“घर में सिर्फ बूढ़े और औरतें हैं” — झारखंड से हो रहे पुरुषों के पलायन की कहानी

झारखंड के गांवों से हो रहे सामूहिक पलायन की ग्राउंड रिपोर्ट. औरतें, बुज़ुर्ग और बच्चे गांवों में अकेले छूटे हैं — जानिए असली कारण और असर. जानिये एक्सक्लूसिव रिपोर्ट में.

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आमिर अब्बास
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बेगूसराय के गांव में कभी नहीं पहुंची थी बिजली, ख़बर का हुआ असर

गुमला जिले के बिशुनपुर प्रखंड का छोटा गांव हातूझरिया. सुबह 6:45 बजे की हल्की धुंध. मिट्टी के घर के दरवाज़े पर 62 वर्षीय कमला देवी बैठी हैं. आंखें लगातार कच्ची सड़क की ओर. उनके बेटे सुरेश महतो ने पिछली बार फोन पर कहा था, "मां, दशहरा में आऊंगा." अब होली भी निकल गई है.

“कभी दशहरा, कभी छठ, अब बोला था होली में आएगा. अब तो फ़ोन भी कम करने लगा है,” — कमला देवी

सुरेश दिल्ली के एक होटल में कुक है. गांव में इंटर तक पढ़ाई हुई थी. फिर नौकरी नहीं मिली. शहर चला गया — जैसे गांव के बाकी लड़के.

खाली गांव, अधूरे घर: आंकड़ों की चुप्पी

NSSO और IIPS (2017–18) की रिपोर्ट के अनुसार झारखंड से हर साल 7.8–9.5 लाख लोग पलायन करते हैं. इनमें से 68% युवा पुरुष होते हैं, जिनकी उम्र 18–35 वर्ष होती है.
CMIE के अनुसार मई 2024 तक राज्य की बेरोजगारी दर 14.7% थी, जबकि देश का औसत 8% के करीब.

“झारखंड के हर 10 गांवों में से 6 ऐसे हैं जहां घर के पुरुष शहरों में काम करते हैं. महिला और बुज़ुर्गों का अकेलापन बढ़ रहा है.” — अंशु प्रकाश, क्षेत्रीय शोधकर्ता, IIPS

राज्य के कुल 260 ब्लॉकों में से 195 ब्लॉक पलायन-प्रवण हैं.

महिलाओं की दुनिया: खेत से चूल्हे तक अकेले

सिमडेगा की बुधनी मुंडा, जिनके पति बेंगलुरु में हैं, बताती हैं —

“खेत में हल चलाना भी सीख लिया है. सरकारी दफ्तर में जाना, अस्पताल ले जाना, गाय-बकरी देखना, स्कूल फीस भरना — सब कर रही हूं. पर ये आदत नहीं, मजबूरी है.”

कई महिलाओं को पंचायत से राशन या विधवा पेंशन के लिए खुद ही कार्यालयों के चक्कर काटने पड़ते हैं. मगर जब दस्तखत की बात आती है, अधिकारी पूछता है — “पति कहां है?”

सामाजिक असंतुलन: सिर्फ अर्थव्यवस्था नहीं, पहचान भी

शहरों में काम करने वाले पुरुषों के लिए गांव वापसी एक “हार” मानी जाती है.
गांव में युवाओं को लगता है कि शादी, इज्जत और पहचान — सब शहर में है.

“मैं गांव में रहकर क्या करता? लोग कहते थे 'बेकार लड़का है.' अब पंजाब में काम करता हूं, तो वही लोग पूछते हैं — रिश्ता करवाएं?” — राजेश उरांव, 28 वर्ष, लोहरदगा से मोहाली

मृत शरीर लौटते हैं, लोग नहीं

मुंबई, दिल्ली, बेंगलुरु जैसे शहरों में काम करते हुए झारखंड के मजदूरों की असंगठित मौतों का कोई आधिकारिक रिकॉर्ड नहीं है.

2022–24 के बीच अखबारों और सामाजिक संगठनों की रिपोर्टिंग के अनुसार कम से कम 22 मजदूरों की मौत निर्माण स्थलों या फैक्ट्रियों में हुई.
इनमें से 14 झारखंड से थे.

“भैया की लाश आई थी बॉडी बैग में. पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट भी हमें नहीं मिली. मुआवज़ा? अभी तक नहीं.” — सविता देवी, बहन, कोडरमा

सरकारी योजनाएं — कागज़ पर योजनाएं, ज़मीन पर सन्नाटा

मनरेगा:

Ministry of Rural Development के अनुसार झारखंड में 2023–24 में:

  • 25% आवेदकों को समय पर काम नहीं मिला

  • 40% मजदूरी भुगतान में देरी हुई

अर्थात हर चौथा मज़दूर सिर्फ आवेदन भरने तक ही सीमित रह गया.

मुख्यमंत्री श्रमिक सेवा योजना:

श्रम विभाग की 2023 रिपोर्ट के अनुसार:

  • केवल 4.2% पंजीकृत प्रवासी श्रमिकों ने योजना का लाभ उठाया.

  • ज़्यादातर को पता तक नहीं था कि कोई योजना है.

“पंचायत में पूछने गए तो बोले — ‘फॉर्म ऑनलाइन भरिए’. गांव में इंटरनेट ही नहीं चलता.” — शंभू उरांव, पूर्व प्रवासी मजदूर

शिक्षा और बच्चे — पिता फोन पर, मां सब पर

महिला संगठन “महिला मंच झारखंड” की 2023 रिपोर्ट कहती है:

  • जिन घरों में पुरुष पलायन कर चुके हैं, वहाँ बच्चों की स्कूल उपस्थिति में 30% गिरावट है

  • कई बच्चे अभाव और मानसिक तनाव के कारण पढ़ाई छोड़ देते हैं

“बेटी पूछती है पापा कब आएंगे. मोबाइल पर ही बात होती है. अब वो हर मर्द को ‘पापा’ कहती है जिसे पैंट-शर्ट में देखती है.” — फूलमती देवी, साहिबगंज

मानसिक स्वास्थ्य संकट — अदृश्य पीड़ा

गांवों की महिलाएं और बुज़ुर्ग मानसिक रूप से अकेले हैं. AIIMS-Palamu द्वारा 2022 में किए गए एक अध्ययन के अनुसार:

  • झारखंड के 8 जिलों में 45% ग्रामीण महिलाएं एंग्जायटी और डिप्रेशन की लक्षणों से पीड़ित हैं

  • लेकिन 93% को कोई चिकित्सा या परामर्श नहीं मिला

“अब तो कुछ अच्छा लगता ही नहीं. एक-एक दिन जैसे साल होता है.” — बिन्दी देवी, गुमला

समाजशास्त्रियों की चेतावनी: गांव का भूगोल रहेगा, समाज नहीं

डॉ. राजीव केसरी (समाजशास्त्री, रांची विश्वविद्यालय) कहते हैं:

“जब गांव से पुरुष लगातार अनुपस्थित रहते हैं, तो वहां एक ‘पैरा-सोशल स्ट्रक्चर’ बनता है — जिसमें महिलाएं शारीरिक, भावनात्मक, आर्थिक और निर्णय की जिम्मेदारी अकेले ढोती हैं, लेकिन उन्हें सामाजिक मान्यता नहीं मिलती.”

  • आने वाली पीढ़ी के लिए गांव सिर्फ Address रह जाएगा, Identity नहीं.

  • बच्चे शहर के अनजान बाप के साथ पलेंगे, और मां को बोझ मानेंगे.

मीडिया की खामोशी: बहस का हिस्सा नहीं है पलायन

राष्ट्रीय मीडिया में पलायन की ख़बरें आपदा या मौत के वक़्त आती हैं. लेकिन गांव में रोज़ जो ख़ामोशी फैल रही है, वह कहीं दर्ज नहीं होती.

“सिर्फ चुनाव से पहले नेता आते हैं. पूछते हैं वोट डालोगी? पर कोई नहीं पूछता — अकेली कैसे रह रही हो?” — गीता देवी, 43, लोहरदगा

एक मां का इंतज़ार — जो कभी खत्म नहीं होता

कमला देवी अब तुलसी को पानी दे रही हैं. मोबाइल पर बेटे का मैसेज आया: “मां, इस बार पक्का दशहरा में आऊंगा.” वो हल्के से मुस्कुराईं. शायद उन्होंने यकीन किया. शायद नहीं. गांव के किसी घर में चूल्हा जल रहा है, किसी में सिर्फ इंतज़ार.