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पथरकट्टी—एक नाम, एक पहचान, एक परंपरा. बिहार के गया जिले में नीमचक बथानी प्रखंड का यह गांव, किसी परिचय का मोहताज नहीं. सदियों से यहां के कारीगर पत्थरों में जान फूंकते रहे हैं. उनके हाथों से तराशे गए पत्थरों में भगवान बोलते हैं, महावीर मुस्कुराते हैं, बुद्ध शांति का संदेश देते हैं. पर अफ़सोस की बात यह है कि जिन हाथों से इतिहास गढ़ा गया, वही हाथ आज भी फटे कपड़ों में लिपटे हैं. झुकती कमर, धूल से सना चेहरा, सूखी आंखें—यह है पत्थरकट्टी के कलाकार की असल तस्वीर.
कला, लेकिन कीमत नहीं
2025 में जब यह खबर आई कि पथरकट्टी की 300 साल पुरानी पत्थर कला को GI टैग मिल गया है, तो गांव में दीपावली का सा माहौल था. लगा कि अब कुछ बदलेगा. लगेगा कि अब विदेशों से भी लोग आएंगे, मूर्तियां बिकेंगी, और इन हाथों को मेहनत की असली कीमत मिलेगी. लेकिन हकीकत कुछ और है.
सात साल पहले सात करोड़ की लागत से बना मूर्ति रिसॉर्ट, जिसमें शिल्पकार अपनी मूर्तियाँ बेचने वाले थे, आज खंडहर बना खड़ा है. न उद्घाटन हुआ, न ग्राहकों की भीड़ लगी. वहां केवल जंग खाए ताले हैं, दीवारों पर उग आई काई है, और कारीगरों की टूटी उम्मीदें हैं.
कारीगरों से जब हमने बात की तो उन्होंने बताया कि मूर्ति रिसॉर्ट बना लेकिन फिर भी हमलोगों को मेहनत का फ़ल नहीं मिलता है. हमलोग रात दिन एक करके मूर्तियां बनाते हैं लेकिन फिर भी पैसे नहीं आते हैं. घर चलाना मुश्किल होता है. अगर बात करें किसी दूसरे कला की तो उसे बहुत सहयोग किया गया है, उसकी अंतरराष्ट्रीय पहचान बना दी गई, उनका मार्केट बना दिया गया लेकिन हमारा क्या?”
अहिल्याबाई की विरासत, सरकारी उदासीनता की बलि
जिस गांव को अहिल्याबाई होल्कर ने पहचान दी, वहीं की कला आज सरकारी उपेक्षा की मार झेल रही है. कारीगर बताते हैं कि “जब विष्णुपद मंदिर बन रहा था, तब जयपुर से बुलाए गए 13 शिल्पकारों को यहां बसाया गया. उन्होंने पहाड़ों से काला ग्रेनाइट खोजा, और मंदिर गढ़ा. आज उन्हीं कारीगरों की संताने बिचौलियों के रहमोकरम पर जी रही हैं.”
बाज़ार में अगर एक मूर्ति 15 हजार में बिकती है, तो कारीगर को मिलते हैं केवल 2-3 हजार रुपये. बाकी पैसा बिचौलियों और दुकानदारों की जेब में चला जाता है. क्यों? क्योंकि इन कलाकारों को न तो बाज़ार की समझ है, न ही कोई ऐसा मंच मिला है जहां वे अपनी कला का सीधा सौदा कर सकें.
विकास जो पेशे से एक मूर्ति कारीगर हैं. जब हमारी टीम ने उनसे बात की तो उन्होंने बताया कि “ बिचौलियों ने हमारा धंधा ख़राब कर रखा है. जो पैसे उन्हें मिलते हैं हमें उसका आधा भी नहीं मिलता है.”
शासन में उत्सव, जीवन में संघर्ष
सरकार GI टैग मिलने पर उत्सव मना रही है. अख़बारों में तस्वीरें छप रही हैं, मंत्री बधाई दे रहे हैं, मगर कलाकार के घर में चूल्हा नहीं जल रहा. प्रशिक्षण केंद्र जरूर बना है, जहां लोगों को मूर्ति बनाना सिखाया जाता है, पर वहां भी रोज़ 3 रुपये की मजदूरी मिलती है. यह मज़ाक नहीं, हकीकत है.
इन कलाकारों के बच्चे स्कूल छोड़ रहे हैं, क्योंकि घर चलाने के लिए उन्हें भी छेनी और हथौड़ी पकड़नी पड़ती है. महिलाएं भी इस कला में हाथ बंटा रही हैं, मगर उनका नाम कहीं दर्ज नहीं होता. न कोई बीमा, न पेंशन, न सामाजिक सुरक्षा—बस पत्थर है, और उसमें छिपी रोज़ी की उम्मीद.
दुनिया देख रही है, देश अनदेखा कर रहा है
पथरकट्टी की मूर्तियां विदेशों तक जाती हैं. जापान, श्रीलंका, थाईलैंड जैसे देशों में भगवान बुद्ध की प्रतिमाएं वहां की शोभा बढ़ा रही हैं. मगर इन मूर्तियों के मूल रचयिता आज भी मिट्टी के चूल्हे पर रोटी सेंक रहे हैं. GI टैग ने पहचान दी है, मगर सम्मान और मूल्य नहीं. यह विडंबना नहीं, यह लापरवाही है. लोकतंत्र की एक बड़ी कमी यह है कि कला को तभी महत्व मिलता है जब वह मंच पर होती है. गांव की धूल भरी गलियों में जो कला सांस ले रही है, उसे देखने वाला कोई नहीं.
विकास आगे बताते हैं कि “ देखिए यहां के लोगों का जीवन मूर्तियां बनाने और उन्हें बेचने पर निर्भर हैं. लेकिन जिस मेहनत से हमलोग मूर्तियां बनाते हैं हमें उसके अनुसार पैसे नहीं मिलते हैं जिससे हमें अपना घर चलाना मुश्किल हो जाता है. बच्चों की पढ़ाई भी छूट जाती है. सरकार ने बस एक मूर्ति रिसॉर्ट बना दिया लेकिन अभी तक उसका उद्घाटन नहीं किया गया, आख़िर क्यों.. क्या सरकार हमें कलाकार नहीं समझती?”
क्या केवल टैग से बदलती है किस्मत?
GI टैग का मतलब है—भौगोलिक संकेतक, जो यह बताता है कि यह उत्पाद किसी विशेष क्षेत्र का है और उसकी गुणवत्ता उस क्षेत्र से जुड़ी है. पर सवाल यह है कि क्या टैग से किसी का जीवन भी बदलता है? कागज़ पर तो हां. जब तक सरकार, समाज और बाज़ार मिलकर इस कला को संजोने और इसका सही मूल्य तय करने का काम नहीं करते, तब तक पत्थरकट्टी के कलाकारों की किस्मत नहीं बदलेगी.
आज ज़रूरत है एक ऐसी व्यवस्था की जहां कारीगरों को बिचौलियों से मुक्त कर सीधा बाज़ार दिया जाए. जहां उनके बच्चों को शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधा मिले. जहां उनका हुनर सिर्फ प्रदर्शनियों तक सीमित न हो, बल्कि उनकी रोज़मर्रा की जिंदगी में सुधार लाए.पथरकट्टी के ये कलाकार केवल मूर्तियां नहीं गढ़ते, वे संस्कृति का चेहरा तराशते हैं. अगर हम उन्हें अनदेखा करेंगे, तो एक दिन यह कला इतिहास बन जाएगी—वह इतिहास, जो कभी जीवित था, मगर जिसे हमने मरने दिया.