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"घर से निकलती हूं तो बच्चे पीछे से पकड़ लेते हैं — 'मम्मी आज मत जाओ, भूख लगी है.' लेकिन क्या करूं? गांव की औरत की डिलिवरी है, ना जाऊं तो जान का खतरा. जाऊं तो घर में चूल्हा नहीं जलता."
— सुनीता देवी, आशा कार्यकर्ता, मधुबनी जिला, बिहार
जिन पर भरोसा है, पर जिनका कोई भरोसा नहीं करता
जब गांव में कोई गर्भवती महिला ज़्यादा देर तक प्रसव पीड़ा में होती है, तो सबसे पहले किसी डॉक्टर को नहीं, किसी पुरुष को नहीं — आशा दीदी को ही बुलाया जाता है. जब नवजात बच्चे को टीका लगाना हो, या किसी को मलेरिया-जांच करानी हो, तो भी नाम सिर्फ उनका आता है.
बिहार के हर गांव, टोले, बस्ती और कस्बे में करीब 90,000 आशा कार्यकर्ता और 5,000 आशा फैसिलिटेटर अपने काम में जुटी हैं — लेकिन बिना किसी स्थायीत्व, बिना ठीक वेतन के, और बिना सरकार की सुनवाई के.
आशा कार्यकर्ता कौन हैं और क्या करती हैं?
आशा (Accredited Social Health Activist) कार्यकर्ता, भारत सरकार की राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (NRHM) के तहत एक सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता होती हैं. उनका काम है:
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गर्भवती महिलाओं की निगरानी और अस्पताल में सुरक्षित प्रसव करवाना
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नवजात की टीकाकरण और देखभाल
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परिवार नियोजन की जानकारी देना
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टीबी, मलेरिया जैसी बीमारियों की पहचान
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गांव में स्वास्थ्य से जुड़ी योजनाओं को ज़मीनी स्तर पर लागू करना
लेकिन क्या उन्हें इसके बदले उतना सम्मान और समर्थन मिलता है, जितनी ज़िम्मेदारियां उन पर डाली जाती हैं?
₹4500 की ज़िंदगी: एक सिस्टम का मज़ाक
बिहार सरकार ने 2023 में घोषणा की थी कि आशा कार्यकर्ताओं को केंद्र की तरफ से ₹2000 और राज्य की तरफ से ₹2500 मिलाकर कुल ₹4500 प्रतिमाह स्थायी मानदेय मिलेगा. इसके अलावा अगर वो डिलिवरी करवाती हैं, टीका लगवाती हैं या परिवार नियोजन से जुड़े काम करती हैं तो प्रोत्साहन राशि मिलती है.
लेकिन क्या ये पैसा समय पर मिलता है? उत्तर है — नहीं.
3 से 6 महीने की देरी, कभी-कभी इससे भी ज़्यादा. और जब भी पूछो, तो जवाब आता है: "फाइल रुकी हुई है, बजट पास नहीं हुआ, पोर्टल में दिक्कत है..."
"पिछले पांच महीनों से पैसा नहीं आया है. राशन दुकानवाले उधारी देने से मना कर देते हैं. बच्चे स्कूल कैसे जाएंगे?"
— रजनी कुमारी, आशा कार्यकर्ता, औरंगाबाद
एक सीमावर्ती गांव की कहानी: बेतिया के पास बसे नरकटियागंज की हकीकत
नरकटियागंज, जो पश्चिमी चंपारण जिले का सीमावर्ती इलाका है, वहां की आशा कार्यकर्ता मीना देवी बताती हैं:
“नेपाल बॉर्डर के पास के गांवों में कई बार हमें रात को भी जाना पड़ता है, कोई डिलिवरी केस हो तो. पर रास्ते में सड़क नहीं, लाइट नहीं, फोन नेटवर्क नहीं. कई बार डर के मारे पीछे लौट आती हूं. लेकिन अगर कुछ हो जाए, तो आरोप हम पर ही आता है.”
मीना की 14 साल की बेटी ने पढ़ाई छोड़ दी क्योंकि मां को गांव-गांव दौड़ना पड़ता है और घर चलाने को कोई नहीं. पति दिल्ली में मजदूरी करते हैं.
क्या कहते हैं आंकड़े और रिपोर्टें?
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90,000 से अधिक आशा कार्यकर्ता इस समय बिहार में कार्यरत हैं.
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हर कार्यकर्ता औसतन 500-1000 लोगों की आबादी को कवर करती हैं.
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₹4,500 मासिक स्थायी मानदेय में उन्हें EPF, मेडिकल बीमा या पेंशन जैसी कोई सुविधा नहीं मिलती.
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2022 और 2023 में लगातार दो बार आशा कार्यकर्ताओं ने पूरे राज्य में हड़ताल की थी.
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2023 की हड़ताल के बाद ही राज्य सरकार ने ₹2500 राज्य हिस्से का ऐलान किया.
(स्रोत: TOI, People's Dispatch)
"हम भी इंसान हैं, मशीन नहीं"
गया जिले की नसीमा खातून बताती हैं: “कोविड के समय हम PPE किट के बिना घर-घर घूमे. जब टीका लगवाना शुरू हुआ तो हम ही पहले लोगों को समझाने गए. लोग पत्थर फेंकते थे, गालियां देते थे, लेकिन हम फिर भी गए. आज वही सरकार हमें मानदेय के लिए तड़पाती है.”
कई आशा कार्यकर्ताओं ने बताया कि कोविड के समय जो ₹1000 प्रतिमाह का विशेष प्रोत्साहन मिला था, उसका भी भुगतान कई जिलों में अब तक नहीं हुआ है.
सरकार से क्या मांगें हैं आशा कार्यकर्ताओं की?
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आशा कार्यकर्ताओं को स्थायी कर्मचारी का दर्जा दिया जाए
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मासिक वेतन ₹10,000 या उससे अधिक किया जाए
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समय पर मानदेय भुगतान की गारंटी
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पेंशन योजना, चिकित्सा बीमा और मातृत्व लाभ
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प्रोत्साहन कार्यों की राशि की ऑनलाइन ट्रैकिंग व्यवस्था
सुनिए, वरना ये आवाज़ चुप हो जाएगी
ये वो महिलाएं हैं जो न तो किसी सरकारी स्कीम के पोस्टर पर दिखती हैं, न ही सरकारी प्रेस रिलीज़ में उनका नाम होता है. लेकिन जब भी गांव में कोई संकट आता है — महामारी हो, डिलिवरी केस हो, या टीबी का मरीज़ — सरकार सबसे पहले इन्हें भेजती है.
अगर आज भी उनकी नहीं सुनी गई, तो शायद कल कोई घर तक पहुंचने से पहले दम तोड़ देगा — क्योंकि आशा को कभी वेतन नहीं मिला.