पीरियड्स स्वच्छता: बिहार सरकार की योजनाओं पर एक भावनात्मक पड़ताल

सरकार ने दावा किया कि जन औषधि केंद्रों पर 'सुविधा' नामक ऑक्सो-बायोडिग्रेडेबल सैनिटरी नैपकिन केवल ₹1 में उपलब्ध होंगे. पर बिहार के गांवों में ये 'सुविधा' एक कल्पना बनकर रह गई.

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नाजिश महताब
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पीरियड्स स्वच्छता: बिहार सरकार की योजनाओं पर एक भावनात्मक पड़ताल

"हम पढ़ना चाहती हैं, आगे बढ़ना चाहती हैं, लेकिन जब शरीर साथ नहीं देता और सरकार चुप रहती है, तो हम क्या करें?"यह सवाल है बिहार के एक छोटे से गांव की किशोरी का, जो हर महीने पीरियड्स के दौरान स्कूल जाना छोड़ देती है, सिर्फ़ इसलिए क्योंकि उसके पास एक साफ़ नैपकिन तक नहीं होता.

2018 में बिहार सरकार ने 'मुख्यमंत्री कन्या उत्थान योजना' की शुरुआत बड़े वादों के साथ की थी. इस योजना के तहत लड़कियों के बैंक खातों में सालाना 300 रुपए भेजने की घोषणा हुई ताकि वो सैनिटरी पैड्स खरीद सकें. लेकिन क्या इन पैसों से उनकी समस्याएं सुलझीं? सच्चाई यह है कि अधिकांश छात्राओं को ये पैसे कभी मिले ही नहीं.

योजना है, लेकिन ज़मीनी हकीकत शर्मनाक है

सरकार ने दावा किया कि जन औषधि केंद्रों पर 'सुविधा' नामक ऑक्सो-बायोडिग्रेडेबल सैनिटरी नैपकिन केवल ₹1 में उपलब्ध होंगे. देश में 9,000 जन औषधि केंद्रों की बात हुई, पर बिहार के गांवों में ये 'सुविधा' एक कल्पना बनकर रह गई. गांव की लड़कियों को ना नैपकिन मिलते हैं, ना पैसे, ना ही कोई जागरूकता अभियान.

पंचानपुर की रहने वाली एक छात्रा से जब हमने बात की तो उन्होंने बताया कि "पहली चीज़ तो ये है कि यहां के लोगों में जागरूकता की बहुत कमी है. वहीं दूसरी तरफ़ जब सरकार ने सुविधा की सुविधा दी है तो वो हम तक क्यों नहीं पहुंच पाती है. मुझे ₹1 में सैनिटरी पैड नहीं मिलता है. हमारे घर की स्थिति उतनी अच्छी नहीं है की हर महीने 100 रुपए उस पर ख़र्च किए जाए ऐसे में अगर मुझे सुविधा मिलती तो जीवन आसान होता."

बिहार: पीरियड्स स्वच्छता में सबसे पिछड़ा राज्य

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5) की रिपोर्ट बताती है कि 15-24 वर्ष की आयु की 49.6% महिलाएं अभी भी कपड़े का उपयोग करती हैं. इनमें सबसे बुरा हाल बिहार का है, जहां केवल 59% महिलाएं ही पीरियड्स के दौरान स्वच्छ तरीकों का उपयोग करती हैं.

NFHS-5 के आंकड़े

यानी 41% लड़कियां और महिलाएं अब भी अस्वच्छ तरीकों का प्रयोग करने को मजबूर हैं. ये ना सिर्फ़ उनके स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है, बल्कि उनके आत्मसम्मान और शिक्षा पर भी सीधा असर डालता है.

NFHS-4 के मुताबिक, बिहार में स्वच्छ पीरियड्स उपायों का उपयोग मात्र 31% था, जबकि राष्ट्रीय औसत 57.6% था. हालांकि NFHS-5 में सुधार तो हुआ, लेकिन ग्रामीण इलाकों में स्थिति अब भी भयावह है.

यहां केवल 27.3% लड़कियां ही स्वच्छ उपायों का उपयोग करती हैं, जबकि शहरी क्षेत्रों में यह संख्या 55.6% है. यह अंतर खुद इस बात का प्रमाण है कि योजनाएं कागज़ पर हैं, ज़मीन पर नहीं.

13% लड़कियों को पीरियड्स की जानकारी नहीं होती: यूनिसेफ

भारत में 13% लड़कियों को पीरियड्स आने से पहले इसके बारे में कोई जानकारी नहीं होती. सोचिए, एक किशोरी को जब पहली बार पीरियड्स होता है, वह घबरा जाती है, शर्मिंदा होती है, और उसे समझ नहीं आता कि क्या हो रहा है. जब समाज चुप रहता है और सरकार केवल घोषणाएं करती है, तो यह एक 'न्याय की विफलता' है.

खुशी (बदला हुआ नाम) बताती हैं कि "जब मुझे पहली बार पीरियड्स आया तो मैं डर गई के ये मेरे साथ क्या हुआ है, तब मैंने ये किसी को नहीं बताया और मैं रोने लगी और अजीब अजीब ख़्याल आने लगे की मुझे कोई बीमारी तो नहीं है. जब दर्द ज़्यादा हुआ तब मैंने अपनी मां को बताया."

इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 23% लड़कियां पीरियड्स शुरू होने के बाद स्कूल छोड़ देती हैं. करीब 20% लड़कियां हर साल इसी कारण से स्कूल से अनुपस्थित रहती हैं. क्या यह आंकड़ा सरकार को झकझोरने के लिए काफ़ी नहीं?

पटना की एक छात्रा जिनका नाम काजल है वो बताती हैं कि "अगर मुझे हर महीने नैपकिन मिल जाएं, तो मैं स्कूल नहीं छोड़ूंगी." ये शब्द सिर्फ़ पीरियड्स से जुड़ी समस्या को नहीं, बल्कि एक बड़े सिस्टम की विफ़लता को दर्शाते हैं. क्या एक राज्य जहां लड़कियां अभी भी बुनियादी स्वच्छता सुविधाओं से वंचित हैं, वहां विकास की बात करना बेमानी नहीं?

काजल आगे बताती हैं कि "मेरे परिवार का गुज़ारा बड़ी मुश्किल से होता है. पापा मज़दूरी करते हैं, एक दिन कमाते हैं तो एक दिन खाते हैं ऐसे में सरकार ने वादा किया था 300 रुपए अकाउंट में आयेंगे परंतु ऐसा हुआ नहीं जिसके कारण आज भी मुझे कपड़े का इस्तेमाल करना पड़ता है."

पीरियड्स केवल जैविक प्रक्रिया नहीं है, यह सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक बाधा बन चुकी है. जब सरकारें सैनिटरी नैपकिन जैसी बुनियादी ज़रूरतों को भी पूरा नहीं कर पातीं, तो लड़कियों के सपनों की हत्या होती है.

34.92 लाख किशोरियों तक पहुंचे नैपकिन: लेकिन कहां हैं ये किशोरियां?

सरकार के अनुसार 2021-22 में 34.92 लाख किशोरियों को हर महीने सैनिटरी पैड दिए गए. लेकिन क्या इन किशोरियों के चेहरे आप या हम देख पाए हैं? ज़मीनी हकीकत यह है कि अधिकांश किशोरियां अब भी पन्नी, अखबार या कपड़े के टुकड़े का उपयोग करती हैं. 

सरकार 'मिशन शक्ति' और 'बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ' जैसे अभियानों का ढिंढोरा पीटती है, पर हकीकत यह है कि इन अभियानों के तहत जागरूकता सिर्फ़ शहरों तक सीमित रह गई है. गांव की सड़कों पर ना तो पोस्टर हैं, ना अभियान, ना ही कोई महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ता जो किशोरियों से बात करे. 

क्या सरकारों को शर्म नहीं आती?

सवाल यह नहीं है कि योजनाएं बनीं या नहीं, सवाल यह है कि क्या उनका फायदा जरूरतमंदों तक पहुंचा? जब 300 रुपये तक नहीं पहुंचते, जब ₹1 का नैपकिन गांव में नहीं मिलता, जब आंकड़े चीख-चीख कर कह रहे हों कि बिहार सबसे पीछे है तो क्या यह सरकार की नाकामी नहीं है?

सरकारों को अब सिर्फ़ योजनाएं नहीं, बल्कि ईमानदारी से क्रियान्वयन चाहिए. जन औषधि केंद्रों की संख्या बढ़ानी चाहिए, स्कूलों में नैपकिन डिस्पेंसर अनिवार्य होने चाहिए, और स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को हर गांव तक पहुंचना चाहिए.

क्योंकि जब एक लड़की पीरियड्स के दौरान स्कूल नहीं जा पाती, तो देश का भविष्य स्कूल से अनुपस्थित होता है.