“कब तक रिक्शा खींचकर ज़िंदा रहेंगे?” — बुज़ुर्ग रिक्शा चालकों की ग्राउंड रिपोर्ट

दिल्ली-कोलकाता की सड़कों पर थके हुए बुज़ुर्ग रिक्शा चालक — क्या यही है बुढ़ापे की नियति? पढ़िए बिहार-झारखंड के मजदूरों की असली कहानी डेमोक्रेटिक चरखा की रिपोर्ट में.

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आमिर अब्बास
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पटना जंक्शन के बाहर 74 वर्षीय चंद्रिका यादव एक जले हुए कंबल में लिपटे हुए मिले. उनके पास रिक्शा नहीं, बस एक पुरानी लकड़ी की ट्रॉली थी, जिससे कभी वो बच्चों को स्कूल छोड़ते थे. “हम कोलकाता में पंद्रह साल रहे, फिर दिल्ली, फिर पटना... अब हड्डी टूट गई है, तो बस भीख मांगकर खाते हैं.” गांव? “गांव में कौन पूछता है, बेटा? ज़मीन तीन बीघा थी, दोनों भाई ने हथिया ली. केस किया था, लेकिन हार गए.”

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ये सिर्फ चंद्रिका यादव की कहानी नहीं है. बिहार और झारखंड से हर साल हज़ारों बुज़ुर्ग पुरुष शहरों की ओर जाते हैं — पेट के लिए, बच्चों की फीस के लिए, या महज़ इसलिए कि गांव में उनकी कोई अहमियत नहीं बची. शहर उन्हें काम देता है, चाय की दुकान के पीछे जगह देता है, पर इज़्ज़त नहीं देता.

कोलकाता का ‘रीढ़ झुका हुआ’ समाज

कोलकाता के दमदम, सियालदह और टालीगंज इलाकों में रिक्शा खींचने वाले लगभग 19% मज़दूर 60 साल की उम्र पार कर चुके हैं. इनमें से बहुत से लोग बिहार-झारखंड से आए हैं, जिनके पास पेंशन नहीं है, परिवार नहीं है, और उम्मीद की जगह अब बस थकान है.

रामभजन सिंह, 67 वर्षीय, बिहार के सीतामढ़ी जिले से 1988 में कोलकाता आए थे. वो कहते हैं, “यहां सुबह 4 बजे रिक्शा लेकर निकलते हैं, शाम 7 बजे लौटते हैं. पहले दिन भर में 200-300 कमा लेते थे. अब 100 भी मुश्किल है. लोग अब ओला-उबर चलाते हैं. रिक्शा कौन बैठता है?”

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उनका बेटा दुबई में है, लेकिन रामभजन वहीं फुटपाथ पर रात काटते हैं. “बहू कहती है गांव मत आइए... उनके बच्चे डरते हैं, दाढ़ी वाले बूढ़े को देखकर.”

दिल्ली की सड़कों पर नामहीन ज़िंदगी

कश्मीरी गेट के पास झारखंड के गढ़वा ज़िले के रहने वाले 71 वर्षीय नवल पासवान अपनी थैली में तीन ब्रेड और एक प्लास्टिक की बोतल रखते हैं. वो कहते हैं, “सफाई का काम मिलता है कभी-कभी. अब उम्र हो गई है, तो प्राइवेट ठेकेदार भी नहीं बुलाता.” उनका राशन कार्ड गढ़वा में है, लेकिन दिल्ली में इस्तेमाल नहीं कर सकते. “कोई कहता है पोर्टेबिलिटी कराओ, कोई कहता है आधार लिंक कराओ — हमको तो ये सब समझ में ही नहीं आता.”

सरकार की ‘वन नेशन वन राशन कार्ड’ योजना उनके लिए सिर्फ पोस्टर है. “हमें तो अब भूख पर भरोसा है, सिस्टम पर नहीं.”

"बेटा है, पर साथ नहीं है" — परिवार का बिखराव

दरभंगा के हायाघाट प्रखंड से 1985 में दिल्ली गए बुज़ुर्ग मज़दूर बशीर मियां अब 70 पार कर चुके हैं. वो जामा मस्जिद के पीछे मस्जिद वाली गली में एक चाय वाले की दुकान में बर्तन धोते हैं. उनका बेटा ओखला में रहता है — लेकिन बशीर को साथ नहीं रखता. “बीवी को अच्छा नहीं लगता, कहती है — अब्बू का पेशाब टपकता है, बच्चों पर बुरा असर पड़ेगा.”

बशीर मियां का चेहरा बिना शिकन के है — शायद इसीलिए कि दुख अब भावनाओं को भी मार चुका है. “बेटा बोझ समझता है, अब मैं खुद को भी बोझ मानने लगा हूं.”

पेंशन योजनाओं का सच

राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम (NSAP) के तहत मिलने वाली वृद्धावस्था पेंशन की राशि अभी भी ₹400–₹500 के बीच है. झारखंड में 2023-24 में कुल 36 लाख वृद्ध पेंशनधारी दर्ज हैं, लेकिन NITI Aayog की रिपोर्ट बताती है कि इस पेंशन से सिर्फ 9% वृद्ध ही अपनी मासिक ज़रूरतें पूरी कर पाते हैं.

बिहार में मुख्यमंत्री वृद्धजन पेंशन योजना के तहत 60 साल से ऊपर के सभी व्यक्तियों को ₹400 और 80 पार वालों को ₹500 मिलते हैं — लेकिन इस योजना का कवरेज भी सीमित है. आंकड़ों के अनुसार, हर 5 में से 2 पात्र व्यक्ति योजना से वंचित हैं, विशेषकर वो लोग जो शहरों में रहकर काम कर रहे हैं.

पेंशन के लिए आधार, बैंक खाता, मोबाइल OTP की ज़रूरत — ये शर्तें उन बुज़ुर्गों को सिस्टम से बाहर कर देती हैं, जिनके हाथ कांपते हैं, आंखें नहीं देखतीं, और जिन्हें OTP का मतलब भी नहीं पता.

“मरने से पहले कोई नहीं पूछता, मरने के बाद दो शब्द भी नहीं” — सामाजिक व्यवस्था की असफलता

छपरा के रिविलगंज से आए भगतलाल चौधरी, जो कभी टांगा चलाते थे, अब दिल्ली में लाजपत नगर के पास सड़क किनारे भीख मांगते हैं. जब उनसे पूछा गया — “अगर सरकार आपको गांव लौटाकर बसाने की स्कीम दे, तो आप जाएंगे?”
उन्होंने कहा — “बसने के लिए पेट चाहिए, पेट के लिए खेत चाहिए, खेत के लिए झगड़ा नहीं चाहिए... वो सब अब सपना है. अब मौत ही मकान है.”

उनका कहना था, “अब गांव भी पहले जैसा नहीं रहा. वहां भी अब रिश्ते ऑनलाइन हो गए हैं — और हम ऑफलाइन हैं.”

“हम भी बूढ़े होते हैं, मगर गिनती नहीं होती” — महिला वृद्ध मज़दूरों की अनदेखी

जब रिक्शा खींचने की बात होती है, तो ज़हन में सिर्फ पुरुष आते हैं. लेकिन झारखंड के चाईबासा से आई 62 वर्षीय सोमारी देवी, जो कोलकाता में मेट्रो स्टेशन के पास झाड़ू लगाती हैं, कहती हैं, “हम भी शरीर से टूटे हैं, मगर हम पर तो बात भी नहीं होती.” उनके पति की मौत 2010 में हो गई थी. बेटा गुजरात में है, पर फोन नहीं करता.

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“बुढ़ापा तो मर्दों का भी दर्द है, और औरतों का भी... फर्क बस इतना है कि औरत की थाली तो ज़्यादा पहले सूनी हो जाती है.”
सोमारी देवी को ₹3500 मिलते हैं महीने में — वो भी तब, जब सफाई का काम रोज़ाना मिले. जब नहीं मिलता, तो कूड़ा उठाकर बेचती हैं.

“फुटपाथ पर रात, और सुबह फिर मज़दूरी” — अमृतसर से आयी रिपोर्ट

पंजाब के अमृतसर में बक्सर (बिहार) से आए 66 वर्षीय विनोद साहनी स्टेशन पर फेरी लगाते हैं. उनका दावा है, “हमारे गांव में सरकारी अस्पताल नहीं, स्कूल नहीं, और मनरेगा भी नाम भर का है.” इसलिए उन्होंने सोचा कि शहर चले जाएं.

विनोद अब भी 12 घंटे रोज़ खड़े होकर काम करते हैं — लेकिन 2024 की गर्मियों में एक दिन गर्मी से बेहोश हो गए. अस्पताल ने भर्ती करने से मना कर दिया क्योंकि “कोई पहचान नहीं थी.” जब होश आया तो फिर से फेरी पर लौटे. “यहां हर दिन मौत को टालना होता है.”

एक समाज जो बुज़ुर्गों को ‘उपयोग’ से आंकता है

समाजशास्त्री डॉ. प्रमोद मिश्रा कहते हैं — “हम एक ऐसे समाज में रह रहे हैं जहां किसी व्यक्ति की उपयोगिता उसकी मान्यता बन चुकी है. बुज़ुर्ग अब सम्मान नहीं, सहन किए जाते हैं. विशेषकर वो बुज़ुर्ग जो गरीब हैं और जिनका कोई नहीं है.” उनका मानना है कि वृद्धावस्था में अकेलापन, गरीबी और शहरी बेदिली मिलकर उन्हें मानसिक रूप से भी तोड़ देती है.

PM Modi की Varishth Pension Bima Yojana, या Pradhan Mantri Vaya Vandana योजना जैसे प्रयास मध्यम वर्ग तक सीमित रह गए हैं — गांव के फटेहाल बुज़ुर्गों तक नहीं पहुंचे.

“रिक्शा अब नहीं चलता, पर रोटी तो चाहिए” — असहायता की आख़िरी अवस्था

सासाराम के रामेश्वर सिंह, उम्र 74, पहले दरवाज़े-दरवाज़े दूध पहुंचाते थे. अब दिल्ली के मयूर विहार में फूल बेचते हैं — वो भी तब, जब उनका हाथ कांपता है. उनके चेहरे पर गुस्सा नहीं है, शिकायत नहीं है, बस एक सवाल है — “क्या हम सिर्फ इसलिए ज़िंदा हैं कि मरने का वक्त तय नहीं हुआ?”

उनका शरीर जवाब दे रहा है, आंखें धुंधली हैं, लेकिन भूख अब भी तेज़ है. “रोटी मिल जाए, किसी दीवार के साए में दो घंटे की नींद मिल जाए — यही काफी है अब.”

नीति में बदलाव की ज़रूरत

क्या किया जा सकता है?
यह सवाल अब सिर्फ विचार का नहीं, कर्तव्य का है.

  • केंद्र और राज्य सरकारों को बुज़ुर्ग प्रवासी मज़दूरों के लिए विशेष पहचान कार्ड और पोर्टेबल सामाजिक सुरक्षा प्रणाली विकसित करनी होगी

  • मनरेगा में वृद्धों के लिए कम मेहनत वाले काम और उनके लिए आरक्षित कोटा

  • नगरीय निकायों को 'बुज़ुर्ग सहायता केंद्र' बनाना चाहिए, जहां ये लोग रात गुज़ार सकें

  • पेंशन प्रक्रिया को डिजिटल से ज़्यादा मानवीय बनाना होगा — जैसे ग्राम सभा स्तर पर OTP-मुक्त समाधान

  • NGOs को वृद्ध बेघरों की ज़िम्मेदारी लेने के लिए इंसेंटिव आधारित योजनाओं से जोड़ा जाना चाहिए

अंतिम सवाल — “हम क्यों ज़िंदा हैं?”

“हम क्यों ज़िंदा हैं?”

ये सवाल सिर्फ चित्तन का नहीं है, बल्कि हर उस इंसान का है, जो अपने आखिरी दिन भी काम की तलाश में शहर के ट्रैफिक के बीच रिक्शा चला रहा है. जो गांव का बोझ बन चुका है, शहर में अनदेखा है, और सिस्टम में ‘डेटा पॉइंट’ से ज़्यादा कुछ नहीं.