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सुभाष मुंडा सात साल का है. पश्चिमी सिंहभूम के जंगलों से घिरे गांव चाईबासा से करीब 40 किलोमीटर दूर एक छोटे से टोले में रहता है. स्कूल जाता है, रोज़. मगर अब जाना पसंद नहीं करता. पूछो तो धीरे से कहता है — “मास्टर जी मुंडारी नहीं बोलते. हम को हिंदी समझ नहीं आता. चुप बैठते हैं.” उसकी आंखों में स्कूल का डर, और भाषा की दीवार एक साथ दिखती है.
ये अकेली कहानी नहीं है. सुभाष जैसे हज़ारों बच्चे झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और पूर्वी भारत के उन इलाकों में रहते हैं जहां आदिवासी समुदायों की अपनी बोलियां हैं — मुंडारी, संथाली, खड़िया, गोंडी, कुरुख, हो.
लेकिन स्कूलों की भाषा हिंदी या अंग्रेज़ी है. नतीजा ये होता है कि स्कूल की इमारतें तो खड़ी हैं, लेकिन पढ़ाई की ज़ुबान बच्चों के पास नहीं पहुंचती.
कक्षा में बैठा, पर पढ़ाई से कटा
जब कोई बच्चा स्कूल जाता है, तो उसके लिए वहां की हर चीज़ नई होती है — दीवारें, बेंच, घंटी, मास्टर. लेकिन अगर वह मास्टर उसकी भाषा नहीं समझता, और वह मास्टर की भाषा नहीं समझता, तो वह अकेला पड़ जाता है. उसे लगता है, शायद मुझमें ही कमी है.
कई बार बच्चे इस बात को घर नहीं बताते, पर धीरे-धीरे वो चुप होते जाते हैं. कई तो स्कूल ही छोड़ देते हैं. पढ़ाई से उनका रिश्ता टूट जाता है, और आत्मविश्वास भी.
10 साल की मीना 'हो' समुदाय से है. वह बताती है कि मास्टर जब कुछ पूछते हैं, तो वो डर जाती है. उसका जवाब होता है — “मैं समझती नहीं तो क्या करूं?”
उसके गांव की महिलाएं कहती हैं कि अगर स्कूल में शिक्षक हमारी भाषा में बात करें, तो बच्चा डरेगा नहीं, सीखेगा. लेकिन आज वो सिर्फ किताबें नहीं, एक अजनबी भाषा भी ढो रहा है — जो उसकी ज़िंदगी से नहीं जुड़ती.
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 का एक बड़ा वादा था — कक्षा 5 तक बच्चों को मातृभाषा में पढ़ाई मिलेगी. लेकिन ज़मीन पर ये वादा अधूरा है. झारखंड के स्कूलों में आज भी शिक्षकों को स्थानीय भाषाओं की समझ नहीं है.
कई स्कूलों में ऐसे शिक्षक हैं जो उस ज़िले तक से नहीं आते. बच्चे शिक्षक की भाषा नहीं समझते, और शिक्षक बच्चों को केवल 'गूंगा, सुस्त या गंवार' कहकर चुप करा देते हैं.
आदिवासी जुबान — सिर्फ बोली नहीं, पहचान है
संथाली, मुंडारी, गोंडी जैसी भाषाएं सिर्फ संवाद का माध्यम नहीं हैं. इनमें जीवन का दर्शन, प्रकृति से रिश्ता, और सामुदायिक मूल्य बसे हैं. जब बच्चा अपनी ही भाषा में किताब नहीं पढ़ पाता, तो वह सिर्फ शिक्षा से नहीं, अपनी जड़ों से कटता है. उसके भीतर से यह भाव भरने लगता है कि 'मेरी भाषा कुछ भी नहीं है'.
धीरे-धीरे समाज उसे सिखा देता है कि केवल हिंदी या अंग्रेज़ी बोलने वाला ही 'बुद्धिमान' होता है.
संयुक्त राष्ट्र की शैक्षणिक संस्था UNESCO ने 2019 में एक रिपोर्ट में स्पष्ट कहा था कि अगर बच्चा अपनी मातृभाषा में पढ़े, तो वह दोगनी गति से समझता है और आगे बढ़ता है. वहीं NCERT के एक अध्ययन में पाया गया कि आदिवासी क्षेत्रों में जहां मातृभाषा का उपयोग नहीं होता, वहां ड्रॉपआउट की दर औसतन 30% अधिक होती है.
झारखंड ट्राइबल रिसर्च इंस्टीट्यूट की एक रिपोर्ट यह भी कहती है कि राज्य के 60% से ज़्यादा शिक्षक यह मानते हैं कि भाषा की समस्या के कारण बच्चों को समझाना मुश्किल होता है, लेकिन वे खुद उस भाषा को सीखने की कोशिश नहीं करते.
जहां भाषा बदली, वहां बच्चा खिला
“पहले लगता था स्कूल ज़बरदस्ती है. अब लगता है स्कूल हमारा है.”
ये कहना है 9 साल की तुलसी सोरेन का, जो झारखंड के दुमका ज़िले की एक प्राथमिक विद्यालय में पढ़ती है. फर्क ये है कि उसके स्कूल में अब संथाली भाषा में पढ़ाई शुरू हो गई है. कक्षा की दीवारों पर संथाली वर्णमाला, लोककथाएं और चित्र लगे हैं. शिक्षक भी संथाली बोलते हैं. तुलसी अब रोज़ स्कूल जाती है, जवाब देती है, सवाल करती है और गाने भी सुनाती है — अपनी ही भाषा में.
ओडिशा का उदाहरण — 'मूलभाषा में शिक्षा' की मिसाल
ओडिशा सरकार ने कुछ वर्ष पहले 'मूलभाषा में प्राथमिक शिक्षा' कार्यक्रम शुरू किया, जिसमें 21 आदिवासी भाषाओं में शिक्षण सामग्री तैयार की गई. स्थानीय समुदायों की मदद से किताबें, कहानियां, चार्ट और खेल विकसित किए गए. यह मॉडल दिखाता है कि अगर सरकार और समाज दोनों चाहें, तो भाषा दीवार नहीं, पुल बन सकती है.
रांची, लोहरदगा और गुमला जैसे जिलों में कुछ शिक्षक स्वयंसेवी संगठनों की मदद से स्थानीय बोली सीखकर बच्चों से संवाद करने लगे हैं. शिक्षक कमलेश बाड़ा बताते हैं, "शुरुआत में मैंने खुद संथाली सीखी. फिर बच्चों को उनके शब्दों में समझाया. नतीजा ये हुआ कि जिन बच्चों को पहले गूंगा कहा जाता था, वही अब सबसे ज़्यादा सवाल करते हैं."
आमजन की भाषा किताबों से बाहर क्यों हैं?
हालांकि संविधान की आठवीं अनुसूची में संथाली जैसी कुछ आदिवासी भाषाओं को स्थान मिला है, पर प्राथमिक शिक्षा में इनका उपयोग नगण्य है. स्कूल पाठ्यक्रम में भाषा का चयन 'सरलता' के आधार पर होता है, न कि 'सांस्कृतिक समीकरण' के. नतीजा ये होता है कि स्कूलों में किताबें आती हैं, लेकिन बच्चों की ज़ुबान उसमें नहीं होती.
जब कोई बच्चा अपनी भाषा में पढ़ता है, तो वह सिर्फ शिक्षा ग्रहण नहीं करता, बल्कि खुद को समाज का हिस्सा मानता है. उसे लगता है — "मेरी भाषा भी स्कूल में है, मेरी बात भी मायने रखती है."
इसके उलट, जब बच्चा अपनी भाषा बोलने पर डांटा जाता है, तो वह दोहरी हिंसा झेलता है — एक मानसिक, दूसरी सांस्कृतिक.
आज के डिजिटल युग में स्थानीय भाषाओं में कंटेंट बनाना ज़्यादा मुश्किल नहीं रहा. मोबाइल ऐप, ऑडियो कहानियां, यूट्यूब चैनल और रेडियो स्टेशन — सबको स्थानीय भाषा में जोड़ा जा सकता है.
यह भी ज़रूरी है कि सरकार शिक्षा से जुड़े टेक्नोलॉजिकल इनोवेशन को सिर्फ अंग्रेज़ी-हिंदी तक सीमित न रखे.
"स्कूल हमारे हैं, लेकिन ज़ुबान नहीं"
खड़िया समुदाय की चंपा देवी कहती हैं, “हमने तो अपने बच्चों को पढ़ाने का सपना देखा था. लेकिन स्कूल में उनकी ज़ुबान को 'ग़लत' कहा जाता है. बच्चा बोलना बंद कर देता है. पढ़ाई से डरने लगता है.”
चंपा की बेटी रेनू अब स्कूल नहीं जाती. पांचवीं तक पढ़ी, लेकिन कभी क्लास में जवाब नहीं दिया. कारण — उसे समझ ही नहीं आता था कि सवाल क्या है.
यह कहानी कई घरों में दोहराई जाती है. और इन घरों में सरकारी योजनाएं आती हैं — किताबें, ड्रेस, साइकिल — सब कुछ, सिवाय सम्मान और समझदारी के.
NEP 2020 में मातृभाषा में शिक्षा का प्रावधान है, लेकिन उसका कार्यान्वयन बेहद सीमित है. आदिवासी इलाकों में TET (Teacher Eligibility Test) पास करने वाले शिक्षक कम हैं, और जो हैं भी, उन्हें ज़्यादातर हिंदी-माध्यम से पढ़ाने की ट्रेनिंग मिली है.
सरकारी पाठ्यपुस्तक विभाग ने मुंडारी या हो भाषा में पुस्तकें छापी हैं, लेकिन वे या तो स्कूलों तक पहुंचती ही नहीं, या शिक्षक उन्हें पढ़ नहीं पाते.
2023 में झारखंड सरकार ने कुछ जिलों में ‘मूलभाषा कक्षाएं’ शुरू कीं, पर इनकी निगरानी और गुणवत्ता नियंत्रण लगभग ना के बराबर है.
क्या कहते हैं आंकड़े?
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NSSO 2021 के अनुसार, झारखंड के 40% से अधिक आदिवासी बच्चे कक्षा 8 से पहले ही स्कूल छोड़ देते हैं.
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ASER रिपोर्ट 2022 के मुताबिक, इन क्षेत्रों के बच्चों की पढ़ने-लिखने की दक्षता सामान्य से 30% कम पाई गई.
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NEP Implementation Review 2023 बताती है कि झारखंड के 80% स्कूलों में कोई स्थानीय भाषा शिक्षक नियुक्त नहीं है.
जब भाषा समझ में आए, तो स्कूल घर जैसा लगे
पश्चिमी सिंहभूम के एक गांव में, जहां शिक्षक रवींद्र सिंह ने खुद संथाली सीखी, वहां कक्षा में बच्चों की उपस्थिति 60% से बढ़कर 95% हो गई है. बच्चों के चेहरे पर मुस्कान है, जवाब हैं, और सबसे बढ़कर — आत्मविश्वास है.
रवींद्र कहते हैं — "बच्चा जब अपनी भाषा में समझता है, तो सवाल पूछने में डरता नहीं है. मैं जब संथाली में 'काहे ने गे?' कहता हूं, तो बच्चा खुल जाता है."
यह बदलाव किसी स्कीम से नहीं, एक इंसान की पहल से आया है.
भाषा की लड़ाई, हक़ की लड़ाई है
यह लड़ाई केवल शिक्षा की नहीं है, यह सम्मान, समानता और सांस्कृतिक अस्तित्व की लड़ाई है. जब एक बच्चा अपनी मातृभाषा में शिक्षा पाता है, तो वह सिर्फ पढ़ता नहीं, अपना अस्तित्व स्वीकार करता है.
और जब एक समाज अपनी ही भाषा में हाशिए पर डाल दिया जाता है, तो वह धीरे-धीरे 'ग़ैरज़रूरी' बना दिया जाता है — पहले स्कूलों में, फिर योजनाओं में, और अंततः संविधान में.
इसलिए आज अगर हम सचमुच ‘सबके लिए शिक्षा’ की बात करते हैं, तो हमें यह भी स्वीकारना होगा — 'एक भाषा' नहीं, 'हर भाषा' की जगह होनी चाहिए स्कूलों में.