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कहते हैं, हर सभ्यता की शुरुआत मिट्टी से हुई है. मिट्टी ही वह आधार है जिसने हमें घर, चूल्हा और सभ्यता का निर्माण करना सिखाया. इसी मिट्टी से अपने हुनर और मेहनत से कला का रूप देने वाले कुम्हार समाज ने हमारे जीवन में अनगिनत छापें छोड़ी हैं. लेकिन आज वही समाज उपेक्षा, असमानता और संघर्ष के अंधकार में गुम होता जा रहा है. बिहार के कुम्हार समाज की यह कहानी हर उस दिल को झकझोरती है जो विकास के नारे लगाता है, लेकिन उन हाथों की मेहनत को अनदेखा करता है जो मिट्टी में से सपने गढ़ते हैं.
पटना के रहने वाले मुकेश जो पेशे से कुम्हार हैं. उनके घर में उनकी पत्नी और 2 बच्चे हैं. मुकेश मिट्टी के बर्तन बनाते हैं और उन्हें खुद बेचते हैं. उनकी पत्नी भी उनकी मदद बर्तन बनाने में करती हैं. जब हमने उनसे बात की तो उन्होंने बताया कि "पहले के समय के हिसाब से अभी देखा जाए तो बर्तन काफ़ी कम बिकते हैं. हर दिन मुश्किल से 1- 2 बर्तन ही बिकता है कभी तो वो भी नहीं. कभी कभी तो घर पर खाने के लिए लाले पड़ जाते हैं. हमारी आर्थिक स्थिति बद से बदतर होते जा रही है."
कुम्हार: सभ्यता के पहले कारीगर
माना जाता है कि कुम्हार सबसे पहले उस समुदाय में से हैं, जिन्होंने धरती की मिट्टी की अहमियत को पहचाना और चाक का आविष्कार किया. मिट्टी के बर्तन, दीये, घड़े और मूर्तियां बनाकर उन्होंने हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी को सरल बनाया. शादी-विवाह की परंपराओं से लेकर त्योहारों तक, कुम्हार के बनाए बर्तन हर जगह अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं. लेकिन आज यह परंपरागत कला आधुनिकता की चकाचौंध और उपेक्षा के कारण खोती जा रही है.
संघर्ष की कहानी: कुम्हारों की उपेक्षित ज़िंदगी
वर्तमान समय में सामाजिक प्रतिष्ठा भी संख्या से जुड़ी हुई है. 13 करोड़ की आबादी वाले राज्य बिहार में कुम्हार जाति के लोगों की संख्या मात्र 1,834,418 है, जो कि हाल ही में बिहार सरकार द्वारा जारी जाति आधारित जनगणना 2022 की रिपोर्ट के अनुसार है. कुल जनसंख्या में इनकी हिस्सेदारी 1.40% है. राजनीतिक हस्तक्षेप की बात करें तो यह संख्या शून्य महत्व रखती है.
लेकिन कुम्हार प्रजापति समन्वय समिति का कहना है कि वास्तविक संख्या 90 लाख के करीब है. बावजूद इसके, यह समुदाय आज सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से सबसे अधिक हाशिए पर है.
गया के फतेहपुर गांव के कुम्हारों से जब हमने बात की तो उन्होंने बताया कि “सरकार तो हम पर शुरू से हो ध्यान नहीं दे रहीं है. हमारा काम मिट्टी के बर्तन बनाना है और आज के समय में ये बर्तन कोई नहीं खरीदता. हमारी आर्थिक स्थिति ख़राब है और आर्थिक स्थिति ख़राब होने के कारण हम अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा भी प्रदान नहीं कर पाते. सरकार पहले मिट्टी देती भी थी परंतु अब मिट्टी भी नहीं मिलता है. हमारा जीवन मिट्टी में है लेकिन सरकार हमारे सपनों को ही मिट्टी में मिला रही है.”
सरकारी मदद: केवल कागजों में सीमित
कुम्हार समाज की मुख्य समस्याओं में आर्थिक स्थिति, शिक्षा की कमी और सरकार का उपेक्षित रवैया है. बिहार में माटी कला बोर्ड का गठन न होना एक बड़ी समस्या है. झारखंड और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में जहां इस बोर्ड के माध्यम से कुम्हारों को आर्थिक मदद और प्रशिक्षण दिया जाता है, वहीं बिहार में कुम्हारों को ऐसी कोई सुविधा नहीं मिलती.
मुकेश से जब हमने सरकारी मदद के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि “ ज़मीनी स्तर पर काम करने वाले कुम्हार को किसी भी तरह की मदद नहीं मिलती है. पहले तो मिट्टी भी आसानी से मिल जाता था लेकिन अब मिट्टी मिलना भी मुश्किल होता जा रहा है. हमें सरकार के तरफ़ से कोई मदद नहीं मिलती. इतिहास उठा कर देख लीजिए हमारा विकास आज तक नहीं हुआ है. दूसरों राज्यों में कुम्हारों की स्थिति पहले के मुकाबले अच्छी हुई है लेकिन बिहार में ऐसा कुछ नहीं है. बिहार में माटी कला बोर्ड भी नहीं है जिसके कारण हमें मदद नहीं मिल पाती है.”
आरक्षण की व्यवस्था भी निराली
आरक्षण की व्यवस्था के अंतर्गत कुम्हार जाति को अन्य पिछड़ा वर्ग और अनुसूचित जाति के अंतर्गत वगीर्कृत किया गया है. पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र, उड़ीसा, बंगाल, उत्तर प्रदेश, बिहार और गुजरात में इन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के रूप में वगीर्कृत किया गया है. मध्य प्रदेश के छतरपुर, दतिया, पन्ना, सतना, टीकमगढ़, सीधी और शहडोल जिलों में इन्हें अनुसूचित जाति के रूप में वगीर्कृत किया गया है; लेकिन राज्य के अन्य जिलों में इन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) में सूचीबद्ध किया गया है.
संस्कृति और परंपरा: एक खोती हुई धरोहर
कुम्हार समाज सिर्फ बर्तन बनाने वाला नहीं है, बल्कि वह हमारी संस्कृति का संरक्षक भी है. शादी-ब्याह में इस्तेमाल होने वाले कलश, दीये और मिट्टी की मूर्तियां, यह सब केवल उनके हुनर से संभव होता है. लेकिन आधुनिकता और प्लास्टिक के उपयोग ने इनकी परंपराओं को धीरे-धीरे खत्म कर दिया है.
फतेहपुर के कुम्हार बताते हैं कि पहले मिट्टी के दीये दिवाली की रौनक बढ़ाते थे. आज बाजार में प्लास्टिक और चीनी सामानों ने उनकी जगह ले ली है. “हमारी कला मर रही है. हमें कोई विकल्प नहीं दिया गया. न तो हमारी मदद के लिए सरकार आई और न ही समाज”, एक बुजुर्ग कुम्हार ने अफसोस जताया.
सुधार की उम्मीद
कुम्हार समाज की समस्याओं का समाधान केवल सरकारी योजनाओं और माटी कला बोर्ड के गठन से ही नहीं होगा. इसके लिए हमें उनकी कला और परंपराओं को पुनर्जीवित करने की जरूरत है. सामाजिक भागीदारी, जागरूकता और प्रोत्साहन से ही इस समाज को मुख्यधारा में लाया जा सकता है. सरकार को चाहिए कि कुम्हार समाज को अनुसूचित जाति में शामिल करे और उनकी शिक्षा और आर्थिक विकास के लिए ठोस कदम उठाए. साथ ही, माटी कला बोर्ड का गठन कर उनके उत्पादों के लिए बाजार उपलब्ध कराए.
बिहार कुम्हार प्रजापति समन्वय समिति के कोषाध्यक्ष कवींद्र पाल प्रजापति से जब हमने बात की तो उन्होंने बताया कि “ धरना प्रदर्शन बिहार के कई जिलों में चालू है. सरकार हम पर बिल्कुल ध्यान नहीं दे रही. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक हम 18 लाख हैं लेकिन हकीकत में हम 90 लाख है. और ये मैं दावे के साथ कह सकता हूं. सरकार के अनदेखी के कारण आज हमारी आर्थिक और शैक्षणिक स्तिथि काफ़ी लाचार है जिस कारणवश हम विकासदर काफ़ी कम है. सरकार माटी कला बोर्ड बनाए और भी जो हमारी मांगे हैं अगर उसे पूरा नहीं करेगी तो हम विशाल प्रदर्शन करेंगे.”
बिहार के मुजफ्फरपुर और गया जिले के गांधी मैदान स्थित धरना स्थल पर शुक्रवार को पांच सूत्री मांगों को लेकर बिहार कुम्हार प्रजापति समन्वय समिति ने धरना प्रदर्शन किया. धरना प्रदर्शन को संबोधित करते हुए जिलाध्यक्ष अजय ने कहा कि पांच सूत्री मांगों को लेकर पूरे बिहार के प्रत्येक जिला मुख्यालय में धरना-प्रदर्शन का आयोजन किया गया है.
उन्होंने कहा कि कुम्हार समाज के प्रति सरकार का रवैया शून्य है. सरकार का कोई रिस्पांस नहीं मिल रहा है, यहां कोई सुनने वाला भी नहीं है. बिहार सरकार कुम्हार जाति को तवज्जो नहीं दे रही. लेकिन, इस बार उनको चुनाव में कड़ा जवाब मिल जाएगा.
क्या हैं प्रमुख मांगे?
कुम्हारों को अनुसूचित जाति में शामिल करने, माटी कला बोर्ड की स्थापना करने, जातिगत जनगणना के अनुसार कुम्हारों को राजनीतिक भागीदारी सुनिश्चित कराने, अति पिछड़ा न्याय उत्पीड़न कानून निवारण आयोग का गठन करने एवं डॉ रत्नप्पा कुम्हार की आदमकद प्रतिमा संग्रहालय पटना में स्थापित करने की मांग की है.
कुम्हार समाज केवल मिट्टी के बर्तन बनाने वाला नहीं है, बल्कि हमारी सभ्यता का एक अहम हिस्सा है. उनकी कला, उनके संघर्ष और उनकी परंपराओं को सहेजना हमारा दायित्व है. यह समाज आज उपेक्षा का शिकार है, लेकिन अगर सही कदम उठाए जाएं, तो यह समाज फिर से अपने पैरों पर खड़ा हो सकता है.