“जिसका राशन कार्ड छूटा, वो भूखा सोया” — PDS की गड़बड़ियों पर ग्राउंड रिपोर्ट

डिजिटल सिस्टम में नाम कटने के बाद भूखे रह गए परिवार. बिहार के गांवों से रिपोर्ट, जहां राशन कार्ड छूटा तो थाली खाली रह गई. पढ़िए सच्ची कहानियां.

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आमिर अब्बास
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राशन ना पहुंचने की वजह से बच्चों और महिलाओं में कुपोषण बढ़ा है

मधुबनी जिले के बिस्फी प्रखंड के खगदाहा गांव में दोपहर की धूप कुछ ज़्यादा तेज़ थी. एक छोटी सी झोपड़ी के बाहर फुलो देवी अपनी लकड़ी की खाट पर बैठी थीं. उनका चूल्हा तीन दिन से नहीं जला था. उम्र 72 साल, शरीर दुबला, और आवाज़ में एक थकी हुई रुआंसी धीमी गति. “बेटा, कार्ड तो था, पर नाम कट गया... अब क्या करें?” — इतना कहकर वो चुप हो गईं. उनके बेटे की मौत हो चुकी है. बहू कहीं और चली गई. बची हैं बस वो — और सरकारी सिस्टम से कटी एक पहचान.

फुलो देवी का राशन कार्ड 2023 में हुए आधार लिंकिंग अभियान में 'अमान्य' घोषित कर दिया गया. सिस्टम ने उन्हें 'Ineligible' की श्रेणी में डाल दिया, क्योंकि बायोमेट्रिक डिवाइस पर उनका अंगूठा ठीक से मैच नहीं हो रहा था. पंचायत सचिव ने उन्हें ब्लॉक ऑफिस भेजा, लेकिन वहां से जवाब आया — “ऑनलाइन सुधार करवाइए”. गांव में न इंटरनेट है, न कोई मदद करने वाला. महीनों तक वो अपने कटे हुए नाम के साथ राशन दुकान जाती रहीं, हर बार डीलर सिर्फ एक ही जवाब देता — “सिस्टम में नाम नहीं आ रहा मां, मैं क्या करूं?”

सिस्टम से बाहर छूटे हुए लोग, भूख से जूझते लोग

राज्य सरकार द्वारा संचालित EPDS (Electronic Public Distribution System) पोर्टल के अनुसार 2022 से 2024 के बीच बिहार में लगभग 11.6 लाख लाभार्थियों के नाम राशन कार्ड से हटा दिए गए. इनमें बड़ी संख्या ऐसे लोगों की थी जो या तो बहुत वृद्ध थे, अंगूठा लगाने में अक्षम थे, या फिर जिनके आधार कार्ड में मामूली गड़बड़ी थी — जैसे नाम की स्पेलिंग या जन्म तिथि में अंतर. हटाए गए नामों में 70% ग्रामीण थे और इनमें से आधे से अधिक महिलाएं थीं.

दरभंगा के मनीगाछी प्रखंड में एक विधवा महिला — संगीता देवी — बताती हैं कि उनका राशन कार्ड पिछले साल 'Not Verified' हो गया था. “मुझे तो यही नहीं पता कि गलत क्या था. अंगूठा तो मैंने लगाया था. जब दुकान गए तो बोले कि ‘अब नाम नहीं है’, और जब ब्लॉक गए तो कहा — नया आवेदन दो.” उनकी थाली में उस दिन सिर्फ चिउरा और नमक था.

NFHS-5 के आंकड़ों के अनुसार बिहार के ग्रामीण इलाकों में खाद्य असुरक्षा की स्थिति लगातार बिगड़ रही है. हर तीन घरों में से एक में भरपेट खाना नहीं मिलता, और करीब 43 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं. यह स्थिति तब है जब सरकार प्रति व्यक्ति प्रति माह 5 किलो गेहूं-चावल मुफ्त देने का दावा करती है. लेकिन जिनका नाम लिस्ट में नहीं है, उनके लिए यह दावा सिर्फ भाषण बनकर रह जाता है.

डिजिटल इंडिया’ के बाहर की दुनिया

पूर्णिया जिले के धमदाहा ब्लॉक में रहने वाले रफीक मियां 66 साल के हैं. उनके पास राशन कार्ड था, आधार भी जुड़ा था, लेकिन अगस्त 2023 से उन्हें राशन मिलना बंद हो गया. दुकानदार ने कहा, “बायोमेट्रिक नहीं हो पा रहा.” जब वो अपने पोते के साथ ब्लॉक ऑफिस पहुंचे तो उन्हें वहां से एक फॉर्म दिया गया — e-KYC अपडेट कराने का. लेकिन गांव में न तो CSC सेंटर है, न नेट काम करता है. उनका पोता भी सिर्फ 10वीं पास है और ऑनलाइन प्रक्रिया समझ नहीं पाया.

रफीक मियां ने दो महीने लगातार पंचायत और प्रखंड के चक्कर लगाए, लेकिन कोई समाधान नहीं मिला. “हम जो मेहनत करके ज़िंदा थे, अब भूख में मरने को रह गए,” — उन्होंने कहा और खाट पर सिर टिकाया. उनके साथ गांव के छह और परिवारों के कार्ड भी एक ही कारण से बंद हुए थे — 'e-KYC not completed'.

EPDS के आंकड़ों में इस तरह के नामों को 'Auto Suspended' की श्रेणी में डाला जाता है. यानी कोई मानवीय हस्तक्षेप नहीं, सिर्फ सॉफ्टवेयर तय करता है कि किसका नाम काटा जाएगा. और जब सिस्टम गड़बड़ी करता है, तब ग्रामीण सिर्फ तमाशबीन रह जाते हैं.

राशन कार्ड का होना भी अब भरोसेमंद नहीं

सीतामढ़ी जिले की रानी देवी बताती हैं कि उनका राशन कार्ड तो है, आधार भी लिंक है, फिर भी उन्हें हर महीने राशन नहीं मिलता. कभी डीलर कहता है नेटवर्क नहीं है, कभी मशीन नहीं चलती. “एक बार तो बोला — तुम्हारा अंगूठा गलत लग रहा है, अब मशीन भी हमें नहीं पहचानती क्या?” रानी देवी की यह बात सुनते हुए पास बैठी औरतें हंस पड़ीं — लेकिन वो हंसी कड़वाहट से भरी थी.

बिहार के कई जिलों में डिजिटल मशीनें वर्षों पुरानी हैं, नेटवर्क स्लो है, और बिजली कभी भी चली जाती है. सरकार कहती है कि डिजिटलीकरण से पारदर्शिता आई है, लेकिन गांव वालों के लिए ये सिर्फ और सिर्फ 'डिजिटल भटकाव' है.

राशन कार्ड

अदालतों से सड़क तक — संघर्ष जारी है

बिहार के मुज़फ्फरपुर, कटिहार, गोपालगंज और सासाराम जैसे जिलों में कई नागरिक संगठनों ने EPDS और PDS व्यवस्था की खामियों को लेकर जनहित याचिकाएं दायर की हैं. 2023 में पटना हाईकोर्ट ने एक सुनवाई में राज्य सरकार से पूछा था — “क्या डिजिटल सिस्टम में मानवीय दृष्टिकोण की कोई जगह नहीं बची?” कोर्ट की इस टिप्पणी के बावजूद ज़मीनी स्तर पर कोई स्थायी सुधार नहीं हुआ.

कुछ पहल, लेकिन बहुत अधूरी

हालांकि सरकार ने 2024 की शुरुआत में 'डिजिटल सहायक योजना' की घोषणा की — जिसके तहत पंचायत स्तर पर डिजिटल सेवाएं देने के लिए युवा नियुक्त किए गए — लेकिन इनका असर बहुत सीमित है. दरभंगा के हायाघाट में नियुक्त एक डिजिटल मित्र कहते हैं, “हम सिर्फ KYC या आधार अपडेट करते हैं, लेकिन जब सिस्टम में गड़बड़ी आती है, तो हमारा हाथ भी बंधा होता है.”

गांवों में बहुत से बुज़ुर्ग, महिलाएं और दिव्यांग व्यक्ति ऐसे हैं जो आज भी नहीं जानते कि उनके कार्ड क्यों बंद हो गए. उन्हें यह भी नहीं पता कि उनकी गलती क्या थी — या गलती किसी सिस्टम की थी. और जब एक दिन चावल नहीं मिलता, तो वह सिर्फ एक 'भोजन की छूट' नहीं होती — वह व्यवस्था से विश्वास की छूट होती है.

सामाजिक असमानता का एक और चेहरा

यह समस्या सिर्फ तकनीकी नहीं है, यह सामाजिक और वर्गीय भी है. जिनके पास स्मार्टफोन है, जो नेट चला सकते हैं, जो ऑनलाइन फॉर्म भर सकते हैं — वो सिस्टम से जुड़े रह जाते हैं. बाकियों के लिए 'भूख' अब एक स्थायी संभावना बन चुकी है.

सिवान की एक महिला — माया देवी — कहती हैं, “राशन दुकान पर जब मेरा नाम नहीं आता, तो लोग हंसते हैं — जैसे मैं झूठ बोल रही हूं.” उस दिन माया देवी भूखे पेट लौटी थीं, लेकिन उनके चेहरे पर शर्मिंदगी ज़्यादा थी, भूख कम.

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अगर नाम छूटा, तो पेट भूखा

बिहार में डिजिटल राशन व्यवस्था ने कुछ भ्रष्टाचार को रोका हो सकता है, लेकिन इसने कई निर्दोष लोगों को सिस्टम से बाहर कर दिया. उनका दोष सिर्फ इतना था कि वो पढ़े-लिखे नहीं थे, तकनीक नहीं जानते थे, और सवाल नहीं पूछ सकते थे.

जब फुलो देवी ने आखिरी बार चावल मांगा था, तो दुकानदार ने कहा — “सिस्टम में नाम नहीं है मां.”
और उस दिन एक चूल्हा नहीं जला —
एक थाली नहीं सजी —
एक बूढ़ी औरत भूखी सोई —
सिर्फ इसलिए कि डिजिटल इंडिया में उसका नाम 'डिलीट' हो चुका था.