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क्या गरीबी और लाचारी किसी की ज़िंदगी की कीमत तय कर सकती है?
मैनुअल स्कैवेंजिंग, यानी हाथ से मैला ढोने की प्रथा, कानूनी रूप से 2013 में प्रतिबंधित कर दी गई थी, लेकिन क्या यह सच में बंद हुई? सरकारी कागजों में शायद हां, लेकिन ज़मीनी हकीकत इससे बिल्कुल उलट है. भारत में जब हम विकास, डिजिटल इंडिया, आत्मनिर्भर भारत जैसी बात करते हैं, तो कहीं न कहीं एक ऐसा वर्ग भी है जो आज भी अंधकार में जीने को मजबूर है. वे लोग जो अपनी रोटी के लिए सीवर और सेप्टिक टैंकों में उतरते हैं, जहरीली गैसों में दम घुटने से मर जाते हैं, और उनके पीछे रोती-बिलखती उनकी बेबस पत्नियां और अनाथ होते बच्चे रह जाते हैं.
कानून बने, लेकिन अमल नहीं हुआ
1993 में सरकार ने हाथ से मैला ढोने और सीवर सफाई की इस अमानवीय प्रथा को खत्म करने का आदेश दिया था. फिर 2013 में एक और सख्त कानून आया – "मैनुअल स्कैवेंजर्स के रूप में रोजगार का निषेध और उनका पुनर्वास अधिनियम, 2013". इस कानून के तहत, किसी भी व्यक्ति को सीवर या सेप्टिक टैंक की सफाई के लिए हाथ से उतरने की अनुमति नहीं थी. मशीनों के इस्तेमाल का निर्देश दिया गया था. फिर भी, आंकड़े बताते हैं कि 2017 से 2023 तक, कुल 339 लोगों की मौत सीवर और सेप्टिक टैंक साफ़ करते हुए हुई. यह साबित करता है कि यह कानून सिर्फ़ कागजों पर बना रहा, लेकिन ज़मीनी स्तर पर सरकारें इसे लागू करने में विफल रहीं.
मौतों का सिलसिला जारी, कोई सुनने वाला नहीं
2023 में बिहार के चार मजदूरों—राजेश, कमलेश, सहनवाज और दीपक—को सूरत में एक कपड़ा फैक्ट्री के सेप्टिक टैंक की सफाई का काम सौंपा गया था. उन्हें मशीनों से सफाई करनी थी, लेकिन मोटर ख़राब था. . मजबूरी में एक मज़दूर को नीचे उतरना पड़ा, लेकिन जब वह बाहर नहीं आया, तो बाकी तीन भी उसे बचाने गए और दम घुटने से मर गए. यह सिर्फ़ एक घटना नहीं, बल्कि सैकड़ों ऐसी घटनाओं का हिस्सा है जो हर साल इस देश में घटती हैं. 2025 में, बिहार के एएन कॉलेज के पास नमामि गंगे परियोजना में सीवरेज निर्माण के दौरान 51 वर्षीय रेहान अली की जान चली गई. मजदूरों ने बताया कि वहां कोई एंबुलेंस नहीं थी, कोई सुरक्षा अधिकारी नहीं था. आखिर क्यों? क्या मजदूरों की ज़िंदगी इतनी सस्ती है कि उनके लिए बुनियादी सुरक्षा उपाय भी नहीं किए जाते?
पटना के स्लम्स में रहने वाले पंकज बताते हैं कि “ मैनुअल स्कैवेंजिंग कागज़ पर तो ख़त्म हो गया है लेकिन ज़मीनी स्तर पर अभी तक ख़त्म नहीं हुआ है. आज भी हम लोगों को हाथ से है मैल साफ़ करना पड़ता है और चैंबर में उतरना पड़ता है. साथ ही साथ किसी भी तरह का सुरक्षा उपकरण भी मुहैया नहीं कराई जाती है. पैसों के समस्या के कारण हमें ये सब करना पड़ता है.”
2023 में समस्तीपुर और दानापुर में भी ऐसी ही घटनाएं हुईं. दानापुर में 35 वर्षीय किशन राम की सेप्टिक टैंक में सफाई करते समय मौत हो गई. वह अपने परिवार का इकलौता कमाने वाला था. उसकी मौत के बाद उसकी पत्नी और बच्चे बेसहारा हो गए. सरकारें कानून बनाती हैं, लेकिन जब गरीब की जान जाती है, तो उसके परिवार को न्याय कौन दिलाएगा? रूबी देवी किशन राम की पत्नी थी. हमने जब उनसे बात की तो उन्होंने बताया कि “ काम करने के लिए उनको ले जाया गया उसके बाद कुछ देर बाद कुछ लोग आकर कहते हैं की आपके पति 2 घंटा पहले चैंबर में गए थे अभी तक नहीं निकले हैं. पहले तो उनकी लाश नहीं मिल रही थी फिर दूसरे चैंबर में से लोहे के सीकड़ से उनको निकाला गया.”
सरकारी योजनाओं की असलियत
केंद्र सरकार ने "मैनुअल स्कैवेंजिंग निषेध और पुनर्वास अधिनियम, 2013" के तहत यह तय किया था कि जिन लोगों की पहचान मैला ढोने वालों के रूप में होगी, उन्हें पुनर्वास दिया जाएगा. उन्हें कौशल विकास प्रशिक्षण, वजीफा, और रियायती दरों पर ऋण दिया जाएगा ताकि वे कोई दूसरा काम कर सकें. लेकिन असलियत यह है कि लाखों की संख्या में लोग आज भी इस पेशे में फंसे हुए हैं, क्योंकि सरकारें इन्हें मशीनें देने के बजाय, उनकी मौत के बाद मुआवजा देकर पल्ला झाड़ लेती हैं.
मजदूरों की मौत का जिम्मेदार कौन?
हर बार जब कोई मजदूर सीवर में गिरकर या जहरीली गैस से मरता है, तो प्रशासन कुछ दिनों के लिए जाग जाता है. कुछ मुआवजे की घोषणा होती है, कुछ बयान दिए जाते हैं, लेकिन फिर सब भूल जाते हैं. अगर सीवर सफाई के लिए मशीनों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए, तो मजदूरों को टैंक में क्यों उतारा जाता है? अगर यह गैर-कानूनी है, तो इस अपराध के लिए अब तक कितने ठेकेदारों और अधिकारियों को सजा मिली? जवाब मिलेगा—बहुत कम या शायद कोई नहीं. सीवर के सफ़ाई के लिए मशीनों पर सवाल करने पर राकेश (बदला हुआ नाम) बताते हैं कि “ सीवर के सफ़ाई के लिए सुरक्षा उपकरण तक नहीं मिलता है मशीन तो दूर की बात है. उपकरण न होने के कारण कई बार सांस लेने में समस्या होती है यहां तक की गंदा पानी कई बार पेट में चला जाता है और अनेक बीमारियां होती है लेकिन सरकार हम पर ध्यान ही नहीं देती.”
अब और मौतें नहीं, इंसाफ चाहिए
मैनुअल स्कैवेंजिंग सिर्फ़ गरीबी या लाचारी का मामला नहीं है, यह समाज की क्रूरता और प्रशासन की असंवेदनशीलता का प्रमाण है. जब तक इस देश में एक भी इंसान सीवर में उतरने को मजबूर होगा, तब तक यह दावा करना कि भारत आधुनिक हो गया है, एक झूठ से ज्यादा कुछ नहीं. क्या सरकारें जागेंगी? क्या समाज मज़दूरों की मौत पर अब भी चुप रहेगा? यह सवाल सिर्फ़ मैनुअल स्कैवेंजर्स का नहीं, बल्कि पूरे देश के सम्मान और संवेदनशीलता का है. अब समय आ गया है कि हम चुप न बैठें, बल्कि इंसाफ के लिए आवाज उठाएं. क्योंकि हर इंसान को जीने का हक है, फिर चाहे वह किसी भी वर्ग, जाति या पेशे से हो.