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अररिया के फारबिसगंज ब्लॉक के खगड़ा गांव में, 42 वर्षीय कौशल यादव बाढ़ के समय अपने दो बच्चों को गोद में लिए दवाई की दुकान के बाहर शरण लिए बैठे थे. वो बताते हैं, “धान डूब गया, स्कूल बंद है, और शहर जाने के लिए जेब में किराया तक नहीं है.”
2023 की बाढ़ में कौशल की दो बीघा धान की खेती पूरी बर्बाद हो गई. गांव में न तो नाव पहुंची, न राहत शिविर. बस हर साल की तरह पंचायत का एक दौरा और वादे. आंखों में उदासी लेकर वो कहते हैं कि "अब गांव में रोज़गार नहीं बचा. खेत में कीचड़ है, मनरेगा बंद है. बेटा पूछता है, अब खाएंगे क्या?"
सीमांचल: जहां बाढ़ अब मौसमी नहीं, सालाना आपदा है
जलवायु और बाढ़ के ताज़ा आंकड़े
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IMD (2023) की रिपोर्ट के अनुसार, बिहार के सीमांचल क्षेत्र में मानसून अवधि में औसतन 25–40% अधिक बारिश रिकॉर्ड की गई है.
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2020–2024 के बीच सीमांचल में औसतन 3 से 4 बाढ़ें प्रति वर्ष दर्ज की गईं.
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IPCC रिपोर्ट (AR6) ने सीमांचल को “highly vulnerable flood-prone agro-region” घोषित किया है.
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कटिहार और अररिया जैसे ज़िलों में पिछले 5 वर्षों में कृषि उत्पादन में 23% गिरावट आई है (बिहार कृषि विभाग, 2023).
“जो गया, वो Zomato पहुंचा — जो रुका, वो कर्ज़ में डूबा”
पूर्णिया जिले के बनमनखी से 19 वर्षीय अजहर इमाम 2022 में दिल्ली चला गया. अब वह नोएडा में Zomato डिलीवरी एजेंट है.
वो बताते हैं, "बाढ़ के बाद सब उखड़ गया. स्कूल बंद हुआ, दुकानें भी गईं. गांव में रहने का कोई मतलब नहीं बचा था."
NSSO और CMIE के आंकड़े बताते हैं:
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सीमांचल के ज़िलों से हर साल औसतन 2.3 लाख लोगों का अंतरराज्यीय पलायन होता है.
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इनमें 62% 18–30 वर्ष के युवा हैं, और 71% खेतिहर या मजदूर वर्ग से हैं.
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2022 में अररिया और किशनगंज से बाढ़ के कारण पलायन करने वालों की संख्या 1.1 लाख थी (बिहार स्टेट डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी).
“पानी घट जाता है, लेकिन भरोसा नहीं लौटता”
कटिहार के प्राणपुर ब्लॉक में, बिंदेश्वरी देवी महिला किसान हैं. उनका घर बाढ़ में बह गया था. सरकार ने ₹6,000 की राहत भेजी — लेकिन 3 महीने बाद.
"बाढ़ से पहले भी गरीब थे, बाढ़ के बाद लाचार हो गए. सरकार से उम्मीद करना अब मज़ाक लगता है."
ग्राउंड रिपोर्ट बताती है कि:
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बाढ़ राहत फॉर्म पंचायत में भरवाए जाते हैं लेकिन 70% लोगों को SMS तक नहीं आता.
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‘राहत वितरण सूची’ में वे लोग शामिल होते हैं जो गांव में ही नहीं रहते.
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महिलाएं जो विधवा या एकल हैं, उन्हें “परिवार मुखिया” के नाम पर राहत से बाहर रखा जाता है.
"स्कूल की छत गिर गई, मेरी उम्मीद भी”
किशनगंज के दिघलबैंक प्रखंड के उसरी गांव में, 14 वर्षीय नाजिया खातून की स्कूल यूनिफॉर्म पिछले साल की बाढ़ में बह गई थी. उसके बाद स्कूल भी बंद हुआ — और अब वो स्कूल नहीं जाती.
NHFS-5 और NCPCR रिपोर्ट के अनुसार:
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सीमांचल क्षेत्र में बाढ़ के कारण 45% सरकारी स्कूलों में इंफ्रास्ट्रक्चर डैमेज हुआ है.
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किशनगंज और अररिया में 38% किशोरियां बाढ़ के बाद स्कूल छोड़ देती हैं.
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स्कूलों में शौचालय और पैड की अनुपलब्धता के कारण मासिक धर्म के दौरान 62% किशोरियां गैर-हाज़िर रहती हैं.
कटिहार जिले के बलरामपुर गांव में रहने वाले हरिप्रसाद मंडल ने बाढ़ के पानी में उतरकर अपने पशुओं को बचाया — लेकिन उसके बाद 1 महीने तक चारा नहीं मिला.
"गाय बची है, लेकिन भूख से मर रही है. खेती नहीं, चारा नहीं — दूध भी नहीं."
कृषि और पशुपालन पर असर:
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सीमांचल में 2023 में मवेशियों के चारे की उपलब्धता 58% तक घट गई (बिहार पशुपालन विभाग)
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43% किसान बाढ़ के बाद अपने पशु बेचने को मजबूर हुए (Pradan और ActionAid सर्वे, 2022)
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बाढ़ क्षेत्र में पशु टीकाकरण अभियान ठप्प हो गया — जिससे FMD और अन्य बीमारियां फैलीं.
“बेटा बाहर भेजा, अब खुद को छोड़ दिया”
पूर्णिया के रौतारा गांव के अजीमुल हक़ ने 2021 की बाढ़ के बाद अपने 17 वर्षीय बेटे को केरल भेज दिया. अब बेटा होटल में काम करता है — और कभी-कभी ₹1000 भेज देता है. बेटे को याद करते हुए वो कहते हैं, "उसका भविष्य बचाने के लिए हमने उसका बचपन गिरवी रख दिया."
पलायन का असर:
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61% युवाओं को शोषण और न्यूनतम मज़दूरी से कम भुगतान का सामना करना पड़ता है (IIMPACT & SEWA रिपोर्ट)
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महिलाएं और किशोरियां जो पीछे रहती हैं, घर, पशु और बच्चों की जिम्मेदारी निभाती हैं — पर पहचान नहीं पातीं कि वह भी काम कर रही हैं.
सरकार की योजनाएं — कागज़ पर सब ठीक
CM बाढ़ राहत योजना (बिहार):
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2022 में ₹6,000 की राशि 34 लाख परिवारों को देने की घोषणा
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लेकिन सीमांचल में 25% से अधिक आवेदकों को भुगतान नहीं मिला
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जिनको मिला, उनमें 67% ने कहा कि पैसा बहुत देर से आया
प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना:
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केवल 19% सीमांचल किसान इस योजना से जुड़े हैं
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बाढ़ से नुकसान का सर्वे नहीं होता, इसलिए क्लेम पास नहीं होता
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किसानों को सर्वे नंबर या स्थिति का कोई ट्रैकिंग सिस्टम नहीं दिया जाता
“बाढ़ तो आती है, लेकिन नीति क्यों नहीं बहती?”
कई NGO, शोध संस्थान और रिपोर्ट्स यह सवाल उठा चुके हैं:
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बाढ़ अब अपवाद नहीं, नियमित आपदा है — फिर भी स्थायी समाधान नहीं
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डैम और तटबंध से ज़्यादा ध्यान, पुनर्वास और पलायन प्रबंधन पर होना चाहिए
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बाढ़ राहत योजनाओं में स्थानीय पंचायतों की जवाबदेही तय की जानी चाहिए
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महिलाओं और किशोरियों के लिए विशेष राहत और शिक्षा बहाली पैकेज जरूरी है
“बाढ़ अब कुदरत नहीं, नीति की असफलता बन चुकी है”
बाढ़ को लेकर केवल मौसम या नदी को दोष देना अब बेईमानी है. नीति विशेषज्ञों का कहना है कि:
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सीमांचल में ‘फ्लड-प्रूफ रोजगार गारंटी’ लागू हो — जैसे कि बाढ़ बाद निर्माण, नाला सफाई, बाँध मरम्मत को मनरेगा में शामिल किया जाए
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बाढ़ से प्रभावित किशोरियों के लिए 'बालिका पुनरागमन योजना' बने — जिससे वे स्कूल लौट सकें
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‘पलायन निगरानी तंत्र’ बने — जिससे सरकार पलायन और मजदूरी के स्वरूप को मॉनिटर कर सके
“हम तो गए थे मज़दूरी करने, पर इंसानियत भी पीछे छूट गई”
Zomato और Swiggy डिलीवरी, रेस्टोरेंट क्लीनिंग, गार्ड की नौकरी, या फ़ैक्टरी मज़दूर — यही काम करते हैं सीमांचल के युवा, जो बाढ़ के बाद गए. कुछ लौटते हैं, कुछ नहीं. कटिहार के सोनू कुमार, जो दिल्ली में गार्ड हैं, कहते हैं — "गांव में खेत था, लेकिन खाने को कुछ नहीं. यहां खाना तो है, लेकिन अपमान भी बहुत है."
उनकी मां कहती हैं — "बेटा हर महीने ₹1500 भेज देता है, लेकिन गांव का आंगन खाली है."