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बिहार,जो कभी खेलों में अपनी पहचान रखता था, आज बदहाली के उस दौर से गुजर रहा है जहां खिलाड़ियों के सपने टूट रहे हैं. खेल विभाग का एक साल पूरा होने के बाद भी, पारंपरिक खेल जैसे फुटबॉल, हॉकी, और अन्य खेलों की दशा में कोई सुधार नहीं दिखा. यह न केवल राज्य सरकार की उदासीनता को उजागर करता है, बल्कि उन प्रतिभाशाली खिलाड़ियों के संघर्ष की कहानी भी बयां करता है जो अपने राज्य और देश का नाम रौशन करना चाहते हैं.
पारंपरिक खेलों का अतीत और वर्तमान
कभी बिहार की फुटबॉल टीमें मोहन बागान, ईस्ट बंगाल और मोहम्मडन स्पोर्टिंग क्लब जैसी दिग्गज टीमों को टक्कर देती थीं. बिहार ट्रांसपोर्ट, बिहार पुलिस, और एफसीआई जैसी टीमें पूरे देश में प्रसिद्ध थीं. पटना फुटबॉल लीग का दबदबा देश भर में था. संतोष ट्रॉफी में बिहार की टीम को 'डार्क हॉर्स' कहा जाता था. लेकिन आज इन टीमों का नाम तक नहीं लिया जाता. इनकी जगह गुमनामी ने ले ली है.
पटना की हालत तो यह है कि यहां एक भी ऐसी टीम नहीं है, जिसके खिलाड़ी पूरी तरह स्थानीय हो. टूर्नामेंट्स का आयोजन ना के बराबर होता है, और जो भी मैदान बचे हैं, वे अव्यवस्थित और खराब स्थिति में हैं.
इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी: खिलाड़ियों के सपने धुंधले
राजन( बदला हुआ नाम ) जो पिछले 5 सालों से फुटबॉल खेल रहें हैं, जिनका सपना है बिहार का नाम फुटबॉल में रौशन करना. जब हमने उनसे इन सारी समस्याओं पर बात की तो उन्होंने बताया कि "बिहार में खेल को लेकर सुविधाएं काफ़ी कम है. यहां न तो सही इंफ्रास्ट्रक्चर है न ही सरकार खिलाड़ियों को खेल के प्रति बढ़ावा देती है. हमारे पास तो ग्राउंड भी नहीं है और ना ही अब टूर्नामेंट्स होते हैं ऐसे में हम आगे कैसे बढ़ेंगे ये मेरा सरकार से सवाल है."
फुटबॉल और हॉकी जैसे खेलों के लिए कोई समर्पित ग्राउंड नहीं है. हॉकी खिलाड़ियों को बीएमपी ग्राउंड में या अन्य खेलों के मैदानों पर प्रैक्टिस करनी पड़ती है.
आर रौशन हॉकी अकादमी के कोच मुन्ना से जब हमने बात की तो उन्होंने बताया कि "हॉकी के लिए तो बिहार में ग्राउंड ही नहीं है. हमें दूसरों के ग्राउंड में या बीएमपी ग्राउंड में प्रैक्टिस करना पड़ता है और अगर अधिकारी आ जाते हैं तो हमें प्रैक्टिस करने भी नहीं मिलता है. हम लोग पिछले कई सालों से हॉकी ग्राउंड की मांग कर रहे हैं. परंतु ऐसा कुछ होता नज़र नहीं आ रहा है. सरकार के तरफ़ से किसी तरह की मदद हमें नहीं मिलती. और तो और जो एकलव्य सेंटर थे उन्हें भी बंद कर दिया गया है."
पटना के संजय गांधी स्टेडियम और मंगल तालाब के मैदान जैसे कुछ ही स्थान बचे हैं. लेकिन उनकी हालत भी खराब है. पटना हाईस्कूल मैदान में सिपाही भर्ती की दौड़ चलती रहती है, जबकि गांधी मैदान मेले और अन्य आयोजनों से घिरा रहता है. खिलाड़ियों को किसी भी स्तर की सुविधा नहीं मिलती.
खेल विभाग और बजट की अनदेखी
2023-24 के बजट में बिहार ने शिक्षा, खेल, कला और संस्कृति के लिए 42,381 करोड़ रुपए आवंटित किए. BSSA का बजट 2022 के 30 करोड़ रुपये से बढ़ कर 2024 में 680 करोड़ रुपये हो गया है. लेकिन यह राशि खेलों पर खर्च होती दिखती नहीं. राजस्थान ने अपने खेल विभाग के लिए 2,500 करोड़ रुपए, और ओडिशा ने 1,217 करोड़ रुपए खर्च किए.
खेलो इंडिया रिपोर्ट के अनुसार, टोक्यो ओलंपिक 2020 में बिहार से एक भी खिलाड़ी ने भाग नहीं लिया, जबकि हरियाणा से 29 और पंजाब से 16 खिलाड़ियों ने हिस्सा लिया. यह आंकड़े बिहार की खेल व्यवस्था की असफलता को स्पष्ट करते हैं.
खिलाड़ियों का संघर्ष: सपनों का गला घोंटती बेरुखी
विकास जो एक हॉकी के खिलाड़ी है . जो काफ़ी गरीब परिवार से आते हैं . उनका सपना एक अच्छा हॉकी प्लेयर बन कर अपने राज्य और देश का नाम रौशन करने का है. जब हमने उनसे बात की तो उन्होंने बताया कि "मैं देश को और अपने राज्य बिहार का हॉकी में नाम ऊपर करना चाहता हूं लेकिन हमारे यहां ना तो ग्राउंड है ना ही किसी तरह की सुविधा. सरकार ने खेल विभाग तो बना दिया है लेकिन उससे हमें किसी तरह की सहायता नहीं मिल रही है. ऐसे कई खिलाड़ी हैं जिन्हें अपने सपनों को छोड़ जॉब करना पड़ रहा है."
ऐसे ही पटना के नया टोला में चाय की दुकान चलाने वाले गोपाल कुमार यादव, जो तैराकी में नेशनल स्तर पर गोल्ड मेडल विजेता रह चुके हैं, आज अपने जीवनयापन के लिए संघर्ष कर रहे हैं. उनकी दुकान की हालत देखकर उनकी आर्थिक स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है. गोपाल यादव कहते हैं, "अब तो किसी को कुछ बताने की इच्छा ही नहीं होती. पिछले 22 सालों से सरकार और मीडिया को अपनी बात बताते-बताते थक गया हूं. मैंने बिहार के लिए पदक जीते, लेकिन मुझे कभी किसी प्रकार की मदद नहीं मिली."
खेल विभाग की असफलता किसकी जिम्मेदारी?
बिहार के 38 जिलों में से केवल 17 जिलों में ही जिला खेल पदाधिकारी हैं. एकलव्य केंद्र जैसे संस्थानों को बंद कर दिया गया है. नतीजतन, खिलाड़ी या तो अपने सपनों को त्यागकर जीविका के अन्य साधन खोजने पर मजबूर हो गए हैं या राज्य से पलायन कर रहे हैं.
सरकार की ओर से खिलाड़ियों को ना तो सुविधाएं मिलती हैं, ना ही प्रोत्साहन. यहां तक कि बुनियादी इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी भी पूरी नहीं की जाती. राज्य में खेलों की स्थिति इतनी दयनीय है कि कई प्रतिभाशाली खिलाड़ी गरीबी के कारण अपने करियर को छोड़ने पर मजबूर हैं.
बिहार में खेलों के प्रति सरकार की उदासीनता को देखते हुए अब यह जरूरी है कि राज्य सरकार इस ओर गंभीरता से ध्यान दे. खेल विभाग को सक्रिय बनाना होगा, खिलाड़ियों के लिए बुनियादी सुविधाओं का इंतजाम करना होगा, और इंफ्रास्ट्रक्चर को सुधारना होगा. जरूरी है कि हॉकी और फुटबॉल जैसे खेलों के लिए समर्पित मैदान बनें, टूर्नामेंट्स का आयोजन हो, और खिलाड़ियों को प्रोत्साहन मिले. यह भी सुनिश्चित किया जाए कि जिला स्तर पर खेल पदाधिकारी मौजूद हों और खेल नीतियों का सही क्रियान्वयन हो.
आगे की राह
बिहार के खिलाड़ियों के सपने आज टूट रहे हैं, लेकिन उनकी आवाज़ अब भी बुलंद है. राजन, विकास, और गोपाल जैसे खिलाड़ी अपने संघर्ष और हौसले से सरकार और समाज को संदेश दे रहे हैं कि अगर उन्हें सही अवसर और सुविधाएं मिलें, तो वे बिहार का नाम रौशन कर सकते हैं.
बिहार को चाहिए कि वह अपनी खेल संस्कृति को पुनर्जीवित करे. खिलाड़ियों के संघर्ष को पहचाने और उनके सपनों को पूरा करने में उनकी मदद करे. खेल केवल एक शौक नहीं, बल्कि एक ऐसा माध्यम है, जो राज्य और देश को गौरवान्वित कर सकता है. खिलाड़ियों की अनदेखी करना, केवल उनके सपनों को तोड़ना नहीं, बल्कि पूरे राज्य की प्रगति को बाधित करना है.