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राजनीति में महिलायें
दुनिया की आधी आबादी में अपनी भागीदारी निभाने वाली महिलाएं क्या समाज में हो रहे बदलावों में भी अपनी हिस्सेदारी निभा पाती हैं? क्या पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं को वह अवसर मिल रहे हैं जहां वह अपने विवेक का इस्तेमाल कर देश-दुनिया को आगे बढ़ाने में अपना योगदान दे सके.
हालांकि आजादी से पहले और बाद के परिदृश्य महिलाओं के लिए ज़्यादा नहीं बदले. आज़ादी के संग्राम में भाग लेनी वाली ज्यादातर महिलाओं को समाज और परिवार की अभेलना झेलनी पड़ी थी. आज भी समाज महिलाओं को सीमित अधिकार देकर उन्हें आगे बढ़ने से रोकता है.
आज़ादी की लड़ाई में समान रूप से भागीदारी निभाने वाली महिलाओं को क्या आज़ादी के बाद राजनीतिक रूप से हिस्सेदारी मिली? आजाद भारत में 14 मंत्रियों के साथ पहली कैबिनेट का गठन किया गया जिसमें मात्र एक महिला राजकुमारी अमृता कौर को स्वास्थ्य मंत्रालय की कमान सौंपी गयीं. हालांकि देश को 19 सालों बाद 1966 में पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी मिली. राजनीतिक गलियारों में उनके लिए एक आम संबोधन ‘गूंगी गुड़िया’ प्रचलित था जिसे आगे चलकर इंदिरा ने अपने दमदार फ़ैसलों से तोड़ा.
इंदिरा गांधी के पहले कार्यकाल में छह महिला मंत्री शामिल थी. वहीं 1967 में चार महिला मंत्रियों को कैबिनेट में शामिल किया गया था. इंदिरा गांधी के तीसरे कार्यकाल में पीएम इंदिरा समेत चार महिलाएं शामिल थीं. वहीं सातवी लोकसभा 1980 में जब इंदिरा गांधी जीतकर आई तो तीन महिला मंत्रियों को शामिल किया गया था.
हालांकि लगातार 10 सालों तक सत्ता की कमान महिलाओं के हाथ में रहने के बाद भी हमारे देश में दुबारा किसी महिला को पीएम बनने का अवसर नहीं मिला.
राजनीतिक भागीदारी में महिलाओं की रफ़्तार धीमी
भारत के राजनीतिक परिदृश्य में महिलाओं की भागीधारी काफ़ी कम रही है. पहली कैबिनेट यानि 1947-52 में केवल एक महिला मंत्री रही थीं. वहीं 10 सालों बाद यानि 1957-62 में बने कैबिनेट में भी मात्र एक महिला मंत्री को जगह दिया गया.
इसके बाद बने हर कैबिनेट में महिलाओं की संख्या कमोबेश 4 से 5 के बीच रहीं. पहली बार राजीव गांधी के कार्यकाल (1984-89) में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी. राजीव के कैबिनेट में पहली बार 12 महिलाओं को मंत्री बनाया गया था.
पीवी नरसिम्हा राव के कार्यकाल (1991-96) में 12 महिलाओं को कैबिनेट ने जगह मिली थी. वहीं यूपीए-2 के शासनकाल में सबसे ज़्यादा 15 महिलाओं को मंत्रिमंडल में शामिल किया गया था. अभी हालिया मंत्रिमंडल में 11 महिलाओं को शामिल किया गया है जिसमें से 7 महिलाएं कैबिनेट में शामिल हैं.
अभी हाल ही में नरेंद्र मोदी की सरकार ने महिला आरक्षण बिल को पारित किया है. पिछले 27 सालों से यह बिल लोकसभा में अटका हुआ था.
12 सितंबर 1996 में एचडी देवगौड़ा की सरकार ने पहली बार महिला आरक्षण विधेयक संसद के पटल पर रखा था. इस बिल में महिलाओं को लोकसभा और विधान सभाओं में 33% आरक्षण दिए जाने का प्रावधान था.
हालांकि ग्रामीण स्तर पर महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी बढ़ाने के लिए पंचायतों में एक-तिहाई आरक्षण 1993 में ही दिया गया था. वहीं 2009 में इस एक-तिहाई भागीदारी को बढाकर 50% करने के प्रस्ताव को मंजूरी दी गयी थी. संविधान के अनुच्छेद 243 (डी) में संशोधन करने के लिए एक विधेयक लाने का फ़ैसला भी किया गया.
हालांकि पंचायतों में महिलाओं को 50% आरक्षण देने की शुरुआत कई राज्यों ने पहले ही शुरू कर दी थी. साल 2006 से पंचायती राज चुनावों में महिलाओं को आधी सीटों पर आरक्षण देने वाला पहला राज्य बिहार है. बिहार के आलावा झारखंड, महाराष्ट्र, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और हिमाचल में महिलाओं को पहले ही 50% आरक्षण दिया जा रहा है.
‘मुखिया पति’ का पद कब होगा समाप्त
बिहार में पंचायती चुनावों में आरक्षण के बाद साल 2007 से शहरी स्थानीय निकायों में भी महिलाओं को 50% आरक्षण दिया जा रहा है. लेकिन क्या महिलाएं इस राजनीतिक अवसर का लाभ उठाने में सफ़ल रही हैं. आज भी महिला आरक्षित सीटों से जीतकर मुखिया, वार्ड पार्षद या जिला पार्षद बनने वाली महिलाओं के पद का लाभ पुरुष प्रतिनिधि उठाते हैं. पुरुष प्रतिनिधि खुद को ‘मुखिया प्रतिनिधि’ और ‘मुखिया पति’ के रूप में गर्व से संबोधित करते हैं. मुखिया या पार्षद बनने वाली महिला केवल ‘दस्तखत’ या ‘ठप्पा’ लगाने भर की भागीदार बनकर रह जाती हैं.
हालांकि 2006 के पंचायती चुनाव के बाद नीतीश कुमार ने कहा था “थोड़ा रुकिये. बदलाव आपको दिखेगा. अभी हमारे यहां दो एमपी होते हैं. एक मुखिया पति, दूसरा मेंबर ऑफ पार्लियामेंट. लेकिन, समय के साथ महिलाएं जब अपने अधिकार और रुतबे से वाकिफ होंगी तो ये “मुखियापति” यानी एमपी साहब किनारे कर दिए जाएंगे.”
महिलाओं जनप्रतिनिधियों के ‘रबर स्टाम्प’(rubber stamps) बनने के आखिर कौन से कारण है? क्या शैक्षणिक पिछड़ापन या पारिवारिक बंधन उन्हें आगे बढ़कर फैसला लेने से रोकता है? हालांकि अगर शैक्षणिक बाधा राजनीतिक सफ़लता में बाधा होती, तब देश के बड़े-बड़े पुरुष नेता जिनके पास शैक्षणिक डिग्री नहीं है लेकिन उनकी गिनती कद्दावर नेताओं में की जाती है.
ज़्यादा पीछे ना जाकर अगर हम हालिया परिदृश्य को देखे तो बिहार के उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव, तेजप्रताप यादव, साधु यादव, यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उनके जैसे अनेक नेता जिनकी राजनीतिक सफ़लता किसी डिग्री की मोहताज़ नहीं है. जब शैक्षणिक योग्यता पुरुषों को राजनीति में आगे बढ़ने से नहीं रोक सकती तब यह महिलाओं के लिए बाधा कैसे हो सकती है?
गया जिले के बेलागंज जिले से साल 2021 में जिला पार्षद का चुनाव लड़ने वाली सीमा कुमारी (बदला हुआ नाम) बताती हैं कैसे राजनीतिक अनिच्छा के बावजूद उन्होंने जिला पार्षद का चुनाव लड़ा. सीमा बताती हैं “मुझे राजनीति की ना तो कोई समझ है और ना ही मैं इस क्षेत्र में जाने की इच्छुक हूं. लेकिन 2021 में हुए स्थानीय निकाय के चुनाव में हमारा क्षेत्र महिला आरक्षित(women reservation) था, जिसके कारण मेरे पति ने मुझे खड़ा किया. ऐसा नहीं है कि मैं अकेली ऐसी प्रत्यासी थी जो राजनीतिक अनिच्छा के बावजूद चुनाव में थी. ज़्यादातर महिलाएं जो उस समय चुनावी मैदान में थी उनके पति की पहचान ही उनकी पहचान थी.”
सीमा पोस्ट ग्रेजुएट होने के साथ-साथ एक स्कूल में शिक्षिका भी हैं. शैक्षणिक संबलता के बावजूद फ़ैसलों में पुरुषों की प्रधानता के प्रश्न पर सीमा कहती हैं “महिला उच्च शिक्षित हो या अनपढ़, अक्सर उनके फैसले परिवार के इर्द-गिर्द सिमित हो जाते हैं. क्योंकि लड़कियों की परवरिश ऐसी होती है जहां परिवार की आकांक्षा ही उनकी इच्छा बन जाती है. पुरुषों की यही आकांक्षा महिला आरक्षित स्थानों पर भी हावी होते हैं.”
बिहार की एकमात्र महिला मुख्यमंत्री रही राबड़ी देवी का कार्यकाल भी इस ‘पितृसत्तातमक’ आकांक्षा से अछूता नहीं था. साल 1997 में चारा घोटाला में फंसने के कारण लालू यादव को बिहार के मुख्यमंत्री के पद से हटना पड़ा. जिसके बाद उन्होंने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को बिहार का मुख्यमंत्री बनाया. बिहार की मुख्यमंत्री रहते हुए उन पर दफ्तर ना जाने और विधानसभा में सवालों का जवाब ना देने का आरोप भी लगा.
राबड़ी देवी तीन बार बिहार की मुख्यमंत्री बनी लेकिन उनके नाम की पहचान हमेशा लालू यादव के नाम से ही जानी गयी. पत्रकार और लेखक संकर्षण ठाकुर अपनी किताब ‘दी ब्रदर्स बिहारी’ में लिखते हैं “राबड़ी देवी की मुख्यमंत्री पद पर ताजपोशी, सत्ता पर लालू यादव के पकड़ की नुमाइश करता है. सत्ता से बाहर होने के बाद भी स्थितियों पर उनकी पकड़ बनी हुई थी. वह अपनी पार्टी और पत्नी के स्वामी तो थे ही, अब राज्य के स्वामी भी बन गये थे.”
किताब कहती है “राबड़ी देवी के मुख्यमंत्री बनने के बाद भी सारे फैसले लालू यादव ही लिया करते थे. वह केवल उनपर दस्तखत किया करती थीं.”
ग्रामीण स्तर पर बदलाव का इंतज़ार
मुख्यमंत्री पद पर आसीन महिला के फैसले अगर उसके पति के नियंत्रण में हो सकते हैं तो पंचायतो में निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों की स्थिति का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है. डेमोक्रेटिक चरखा के ग्रामीण रिपोर्टर जब भी इन क्षेत्रों की समस्याओं को लेकर निर्वाचित महिला जनप्रतिनिधि से संपर्क करते हैं तो उन्हें 'मुखिया प्रतिनिधि' या 'मुखिया पति' से बात करवाया जाता है.
बेगुसराय का बखरी प्रखंड, कटिहार का सेमापुर पंचायत, जमुई का दरखा पंचायत या औरंगाबाद जिले का रफीगंज पंचायत हो, यहां से निर्वाचित महिला जनप्रतिनिधि ना तो जनता से मिलती हैं और ना ही मीडियाकर्मियों से संपर्क करती है. ऐसे में महिलाओं को स्थानीय निकाय के चुनावों में 50% आरक्षण का लाभ पर्दे के पीछे से पुरुष ही उठा रहे हैं.