रामपुर: सरकारी वादे की अनसुनी गूंज और बुनकरों के टूटते सपने

रामपुर गांव कभी अपने भेड़ पालन और ऊन से बने मोटे कंबल के लिए जाना जाता था. लेकिन आज, इस गांव की स्थिति देखकर ऐसा लगता है जैसे समय ने यहां के बुनकरों के सपनों और उम्मीदों को कुचल दिया है.

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नाजिश महताब
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गया जिले के बोधगया प्रखंड के रामपुर गांव को जब 2020 में केंद्र सरकार ने ‘क्राफ्ट हैंडलूम विलेज’ के रूप में चुना था, तो यहां के बुनकरों के लिए यह एक नयी शुरुआत का वादा था. इस फैसले ने गांव वालों के सपनों में नई रौशनी भर दी थी. लोग सोचने लगे थे कि अब उनका पुश्तैनी पेशा जो समय और सुविधाओं के अभाव में खत्म हो रहा था, उसे नई दिशा मिलेगी. लेकिन आज, साढ़े चार साल बाद, इस गांव की स्थिति देखकर ऐसा लगता है जैसे समय ने यहां के बुनकरों के सपनों और उम्मीदों को कुचल दिया है.   

रामपुर का सुनहरा अतीत

रामपुर गांव कभी अपने भेड़ पालन और ऊन से बने मोटे कंबल के लिए जाना जाता था. यहां के गड़ेरिये अपने हाथों से भेड़ के ऊन से कंबल बनाकर बाजार में बेचते थे. यह उनकी जीविका का प्रमुख साधन था. जब इस गांव को क्राफ्ट हैंडलूम विलेज के रूप में चुना गया, तो लगा था कि यहां के लोग अपने कौशल को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाएंगे.

क्या है हैंडलूम क्राफ्ट विलेज योजना

केंद्र सरकार की योजना थी कि हैंडलूम क्राफ्ट विलेज के रूप में रामपुर को विकसित करके यहां वर्क शेड सेंटर बनाया जाएगा. वर्क शेड सेंटर में हैंडलूम के साथ हैंडीक्राफ्ट के आइटम को भी रखा जाएगा. अंतरराष्ट्रीय स्थली को आने वाले पर्यटक वर्क शेड सेंटर में पहुंचकर विभिन्न तरह के आकर्षण साड़ी चादर की खरीदारी कर सकें. भगवान बुद्ध को रेशमी धागे और सूत के धागे से निर्मित खादा भगवान बुद्ध को चढ़ाया जाता है. ऐसे में योजना थी कि रामपुर के ही ग्रामीण इसे बनाकर बेच सकें और दुकानों में सप्लाई हो.

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सरकार की योजना और शुरुआती उत्साह

केंद्रीय कपड़ा मंत्री स्मृति ईरानी द्वारा 2020 में जब रामपुर गांव को देश के 10 ‘क्राफ्ट हैंडलूम विलेज’ में शामिल किया गया, तो यहां के बुनकरों के जीवन में उत्साह की लहर दौड़ गई. 20 बुनकरों को मुफ्त में हैंडलूम और चरखा दिए गए. 90% सब्सिडी पर मशीन दी गई. दिल्ली और भागलपुर से आए प्रशिक्षकों ने यहां के लोगों को वस्त्र निर्माण का प्रशिक्षण दिया. महिलाएं सूत कातने लगीं और बुनकर ऊन से बने धागों को खूबसूरत कपड़ों में तब्दील करने लगे. गांव वालों को उम्मीद थी कि अब उनका कौशल उन्हें गरीबी से बाहर निकालने में मदद करेगा.

कुंती देवी बताती हैं कि “सरकार ने कोई मार्केट नहीं दिया जिसके कारण वस्त्र घर में ही उपयोग करके रह गए. एक रुपए की आमद नहीं हो पाई. कुछ समय और देखा कि सरकार कुछ करेगी, लेकिन कुछ नहीं हुआ. फिर हमने अपने-अपने हैंडलूम के पार्ट्स खोल कर रख दिए हैं.”

यह सपना जल्द ही टूटने लगा. सरकार द्वारा दिए गए हैंडलूम और चरखे अब धूल की मोटी परतों में दब चुके हैं. गांव के बुनकरों का कहना है कि शुरुआत में उन्हें सहायता मिली, लेकिन धीरे-धीरे वह भी बंद हो गई. यहां की बुनकर महिलाएं कहती हैं, “हमें सरकार की ओर से कोई सुविधा नहीं मिल रही है. जो मशीनें दी गई थीं, वह अब उपयोग में नहीं आ रही हैं. बाजार में हमारे बनाए उत्पादों का उचित मूल्य नहीं मिलता. तीन दिनों में एक कंबल तैयार होता है, लेकिन उसे बेचने पर 300 रुपये से अधिक नहीं मिलते. इतने कम पैसों में हम अपना घर कैसे चलाएं?”  

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प्रशासनिक उपेक्षा और टूटते सपने

रामपुर गांव में आज भी आधारभूत सुविधाओं का अभाव है. सरकार ने यहां पोस्ट ऑफिस खोलने, सड़क चौड़ी करने और नाला निर्माण जैसे कई वादे किए थे, लेकिन इनमें से एक भी पूरा नहीं हुआ. बुनकरों के लिए बनाई गई योजनाएं सिर्फ कागजों तक ही सीमित रह गईं. गांव के गड़ेरिये, जो पहले भेड़ पालन और ऊन से कंबल बनाने का काम करते थे, अब धीरे-धीरे इस पेशे से भी दूर हो रहे हैं.  

गांव की रिंकी देवी कहती हैं, “शुरुआत में हमें लगा था कि यह योजना हमारे जीवन को बदल देगी, लेकिन कुछ नहीं हुआ. अब गांव के किसी भी घर में यह काम नहीं हो रहा. अधिकारी आते हैं, फोटो खिंचवाते हैं और चले जाते हैं. लेकिन हमें कोई मदद नहीं मिलती.”  

बुनकरों की बेबसी 

रामपुर गांव में करीब 150 परिवार गड़ेरिये समाज से जुड़े हुए हैं. इनमें से अधिकांश लोग आज भी बेरोजगारी से जूझ रहे हैं. गांव के बुनकर समाज के अध्यक्ष राजेश कुमार बताते हैं कि “कुल 60 लोगों को प्रशिक्षण दिया गया था. लेकिन इन 60 में से केवल 20 परिवारों को ही कुछ लाभ मिला. अब ये 20 परिवार भी इस योजना से हट चुके हैं.”

उन्होंने बताया, “सरकार ने शुरुआत में 1.37 करोड़ का प्रोजेक्ट तैयार किया था. दिल्ली से विशेषज्ञों की टीम आई थी. लेकिन कुछ समय बाद सब ठप्प हो गया. हमें बाजार तक पहुंचने के लिए कोई मदद नहीं मिली. हमारे बनाए उत्पादों को उचित दाम पर बेचने के लिए कोई व्यवस्था नहीं है. अब हमें समझ नहीं आता कि हम अपना जीवन कैसे चलाएं?”  

मूक गवाह बना रामपुर गांव  

आज रामपुर गांव मूक गवाह बनकर खड़ा है. इसके लोग अपने सपनों और उम्मीदों को टूटते हुए देख रहे हैं. जहां एक समय यहां के घरों से ठक-ठक की आवाजें गूंजा करती थीं, आज वहां सन्नाटा पसरा हुआ है. महिलाओं ने सूत कातना बंद कर दिया है. पुरुषों ने चरखे और हैंडलूम को छोड़ दिया है.

इस स्थिति के लिए जिम्मेदार कौन है? सरकार, जो योजनाएं तो बनाती है लेकिन उन्हें जमीन पर लागू करने में विफल रहती है, या बाजार, जो इन बुनकरों के उत्पादों को उचित दाम नहीं देता? क्या यह सिर्फ प्रशासन की लापरवाही है, या सिस्टम का दोष है जो इन ग्रामीणों की जरूरतों को समझने में नाकाम रहता है?  

उम्मीद की किरण 

हालांकि, इस अंधकारमय स्थिति के बावजूद, रामपुर गांव के बुनकर अब भी उम्मीद नहीं छोड़ रहे हैं. उनका कहना है कि अगर सरकार फिर से उनकी मदद करे, उचित बाजार व्यवस्था बनाए, और उन्हें उनकी मेहनत का सही दाम मिले, तो वे दोबारा इस काम को शुरू करने के लिए तैयार हैं.   

अब यहां के ग्रामीण इसी शर्त पर फिर से इस योजना को शुरू करने का काम कर सकते हैं कि सरकार उन्हें सूत दे और जो कपड़े तैयार हों, सरकार उसकी बिक्री के लिए एक निश्चित मार्केट दे, जहां उनके बने खूबसूरत गमछे, साड़ी और चादर बिक्री हो जाए. 

रामपुर गांव की कहानी सिर्फ एक गांव की नहीं है, बल्कि यह उन लाखों कारीगरों और बुनकरों की कहानी है, जो सरकारी योजनाओं के अधूरे वादों और बाजार की बेरुखी के बीच फंसे हुए हैं. यह समय है कि सरकार और समाज मिलकर इनके सपनों को साकार करने के लिए कदम उठाए. अगर समय रहते इनकी मदद नहीं की गई, तो यह अद्वितीय कला और कौशल हमेशा के लिए खो जाएगा.

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