जल-जीवन-हरियाली योजना की हो रही है ख़ूब तारीफ़, लेकिन सच्चाई क्या है?

जल-जीवन-हरियाली के वेबसाइट के अनुसार पटना में 1010 तालाब कागज़ों पर मौजूद हैं. लेकिन आज हालात यह है कि इनमें से ज़्यादातर तालाब गायब हो चुके हैं.

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आमिर अब्बास
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सरकार के कार्य को समझना किसी पहेली को सुलझाने से कम नहीं है. पहले सरकार ख़ुद बेमतलब के विकास के नाम पर पेड़ कटवायेगी. पेड़ बचाने के आंदोलन को तोड़ने का काम करेगी. तालाब-झील को सुखाने का काम करेगी. जो माफ़िया इन तालाबों को सुखा कर उस पर कब्ज़ा कर रहे हैं उस पर भी कोई कार्यवाई नहीं होगी. लेकिन जब संकट गहरा हो जाएगा, तब इसके लिए मंत्रालय को काम सौंपे जाएंगे. लक्ष्य निर्धारित किये जाएंगे, जो कभी भी पूरे नहीं हो पाएंगे. कुछ लक्ष्य की प्राप्ति के बाद सरकार उस पर मीडिया को बुला कर हो-हल्ला भी करवाएगी कि उन्होंने पर्यावरण के लिए कितना कुछ किया है.

लेकिन इन हो-हल्ला के बीच एक सच्चाई अक्सर छुप जाती है कि इन्हीं सरकारों ने पर्यावरण का हर मुमकिन तरीके से दोहन किया है. बिहार सरकार ने बढ़ते पर्यावरण के संकट को देखते हुए जल-जीवन-हरियाली योजना की शुरुआत की. इसका मकसद पौधरोपण करना, तालाब-पोखर-कुंओं का जीर्णोद्धार सहित कई कार्य करने थें. इसको लेकर लक्ष्य भी रखे गए. बीते दिन मंगलवार (7 जनवरी, 2025) को जल-जीवन-हरियाली दिवस भी मनाया गया. ग्रामीण विकास मंत्री श्रवण कुमार ने इस योजना की सफ़लता से अवगत भी कराया. साथ में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को पर्यावरण के मामलों में सजग भी बताया.

इन सबके बीच में शायद मीडिया और जनता भी ये भूल गयी कि सरकार ने अंधी विकास की दौड़ में पर्यावरण को कितना बर्बाद किया है. जल-जीवन-हरियाली के वेबसाइट के अनुसार पटना में 1010 तालाब कागज़ों पर मौजूद हैं. लेकिन आज हालात यह है कि इनमें से ज़्यादातर तालाब गायब हो चुके हैं. इसके बाद शहरीकरण का दौर हुआ और सारे तालाब एक-एक कर के गायब होने लगे और उन तालाबों की जगह पर इमारते खड़ी हो गईं. 

पेड़ों के साथ भी राज्य सरकार ने यही रूखा रवैया अपनाया. सरकार ने बिहार म्यूज़ियम के लिए कई पेड़ कटवाए. बेली रोड के इलाके में जहां 15 साल पहले तक सड़क के दोनों ओर पेड़ हुआ करते थें, आज वहां सिर्फ़ ओवरब्रिज, सड़क और मकान हैं. साल 2024 में रक्षाबंधन के दिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पेड़ को राखी बांध कर पर्यावरण बचाने का संकल्प लिया था.

तालाब को भरकर बनया गया पटना एम्स

फुलवारीशरीफ में जिस जगह पर एम्स का निर्माण किया गया है उस जगह पर कभी तालाब हुआ करता था. करीब 35 एकड़ में फैले इस तालाब को भरकर एम्स का निर्माण कर दिया गया. तारामंडल, नेताजी सुभाष पार्क, इको पार्क, दरोगा प्रसाद राय रोड में विधायक आवास, खाद्य निगम कार्यालय, बिस्कोमान कॉलोनी, रेलवे सेंट्रल अस्पताल, संदलपुर सहित कई और कॉलोनियां जो बनी हैं, वह सब भी तालाबों को ही भर कर बसाई गई हैं. अब जो कुछ तालाब बचे हैं, वह संकट में हैं. कच्ची तालाब, सचिवालय तालाब, मानिकचंद तालाब और अदालतगंज तालाब तो आज की तारीख में हैं, लेकिन विलुप्त होने की कगार पर हैं. 

 

एक समय में अशोक राजपथ और कंकड़बाग पुराना बाइपास के बीच सैदपुर और संदलपुर गांव के बीच करीब 74 एकड़ का जलाशय हुआ करता था. सरकारी दस्तावेजों में इसका ज़िक्र गोनसागर तालाब के नाम से मिलता है. इस तालाब में सिंघाड़ा (पानी फल) की खेती के साथ ही मछली पालन होता था. शहरी विकास में इस तालाब के आसपास लोगों ने पहले झोपड़ी बनाई फिर कॉलोनी बस गई. 

IIT खड़गपुर से पढ़े और लगभग 50 सालों से जलाशयों पर अध्ययन करने वाले सीनियर रिसर्चर दिनेश मिश्र बताते हैं, "वाटर लेवल को मेंटेन करने में तालाब का अहम रोल होता है. आसपास के कुएं में इनकी ही वजह से वाटर लेवल मेंटेन रहता है. तालाब ही होते थे जो हमारे सारे वाटर सोर्स को रिचार्ज करते थे. यह एक बार खत्म हो गए तो दुबारा मिलने से रहे. तरक्की करना कोई बुरी बात नहीं है लेकिन तालाब को बचाकर रखा जाता तो वह ज़्यादा बेहतर होता."

तालाबों का शहर दरभंगा में अब पानी की कमी

ऐतिहासिक तौर पर दरभंगा तालाबों, नदियों और नालों का शहर रहा है. पश्चिम में बागमती और पूर्व और उत्तर में कमला नदी के बीच में बसे दरभंगा शहर में पुराने समय में 15 से ज़्यादा सहायक नदियां बहा करती थीं. लेकिन बाढ़ की आशंका के कारण इन नदियों को दरभंगा से पहले ही रोक दिया गया है. कमला और बागमती की नदियों के पानी को भी बाढ़ की आशंका के चलते दरभंगा से पहले बांध के जरिए रोक दिया गया जिसके चलते दरभंगा के दूसरे चौर, आहर, पाइन जैसे परंपरागत स्रोत भी सूख गए हैं जिसका असर भूजल स्तर पर पड़ा है.

दरभंगा शहर पिछले कुछ सालों से गर्मियों के मौसम में पानी की समस्या झेल रहा है. इसकी सबसे बड़ी वजह इलाके में भूजल के स्तर का अचानक से गिर जाना है. गर्मी के मौसम के मध्य में दरभंगा के शहरी इलाकों के करीब 75 फ़ीसदी घरों में चापाकल पानी देना बंद कर देता है. पानी की किल्लत का सामना कर रहे दरभंगा शहर में कभी 300 से ज्यादा तालाब हुआ करते थे. 1964 में प्रकाशित दरभंगा गजेटियर के मुताबिक दरभंगा शहर में कभी 350 से 400 से करीब तालाब मौजूद थे. लेकिन अब शहर में 100 से भी कम तालाब बचे हैं.

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एमपी सिन्हा नदियों और उससे जुड़ी पारंपरिक जल स्रोतों के पुनरुद्धार के मुद्दे पर काम करते हैं. एमपी सिन्हा कहते हैं "सालों से नीति निर्माता ग्रामीण क्षेत्रों में मौजूद पानी के पारंपरिक स्रोतों-कुओं और तालाबों को अनदेखा करते आए हैं. यही अनदेखी आगे चलकर इनके अतिक्रमण में बदलने लगी. तालाबों के ज़रिए ज़मीन में पानी का रिसाव हमारे तेजी से खत्म हो रहे भूजल भंडार को फिर से भरने का एकमात्र तरीका है. लेकिन सरकारी प्रयास तालाबों के पुनरुद्धार के लिए नाकाफ़ी है. इसके लिए आमलोगों को चिंतन करना होगा क्योंकि पानी की समस्या जो अभी कुछ महीनों के लिए रहती है भविष्य में और विकराल हो सकती है."

पेड़ ट्रांसप्लांट की योजना भी फ़ेल, कई पेड़ सूखे

बिहार सरकार ने राजधानी में हरियाली को बनाये रखने के उद्देश्य से किसी भी डेवलपमेंट प्रोजेक्ट की ज़द में आने वाले पेड़ों को ट्रांसप्लांट किये जाने का आदेश दिया था. ट्रांसप्लांट या प्रत्यारोपण का अर्थ है कि किसी भी पेड़ को काटने के बजाय उसे जड़ समेत मशीनों द्वारा उखाड़ कर किसी दूसरी जगह लगाया जाए.

इसी के तहत पटना एयरपोर्ट के नये टर्मिनल भवन और पार्किंग के निर्माण में बाधा बने पेड़ों को वहां से हटाकर संजय गांधी जैविक उद्यान में ट्रांसप्‍लांट किया गया था. राजधानी में रेलवे पटरी उखाड़कर आर ब्लॉक-दीघा फोर लेन सड़क बनाया गया. सड़क के बीच में डिवाइडर पर पेड़ों को ट्रांसप्लांट कर लगाया गया है. संजय गांधी जैविक उद्यान में भी कई पेड़ों को ट्रांसप्लांट कर के लगाया जा चुका है.

पेड़

भवन और सड़क निर्माण सहित अन्य विकास कार्य में बाधक बने लगभग 4000 पेड़ों को राजधानी के कई जगहों पर लगाया गया था. लेकिन आज आलम यह है कि इनमे से करीब 2500 पेड़ सूख चुके हैं. वहीं 1500 पेड़ ऐसे हैं जिनमे छोटी-छोटी टहनियां तो आयी हैं, लेकिन अगर इनका ध्यान नहीं रखा गया तो ये भी सूख जाएंगी.

इतने पेड़ों को ट्रांसप्लांट करने में 12 करोड़ खर्च हो चुके हैं. हर एक पेड़ को ट्रांसप्लांट करने में कम से कम 30 हज़ार रूपए खर्च किये गये थे. लेकिन इतनी राशि खर्च करने के बावजूद 30 साल से अधिक पुराने पेड़ को बचाया नहीं जा सका है. 

वहीं बिहटा-सरमेरा रोड के दोनों तरफ प्रत्यारोपित किये गये 200 में से करीब 150 से ज्यादा पेड़ मर चुके हैं और जो बचे भी हैं वो सूखने के कगार पर हैं. आर ब्लाक दीघा फॉर लेन बनाने के लिए पेड़ों को उखारकर डिवाइडर के बीचो बीच और सड़क के दोनों किनारे लगाया गया था. सबसे पहले पेड़ों को यहीं ट्रांसप्लांट किया गया था. लेकिन आर-ब्लॉक से बेली रोड तक लगाये गये 20 पेड़ में से 15 सूख चुके हैं.

वहीं मुख्य वन संरक्षक गोपाल सिंह का कहना है कि "वर्तमान में जो पेड़ लगाये गये हैं उनका सर्वाइवल रेट अच्छा नहीं है. सर्वाइवल रेट पेड़ की प्रजाति, उम्र, ट्रांस्प्लांट तकनीक और उसके रख-रखाव पर निर्भर करता है. ट्रांसप्लांट तकनीक को और बेहतर करने की आवश्यकता है."