाना सबसे बड़ी चूक

योजनाओं की असफलता की सबसे बड़ी वजह यह रही कि सरकार ने सिर्फ मशीन और प्रशिक्षण देने तक सीमित रहकर महिलाओं को बाजार से नहीं जोड़ा.

धनबाद की NGO कार्यकर्ता सुमन एक्का कहती हैं, "अगर इन महिलाओं को स्थानीय होटलों, स्कूलों या दुकानों से कपड़ों की सिलाई के ऑर्डर मिलते, या ऑनलाइन सेल की ट्रेनिंग दी जाती, तो आज इनकी जिंदगी बदल सकती थी."

बेहतर उदाहरण: जब जुड़ाव होता है

पाकुड़ जिला (2022): एक महिला समूह ने स्कूल यूनिफॉर्म सिलाई का ठेका लिया और खुद पंचायत से बात कर मार्केट बनाया.

दुमका: सखी सुई धागा समिति — सोशल मीडिया के ज़रिए डिज़ाइनर कुर्ते बेचने लगी और हर महीने 20 ऑर्डर तक पाने लगी.

कई गांवों में महिलाओं का बाहर निकलना, बाजार में बैठना या पुरुष ग्राहकों से संवाद करना आज भी असहज माना जाता है. इससे वे आत्मनिर्भर बनने की दिशा में आगे नहीं बढ़ पातीं.

स्वरोज़गार के विकल्प: केवल सिलाई ही क्यों?

गुमला की 28 वर्षीय नीलम कुमारी कहती हैं, "हम चाहती हैं कि ब्यूटी पार्लर, कंप्यूटर या पैकेजिंग का भी प्रशिक्षण मिले. सबको कपड़े सिलना नहीं आता, न सबको पसंद है."

रांची की आरती देवी बताती हैं, "मशीन मिली, लेकिन अगर मुझे मोमबत्ती या साबुन बनाने में रुचि है तो मैं क्या करूं? योजनाएं एक ही फॉर्मेट में क्यों चलती हैं?"

महिला मंडलों की निष्क्रियता

चतरा की रेखा देवी बताती हैं, "हमारा समूह बना तो था, लेकिन मीटिंग महीनों से नहीं हुई. न कोई योजना की जानकारी आती है, न हमें बुलाया जाता है."

NABARD की 2022 की रिपोर्ट में पाया गया कि झारखंड के लगभग 38% स्वयं सहायता समूह 12 महीने से अधिक समय से निष्क्रिय थे या केवल नाममात्र की गतिविधियों में लगे थे.

रांची की जिला उद्योग केंद्र (DIC) की एक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, "हमने कई बार महिला समूहों की सूची मांगी लेकिन पंचायत से उत्तर नहीं आता. फाइलें महीनों अटकी रहती हैं."

असफल योजनाओं के पीछे राजनीतिक कारण?

धर्मवीर उरांव कहते हैं, "चुनाव के समय योजनाओं की घोषणाएं जोर-शोर से होती हैं, लेकिन बाद में कोई मॉनिटरिंग नहीं होती. कई बार मशीनें भी सिर्फ उन्हीं को मिलती हैं जिनका राजनीतिक संपर्क होता है."

आरटीआई कार्यकर्ता विनोद कुमार: "25 मशीनों में से 10 महिलाओं ने मशीन कभी देखी ही नहीं थी. फाइलों में वितरण हो गया था."

क्या कहती हैं महिलाएं?

संवाद: महिलाएं बोलती हैं

  • "मशीन आई लेकिन कोई ऑर्डर नहीं मिला." — मंजू देवी, गोड्डा

  • "हमने तीन महीने इंतज़ार किया, प्रशिक्षण मिला ही नहीं." — लक्ष्मी देवी, हजारीबाग

  • "बैंक खाता है लेकिन ऋण नहीं मिलता, कागज़ों का झंझट है." — रूपा कुमारी, गिरिडीह

लोकल इनोवेशन और NGO की भूमिका

'महिला साथी संस्था' ने खूंटी जिले में 30 महिलाओं को 'टैलर-कम-ऑनलाइन रिटेलर' के तौर पर प्रशिक्षित किया. उन्हें Flipkart, Meesho और Amazon के seller portals पर सूचीबद्ध किया गया. संस्था की निदेशक मधु तिर्की बताती हैं, "महिलाएं अब व्हाट्सएप से फोटो भेजकर ऑर्डर लेती हैं. हर महीने 5-10 हज़ार की कमाई करने लगी हैं."

सुझाव: योजनाओं को असरदार बनाने के लिए

  • प्रत्येक योजना के साथ market linkage officer अनिवार्य रूप से नियुक्त हों

  • केवल वस्तु वितरण नहीं, बाजार की गारंटी और backward-forward linkage

  • लाभार्थियों की सार्वजनिक सूची जारी हो ताकि पारदर्शिता बनी रहे

  • डिजिटल लर्निंग मोबाइल वैन/सेशन हर ब्लॉक में हों

  • पंचायत स्तर पर सामुदायिक उत्पादन केंद्र स्थापित किए जाएं

  • NGO और निजी कंपनियों के CSR को योजनाओं में साझेदार बनाया जाए

महिला सशक्तिकरण केवल योजनाएं शुरू करने से नहीं होगा, बल्कि उनकी निगरानी, असर और फीडबैक के साथ दोबारा ढालने से होगा. सवाल सिर्फ सिलाई मशीन का नहीं, एक पूरी पीढ़ी के सपनों का है — जो एक कोने में धूल खा रही मशीन के साथ रुक न जाए, बल्कि बाजार, आत्मनिर्भरता और पहचान की राह पर आगे बढ़े.