भारत जैसे प्रगतिशील और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध देश में जहां एक ओर चंद्रयान की सफलताएं गर्व का कारण बनती हैं, वहीं दूसरी ओर डायन प्रथा जैसे कुप्रथाओं के कारण मानवता शर्मसार होती है. ये प्रथा न केवल अंधविश्वास का प्रतीक है, बल्कि समाज में महिलाओं के साथ होने वाले अमानवीय अत्याचार का भी जीवंत उदाहरण है.
डायन प्रथा की पृष्ठभूमि और उसका क्रूर चेहरा
डायन प्रथा सदियों पुरानी उस सोच की उपज है जिसमें महिलाओं को कमजोर और असहाय मानकर, उन्हें समाज में होने वाली हर समस्या का कारण बताया जाता है. इस प्रथा के अनुसार, किसी बीमारी, मृत्यु, या किसी अनहोनी घटना के पीछे एक 'डायन' महिला का हाथ होता है. और फिर शुरू होता है उस महिला पर अपमान, यातना, और हत्या का सिलसिला.
बिहार के अलग अलग जिलों का हाल
27 सितंबर के दिन बिहार के गया जिले की घटना सामने आई जिसमें 55 वर्षीय प्यारी देवी की निर्मम हत्या कर दी गई, इसका भयानक उदाहरण है. उनका गला दबाया गया, पीटा गया और अंत में उनकी हत्या कर दी गई. यह सब केवल इसलिए हुआ क्योंकि गांव के कुछ लोगों ने उन्हें 'डायन' घोषित कर दिया था.
जब हमने गया के पीड़ित के परिवारजनों से बात की तो उन्होंने बताया कि “ अंधविश्वास के वजह से उनकी जान गई है. बिहार में आज भी ये अंधविश्वास फैला हुआ है जिसके वजह से कई जानें चली जाती हैं. मैंने अपने घर का एक इंसान खोया है. लोगों को ये समझना ज़रूरी है कि ये अंधविश्वास है. जब वो घटना घटित हुई , मैं सोच भी नहीं सकता की ऐसा भी कुछ हो सकता था. वो भगवान पर आस्था रखती थी लेकिन लोगों को गलतफहमी हुई और अंधविश्वास के कारण उनकी मौत हुई.”
इतना ही नहीं, औरंगाबाद में एक दंपति की कुल्हाड़ी से काटकर हत्या कर दी गई. उनके परिवार वालों ने स्पष्ट रूप से बताया कि उनके माता-पिता को डायन और ओझा कहकर निर्दोष रूप से मारा गया.
डायन प्रथा और अंधविश्वास का जाल
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की 2021 की रिपोर्ट से पता चलता है कि डायन प्रथा के चलते कई निर्दोष महिलाओं की हत्याएं हुईं. 2020 में देश में डायन बताकर हत्या के 88 मामले दर्ज हुए. इन हत्याओं के सबसे ज़्यादा मामले मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा, और बिहार में दर्ज हुए. फ़िडेरिसी के अनुसार, संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में 1987 और 2003 के बीच 25000 से अधिक लोग डायन-हत्या के शिकार हुए. वास्तविक आंकड़े इससे भी अधिक हो सकते हैं क्योंकि कई मामलों की रिपोर्ट दर्ज ही नहीं होती.
महिलाओं को डायन कहकर सताने का कारण केवल अंधविश्वास नहीं है. यह समाज में व्याप्त पितृसत्तात्मक सोच और महिलाओं को नियंत्रित करने की मानसिकता का भी नतीजा है. ज्यादातर मामलों में बूढ़ी, विधवा या अकेली महिलाओं को निशाना बनाया जाता है. उनके पास विरोध करने की शक्ति नहीं होती, और समाज उनकी आवाज दबा देता है.
अंधविश्वास की जड़ें और इसका समाधान
डायन प्रथा का आधार अज्ञानता और अशिक्षा है. ग्रामीण इलाकों में लोग अब भी बीमारियों और प्राकृतिक आपदाओं को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझने के बजाय अंधविश्वास से जोड़ते हैं. किसी की मृत्यु या बीमारी के लिए किसी महिला को जिम्मेदार ठहराना आसान होता है, और फिर उसे 'डायन' कहकर मार देना इन समस्याओं का हल मान लिया जाता है.
बिहार इस प्रथा के खिलाफ़ कानून बनाने वाला पहला राज्य था. बिहार सरकार ने 1999 में डायन प्रथा निवारण अधिनियम बनाया. इसके तहत किसी को डायन घोषित करने पर सजा और जुर्माने का प्रावधान है. लेकिन कानून लागू होने के बावजूद यह प्रथा ख़त्म नहीं हुई. कारण साफ़ है- समाज की सोच बदलने के लिए केवल कानून काफी नहीं है. लेकिन सरकार के द्वारा लाई गई अधिनियम के बावजूद डायन कहकर मौतों के संख्या में कमी नहीं आई है. NCRB के आंकड़ों के अनुसार बिहार में 2019 में 15 मौतें हुई हैं .
बिहार के नालंदा में एक महिला को डायन समझकर लोगों ने पीटा
6 नवंबर 2024 को बिहार के नालंदा में एक महिला को डायन समझकर लोगों ने पीट दिया. जानकारी के मुताबिक, एक बच्चे की मौत हो गई थी, जिस पर लोगों को शक था कि बच्चे की मौत की जिम्मेदार महिला है. जिसे पर लोग डायन होने का आरोप लगाते थे, इसी दौरान नाराज लोगों ने महिला की जमकर पिटाई कर दी. लोगों का आरोप है कि जिस सांप के काटने से बच्चे की मौत हुई उसे महिला ने ही भेजा था. मामला नालंदा के हरनौत के चेरो ओपी थाना क्षेत्र के नेमचंदबाग गांव का है. जहां एक महिला की लोगों ने जमकर पिटाई कर दी. लोगों का आरोप है कि महिला एक बच्चे की मौत की जिम्मेदार है. इसी वजह से लोगों ने सबूजा देवी नाम की महिला की जमकर पिटाई कर दी. वहीं अब पुलिस पूरे मामले में जांच कर रही है.
डायन प्रथा के खिलाफ़ जागरूकता की ज़रूरत
डायन प्रथा से लड़ने के लिए सबसे बड़ी जरूरत है जागरूकता फैलाने की. महिलाओं को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करना और उन्हें शिक्षा से जोड़ना इस समस्या को जड़ से खत्म कर सकता है. ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाना भी जरूरी है ताकि लोग बीमारियों को डायन प्रथा से न जोड़ें.
सरकार को इस दिशा में ठोस कदम उठाने चाहिए. बिहार सरकार ने डायन प्रथा के खिलाफ कानून तो बनाया, लेकिन इसे प्रभावी तरीके से लागू करने के लिए गांव-गांव तक जागरूकता अभियान चलाने की जरूरत है. पंचायतों और स्थानीय संगठनों को इस अभियान का हिस्सा बनाना चाहिए.
समाज में आज भी डायन मानने वाले लोग
बिहार के सासाराम के रहने वाले चंद्रमा विश्वकर्मा से जब हमने तंत्र- मंत्र और डायन पर बात की तो उन्होंने बताया कि "मेरे हाथ में एक दिन अचानक बिजली के करेंट जैसा झटका महसूस हुआ, हाथ सुन्न होने के साथ काफ़ी भारी हो गया. सात साल इलाज कराए, लेकिन ठीक नहीं हुए. लेकिन मेरी एक मामी थी जिसने दुआ (तंत्र-मंत्र) किया और मैं ठीक हो गया मैं कैसे मान लूं कि सब इलाज दवाई से ही होता है. मैं तो मानता हूं कि भूत होता है.”
पीड़ित महिलाओं के लिए न्याय और पुनर्वास
जो महिलाएं डायन प्रथा का शिकार होती हैं, उनके लिए न्याय और पुनर्वास की व्यवस्था होनी चाहिए. पीड़ित महिलाओं को कानूनी सहायता, आर्थिक मदद, और मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान की जानी चाहिए.
गया में प्यारी देवी की हत्या और नालंदा में सबूजा देवी की पिटाई जैसी घटनाएं दिखाती हैं कि पीड़ित महिलाओं की सुरक्षा के लिए कोई ठोस व्यवस्था नहीं है. अगर इन घटनाओं के दोषियों को सख्त सजा दी जाए, तो समाज को यह संदेश जाएगा कि इस तरह के अत्याचार बर्दाश्त नहीं किए जाएंगे.
समाज का दायित्व
डायन प्रथा जैसी अमानवीय प्रथाओं को समाप्त करने के लिए केवल सरकार नहीं, समाज का हर वर्ग जिम्मेदार है. हमें इस अंधविश्वास को ख़त्म करने के लिए एकजुट होना होगा. शिक्षकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, और धार्मिक नेताओं को इस दिशा में काम करना चाहिए. हमें यह समझना होगा कि महिलाओं को डायन कहकर मारना केवल एक अपराध नहीं, बल्कि मानवता के खिलाफ अपराध है.
डायन प्रथा केवल एक कुप्रथा नहीं, बल्कि एक ऐसी सामाजिक बीमारी है जो हमारे समाज को अंदर से खोखला कर रही है. यह न केवल महिलाओं के अधिकारों का हनन है, बल्कि समाज के विकास में भी बाधा है.
समाज को इस प्रथा के खिलाफ़ जागरूक करना, महिलाओं को सशक्त बनाना, और अंधविश्वास को ख़त्म करना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए. हमें समझना होगा कि महिलाओं को सताने के बजाय, उन्हें शिक्षित और सशक्त बनाकर समाज को आगे ले जाया जा सकता है.
प्यारी देवी, पनवा देवी, और सबूजा देवी जैसे अनगिनत नाम हमें याद दिलाते हैं कि इस अंधविश्वास की चपेट में कितनी निर्दोष महिलाएं अपनी जान गंवा चुकी हैं. अब वक्त आ गया है कि हम इस प्रथा को हमेशा के लिए खत्म करें और अपने समाज को अंधविश्वास से मुक्त करें.