बढ़ता बजट, बिगड़ता स्वास्थ्य: राजधानी पटना के खस्ताहाल UPHC की कहानी

बिहार में 49% चिकित्सकों के पद खाली हैं. अस्पतालों में ऑपरेशन थिएटर, ब्लड स्टोरेज यूनिट जैसी बुनियादी सुविधाएं नहीं हैं. 68% वेंटिलेटर सिर्फ़ इसलिए अनुपयोगी हैं क्योंकि उन्हें चलाने वाले प्रशिक्षित तकनीशियन ही नहीं हैं.

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नाजिश महताब
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बढ़ता बजट, बिगड़ता स्वास्थ्य: राजधानी पटना के खस्ताहाल UPHC की कहानी

पटना के कंकड़बाग इलाके में जब आप उस पुराने और जर्जर इमारत के पास से गुज़रते हैं, तो यह यकीन कर पाना मुश्किल हो जाएगा कि यह कोई अस्पताल है. टपकती छत, दरकती दीवारें और अंदर से आती एक सन्नाटे जैसी आवाज़यह शहरी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (UPHC) है, जहां हर दिन 70 से 80 मरीज पहुंचते हैं.

जर्जर इमारत में जर्जर व्यवस्था

इस केंद्र की हालत ऐसी है कि कभी भी गिर जाए. यह वही इमारत है जहां कभी स्टेट डिस्पेंसरी चला करती थी, जिसे अब इस स्वास्थ्य केंद्र में तब्दील कर दिया गया है. यहां केवल एक डॉक्टरडॉ. राजकुमार चौधरी हैं, जिनके कंधों पर पूरा बोझ है. पांच नर्सें हैं और ज़्यादातर इलाज नर्सों के भरोसे होता है.

कंकड़बाग और अशोक नगर जैसे इलाकों में कोई अन्य सरकारी अस्पताल नहीं होने के कारण यहां मरीज़ों की भीड़ अधिक रहती है. लेकिन यह भीड़ इलाज के लिए नहीं, बल्कि खुद को जोखिम में डालकर जीने की जद्दोजहद में आती है.

कंकड़बाग के रहने वाले तुषार बताते हैं कि "प्राथमिक स्वस्थ केंद्र (UPHC) की स्थिति पिछले कई सालों से जर्जर है. हमें वहां जाने में डर लगता है की कब भवन गिर जाए. हद तो ये है कि शिकायत के बावजूद आज तक कोई काम नहीं हुआ है."

क्या है सरकारी आंकड़ों का सच?

स्वास्थ्य सेवाओं की हालत बिहार में कितनी ख़राब है, इसे समझने के लिए सरकार के खुद के आंकड़े काफ़ी हैं. 2024-25 के बजट में राज्य सरकार ने स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए 14,932.09 करोड़ रुपये का प्रावधान किया. पिछले साल यह बजट 16,966 करोड़ रुपये था. लेकिन सवाल यह नहीं है कि बजट कितना है, सवाल यह है कि उसका उपयोग कितना हुआ?

2016 से 2022 के बीच ₹69,790.83 करोड़ का बजट मिला, लेकिन सिर्फ ₹48,047.79 करोड़ खर्च हुआ. यानी ₹21,743.04 करोड़ बिना उपयोग के ही रह गए. सोचिए, अगर यह पैसा इस्तेमाल हो जाता, तो कितने अस्पतालों को संजीवनी मिल सकती थी, कितनी ज़िंदगियां बचाई जा सकती थीं.

कंकड़बाग के एक स्थानीय निवासी राजीव कुमार कहते हैं, "यहां आकर लगता है जैसे अपनी जान खतरे में डाल दी हो. डॉक्टर मिलते नहीं, बिल्डिंग किसी भी वक्त गिर सकती है और टेक्नीशियन तक नहीं मिलता. फिर भी क्या करें, निजी अस्पतालों में जाने की औकात नहीं."

सिर्फ़ पटना नहीं बिहार के कई गांव की स्थिति ख़राब 

छकरबंधा में 10 साल पहले उप-स्वास्थ्य केंद्र खोलने की घोषणा की गई थी, लेकिन अभी तक इसका निर्माण नहीं हुआ है. इससे क्षेत्र के लोगों को स्वास्थ्य सेवाओं के लिए लंबी दूरी तय करनी पड़ती है. जब किसी मरीज़ की स्थिति गंभीर होती है, तो डॉक्टर को पहुंचने में काफ़ी समय लगता है.

क्षेत्र के लोगों को इलाज के लिए 20 किलोमीटर दूर डुमरिया या इमामगंज स्वास्थ्य केंद्र जाना पड़ता है. प्रसूता महिलाओं को प्रसव पीड़ा होने पर भी यही दूरी तय करनी पड़ती है, जो उनके लिए जानलेवा साबित हो सकती है. निजी वाहन नहीं मिलने पर मरीज़ की जान जोखिम में पड़ जाती है.

स्थानीय लोगों का कहना है कि "व्यवस्था की कमी के कारण उन्हें स्वास्थ्य सेवाओं के लिए इतनी दूर जाना पड़ता है. उनका कहना है कि उप-स्वास्थ्य केंद्र का निर्माण जल्द से जल्द किया जाना चाहिए, ताकि उन्हें स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ मिल सके. इससे क्षेत्र के लोगों की जान बचाई जा सकती है और उन्हें बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं मिल सकती हैं."

नीति आयोग की रिपोर्ट और बिहार की स्थिति

नीति आयोग के 2023-24 के सतत विकास लक्ष्य (SDG) सूचकांक के मुताबिक, बिहार देश के सबसे निचले पायदान पर है. जहां केरल और उत्तराखंड जैसे राज्य शिक्षा, स्वास्थ्य और पर्यावरण में बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं, वहीं बिहार सिर्फ़ 57 अंकों के साथ फिसड्डी साबित हो रहा है.

बिहार की स्वास्थ्य स्थिति को एक और नजरिए से समझें—WHO के मुताबिक, हर 1,000 लोगों पर 1 डॉक्टर होना चाहिए, लेकिन बिहार में यह अनुपात 1:2,148 है. यानी आधे से ज़्यादा आबादी डॉक्टरों से वंचित है.

कैग रिपोर्ट की पोल खोलती तस्वीर

कैग की रिपोर्ट में साफ़- साफ़ कहा गया है कि बिहार में 49% चिकित्सकों के पद खाली हैं. अस्पतालों में ऑपरेशन थिएटर, ब्लड स्टोरेज यूनिट जैसी बुनियादी सुविधाएं नहीं हैं. 68% वेंटिलेटर सिर्फ़ इसलिए अनुपयोगी हैं क्योंकि उन्हें चलाने वाले प्रशिक्षित तकनीशियन ही नहीं हैं.

कंकड़बाग की निवासी सुषमा देवी बताती हैं कि "सुविधाएं बहुत हैं लेकिन वो मिलती नहीं है. प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र तो है लेकिन वहां समस्या बहुत सारी है. कभी कोई दावा नहीं मिलती तो कभी अन्य सुविधा प्राप्त नहीं होती, टेक्नीशियन है, तो फिर किस तरह से हमारा इलाज होगा?"

स्वास्थ्य केंद्रों की योजनाएंसिर्फ़ कागजों पर?

सरकार की योजना है कि स्वास्थ्य केंद्रों की संख्या को बढ़ाया जाए. वर्तमान में एक लाख की आबादी पर 12 केंद्र हैं, जिसे 15 तक ले जाने का प्रस्ताव है. लेकिन ज़मीनी हकीकत यह है कि प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (UPHC) की संख्या 2013 से 2022 तक जस की तस बनी हुई है—533. सिर्फ़ उपकेंद्रों और अतिरिक्त प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की संख्या में थोड़ा-बहुत इज़ाफ़ा हुआ है.

स्वास्थ्य सेवाएं किसी भी राज्य की रीढ़ होती हैं. जब रीढ़ ही कमज़ोर हो, तो बाकी शरीर कैसे चलेगा? बिहार को सिर्फ़ बजट नहीं, नियोजित क्रियान्वयन चाहिए. उसे सिर्फ़ घोषणाएं नहीं, ज़मीनी बदलाव चाहिए. कंकड़बाग का यह स्वास्थ्य केंद्र एक प्रतीक है इस बात का कि जब सरकारें आंकड़ों और भाषणों में उलझ जाती हैं, तब जनता टूटी हुई छतों के नीचे इलाज कराने को मजबूर हो जाती है.

इस विषय पर जब हमने सिविल सर्जन से बात करने की कोशिश की लेकिन उनसे हमारी बात नहीं हो पाई. लेकिन हम लगातार कोशिश करेंगे ताकि समस्या का निदान जल्द से जल्द हो सके.

अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं- अधिकार या लक्ज़री?

बिहार को बदलने के लिए सबसे पहले उसके स्वास्थ्य ढांचे को मज़बूत करना होगा. सिर्फ़ नई योजनाओं की घोषणा करने से कुछ नहीं होगा. उन्हें लागू करना होगा, धरातल पर लाना होगा. कंकड़बाग की यह तस्वीर सिर्फ़ एक केंद्र की नहीं है, यह पूरे बिहार की स्वास्थ्य व्यवस्था की हालत बयान करती है. अब वक्त है कि सरकार, प्रशासन और समाज मिलकर एक ऐसी व्यवस्था बनाएं जहां स्वास्थ्य सुविधा किसी का हक हो, लक्ज़री नहीं.