सफ़ाईकर्मियों का दर्द: प्रधानमंत्री के 'स्वच्छ भारत' में साल भर से तनख़्वाह नहीं

लेकिन बीते 28 महीनों में इन्हें केवल 15 महीने का ही भुगतान मिला है. बाक़ी के 13 महीने की राशि आज भी इन मज़दूरों के खाते तक नहीं पहुंची है. हर महीने 3000 रुपये का मामूली मानदेय तय है.

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नाजिश महताब
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सफ़ाईकर्मियों का दर्द: प्रधानमंत्री के 'स्वच्छ भारत' में साल भर से तनख़्वाह नहीं

बोधगया प्रखंड में बसाढ़ी पंचायत एक ग्राम पंचायत है. यहां के 27 स्वच्छता कर्मी पिछले 13 महीनों से अपने मेहनत की कमाई के लिए संघर्ष कर रहे हैं. ये वे लोग हैं जो हर दिन अलग-अलग वार्डों में घर-घर जाकर कूड़ा उठाते हैं, सफ़ाई करते हैं, ताकि गांव स्वच्छ और रहने लायक बना रहे. हर महीने 3000 रुपये का मामूली मानदेय तय है.

लेकिन बीते 28 महीनों में इन्हें केवल 15 महीने का ही भुगतान मिला है. बाक़ी के 13 महीने की राशि आज भी इन मज़दूरों के खाते तक नहीं पहुंची है.

इनकी आर्थिक हालत इतनी ख़राब हो चुकी है कि घर चलाना मुश्किल हो गया है. किसी के बच्चे स्कूल नहीं जा पा रहे, किसी के घर में दवा के पैसे नहीं हैं. महिलाएं कहती हैं कि वे गरीब परिवार से आती हैं, काम छोड़ देंगी तो बकाया मानदेय भी नहीं मिलेगा. इस उम्मीद में रोज़ काम पर जाती हैं कि शायद किसी दिन उनका मेहनताना मिल जाए.

नाम न बताने के शर्त पर स्वच्छता कर्मी ने डेमोक्रेटिक चरखा से बात करने के दौरान बताया कि "13 महीने से पैसे नहीं मिले हैं, एक तो महीने का मात्र 3000 मिलता है जिससे घर चलाना काफ़ी मुश्किल होता है वहीं दूसरे तरफ़ ये हाल है. दर दर के ठोकर खाने को मजबूर हैं हम. न अपने बच्चों को पढ़ा पा रहें हैं न ही घर में खाना बन पा रहा है. ये साफ़ ज़ाहिर करता है की सरकार की क्या मानसिकता है. हम सरकार से मांग करते हैं कि सरकार जल्द से जल्द हमें हमारे पैसे दिलाए वरना एक बड़ा आंदोलन कोई नहीं रोक सकता है."

जब मेहनत का मोल ही न मिले!

बिहार में हर साल लगभग 2.9 करोड़ लोग काम की तलाश में दूसरे राज्यों में पलायन कर रहे हैं. यह राज्य की 13 करोड़ आबादी का लगभग 20 प्रतिशत हिस्सा है. सोचिए, इसमें कितना बड़ा वर्ग वो होगा जो रोज़ कमाने और खाने वाले दिहाड़ी मजदूर हैं, जिनकी मेहनत पर ही हमारी सड़कें, गलियां और शहर टिका है.

कर्मचारियों ने कई बार प्रखंड कार्यालय जाकर बीडीओ से शिकायत की, लेकिन कोई समाधान नहीं निकला. आख़िरकार सभी कर्मचारी ज़िलाधिकारी डॉ. त्यागराजन एसएम से मिले. डीएम ने दो-चार दिन में भुगतान का भरोसा दिया, लेकिन 20 दिन बीत जाने के बाद भी किसी के खाते में पैसा नहीं आया. यह सिर्फ़ पैसे की बात नहीं, यह भरोसे के टूटने की कहानी है.

स्वच्छता कर्मी आगे बताते हैं कि "हमने एक बार नहीं कई बार शिकायत दर्ज की है लेकिन हर बार की तरह हमें हमेशा आश्वासन पर आश्वासन ही मिलता है."

इन कर्मचारियों का दर्द यह भी है कि अन्य विभागों में वेतन तो बढ़ रहा है, लेकिन इन्हें ना तो समय पर वेतन मिलता है, और ना ही किसी तरह की बढ़ोतरी. मानो प्रशासन को उनकी ज़िंदगी की कोई परवाह ही नहीं है.

सरकार ने न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 के तहत मजदूरों के लिए वेतन तय कर रखे हैं. अकुशल मजदूर को 410 रुपये, अर्ध-कुशल को 426 रुपये, कुशल को 519 रुपये और अत्यधिक कुशल मजदूर को 634 रुपये प्रतिदिन मिलने चाहिए.

लेकिन असलियत कुछ और ही है. ज़मीनी स्तर पर आज भी अधिकतर अकुशल मजदूरों को सिर्फ 300 से 350 रुपये मिलते हैं. कहीं-कहीं तो उनसे सात दिन काम करवा कर सिर्फ पांच दिन का ही भुगतान किया जाता है. कानून सिर्फ कागजों में है, ज़मीन पर नहीं.

लेबर कार्ड योजना: राहत की बात, लेकिन ज़मीनी सच्चाई अलग

बिहार सरकार ने मज़दूरों के लिए कई योजनाएं शुरू की हैं, जिनमें से एक है ‘बिहार लेबर कार्ड योजना’. यह योजना श्रमिकों को सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा देने के लिए बनाई गई थी. इसके तहत गर्भवती महिलाओं को मातृत्व लाभ, बच्चों की पढ़ाई के लिए 25,000 रुपये की आर्थिक सहायता, बेटियों की शादी के लिए 50,000 रुपये, साइकिल खरीदने के लिए 3,500 रुपये, औज़ार खरीदने के लिए 15,000 रुपये और मकान मरम्मत के लिए 20,000 रुपये तक की सहायता देने का प्रावधान है.

लेकिन इन योजनाओं का लाभ उन्हें तभी मिलेगा जब उनका पंजीकरण हो और कागज़ी प्रक्रिया पूरी की गई हो. हकीकत यह है कि अधिकतर श्रमिकों को इन योजनाओं की जानकारी ही नहीं है. और जो जानते भी हैं, वे कार्यालयों के चक्कर लगाते-लगाते थक चुके हैं.

उन्हीं स्वच्छता कर्मियों में से एक थे बिट्टू (बदला हुआ नाम). जब हमने उनसे बात की और पूछा कि क्या उनके पास लेबर कार्ड है तो उन्होंने कुछ इस तरह जवाब दिया. उन्होंने बताया कि "लेबर कार्ड जैसा भी कुछ होता है क्या? पिछले 13 महीने से पैसे नहीं मिले हैं और आप कहते हैं लेबर कार्ड. घर पर खाना नहीं बन रहा, परिवार के लिए दावा नहीं ला पा रहा और बच्चों को शिक्षा तक नहीं दे पा रहा और मैं ये सरकार से उम्मीद कैसे करूं की सरकार हमारा सहायता करेगी. पहले तो 13 महीने से बाकी जो पैसा है उसे सरकार हमें दिलाए."

स्वास्थ्य, सुरक्षा और सम्मान—तीनों का अभाव

लेबर कार्ड योजना के तहत स्वास्थ्य बीमा, वृद्धावस्था पेंशन और दाह संस्कार सहायता जैसी सुविधाएं हैं, लेकिन जिन स्वच्छता कर्मियों को 13 महीने से मानदेय नहीं मिला, उनके लिए यह सब एक सपना जैसा है. ना स्वास्थ्य सुविधा, ना आर्थिक सुरक्षा, ना ही सामाजिक सम्मान.

ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या ये योजनाएं सिर्फ कागज़ों पर अच्छी लगती हैं? क्या एक स्वच्छता कर्मी को सिर्फ़ इसलिए अनदेखा कर दिया जाता है क्योंकि वह सबसे नीचे खड़ा है?

इस विषय पर हमने वहां के बीडीओ से बात करने की कोशिश की लेकिन हमारी उनसे बात नहीं हो पाई पर हम लगातार कोशिश करेंगे ताकि इस समस्या का जल्द से जल्द निदान हो सके.

कब सुनेगा सिस्टम इन आवाज़ों को?

बसाढ़ी पंचायत के इन 27 स्वच्छता कर्मियों की कहानी बिहार के लाखों मजदूरों की कहानी है. जिन्हें हर दिन मेहनत तो करनी होती है, लेकिन बदले में उन्हें सम्मान नहीं मिलता. काम करना ज़रूरी है क्योंकि पेट की आग बुझानी होती है, लेकिन मन में यह सवाल भी उठता है कि कब मिलेगा मेहनत का हक?

प्रशासनिक लापरवाही और व्यवस्था की बेरुखी ने इन लोगों को उस मोड़ पर ला खड़ा किया है जहां उम्मीदें धीरे-धीरे मर रही हैं. जब तक समाज और सिस्टम मिलकर मजदूरों की समस्याओं को गंभीरता से नहीं लेंगे, तब तक कोई भी योजना केवल एक वादा ही बनी रहेगी.

स्वच्छता कर्मी हमारे समाज के वो स्तंभ हैं जो दिन-रात हमारी गलियों को साफ़ रखते हैं. लेकिन क्या हम उनके जीवन की गंदगी साफ़ करने के लिए तैयार हैं?